कविताएँ ::
सुघोष मिश्र
मृत तितली
पंख पत्तों पर पसारे
मर गई प्यारी-सी
वह रंगीन तितली
हवा मद्धिम
है डुलाती डंठलें
गर्वीले सदाबहार की
मृत्यु
करती
नृत्य
हिल रही है फूल संग
निर्जीव जैसे अब उड़ी
कि तब उड़ी
स्पर्श करते हो रहा
संकोच मुझको
चीटियों को क्या
मिला औचक उन्हें
यह भोज्य कोमल
मृत्यु
जीवनदायिनी
है
सार इस संसार का निस्सार
जियो लेकर प्यार का आधार
बनो जोगी या करो घरबार
प्राण भरती
सजल मेरे नयन में
निष्प्राण तितली
बोध
जीवन से ऊब
जा रहा हूँ मृत्यु की ओर
दैनंदिन राहों और लोगों से बच-बचकर
उस पथ को चुनता हूँ जिसको
मैं दबी आँख से देख-देखकर
किया अदेखा वर्षों तक
पथरीली
पतली
पगडंडी
जिसके दोनों ही ओर
खाइयाँ हैं गहरी
खींचतीं मुझे वे अपनी-अपनी ओर
चलते जाना है अंतहीन
असुरक्षाओं से निर्भय
किसी ओर के भी निर्धारित
सुगम सुसाध्य परंतु कलंकित
मृत्युवरण से हो तटस्थ
सन्मृत्यु खोज में
बढ़ते जाना है
जीवनबोध और मृत्युबोध
स्पष्ट-सरल करते हैं
एक-दूसरे को
ऐसा मेरा अंतःकरण कहता है
आगे दिखते वे पदयात्री
जीवन के सच्चे अन्वेषी
मेरे प्रेरक पूर्वज
प्रिय पथ-प्रदर्शक
उनके स्वर का पीछा करते
उन तक आख़िर आ पहुँचा हूँ
स्वस्ति वचन से
स्वागत करते मुस्काते
क्लांत देख मुझको
मेरा उत्साह बढ़ाते
करता हूँ मैं उनका सादर अभिवादन
उनके दिव्य चरण हैं
जिन्हें स्पर्श करता हूँ
मुझको हृदय लगाकर
हाथ थामकर
कहते हैं वे—
श्रद्धा तुममें सच्ची है
तुम ऊबो मत
भागो मत
बस संकल्प करो कि
सब कुछ जानोगे जानने योग्य
संकोच मत करो मत ठहरो
गति कहीं नहीं रुकती है
जीवन और मृत्यु
दो मृग-मरीचिका
पार करो दोनों को
तभी मिलेगा पूर्ण रूप अपना
जो नहीं मृत्यु या जीवन है
करणीय करो
वरणीय वरो
तुम सत्य कहो
या शांत रहो
जीवन की ऊब को हरने वाली औषधि
मुझको मिली राह में
उसे लिए आता हूँ
प्रमुदित मन से अनुभव यह बतलाता हूँ—
वैराग्य-वृक्ष जो मृत्युमार्ग में दिखता है
फल-फूल-पत्तियाँ-डाल-तना सब इसमें है
पर जड़ तो उसकी जीवन में है धँसी हुई
उतरो इसमें गहरे पैठो
जड़ को मन में धारण कर
फिर से पनपाओ
लहराओ दृढ़ता से भीतर
और चिदाकाश तक फैलाओ
तुम सृजो सकल संसार पुनः
तुम कलाकार हो व्यक्त करो शुभता को
तुम कवि हो स्वर दो सत्य और करुणा को
अपने गंतव्य से मत भटको
जीवन और मृत्यु घटित होने दो भीतर ही
दोनों ही हैं इस यात्रा के
प्रारंभ और प्रस्थान और
प्रस्थान और प्रारंभ बिंदु
जी भरकर जियो मरो मन भर
निर्लिप्त रहो दोनों से
ऐसे तर जाओ!
एक ही चाँद
एक ही चाँद होगा
जिसे देखोगे तुम
कह दृष्टि और शशि बीच
उसने लाया मुख अपना
कुसुम संग लता झूमी
लिपट गात रुख़ चूमी
कोमलिका अंगना-सी
प्रकृति का विहँसना
लोग प्रेम के विरुद्ध
अंतरतम लिए क्षुद्र
रास नहीं है उनको
कुल रीति तजना
अंधकार में साकार
स्मृति वह निराकार
निसिदिन प्रिय का सुमिरन
अजपा जप जपना
मुझ पर लिखोगे कब
कविता तुम कवि मेरे
दुनिया में न रहूँ तब
लिखना ख़ुद पढ़ना
क़ीमती उलाहनों के
गीत सभी खो गए
रीत गया जीवन
वे दिन हुए सपना
रूप
मेरे और सुवर्णसदृश आभा
के मध्य आवरण हैं अनेक
स्वच्छ-पारदर्शी-रंगीन-मलिन-दूषित
आँखों में जम गई छायाएँ
दृष्टि खो गई
अंतहीन एक भूलभुलैया में
मैं हूँ अन्यमनस्क और अभावग्रस्त
मुझे नहीं भ्रमना
मृत्यु का ग्रास नहीं बनना
पलकें कर बंद प्राण अपने संयत रखना
अंत:करण-आदेश ध्यान में है सुनना
है दोषयुक्त-आहत जो दृष्टि
होगी अविकल-निर्दोष-अनाहत
तदनंतर दृश्य में
अदृश्य के दर्शन होंगे
आवरण हटेंगे
मिटेगी भूलभुलैया
छायाएँ होंगी विलीन
तमभेदी आभा में
होगा अंतः-परितः केवल
शत कोटि सृष्टि में व्याप्त
सच्चिदानंदरूप
सुघोष मिश्र हिंदी की नई पीढ़ी के सुपरिचित कवि-लेखक-अनुवादक हैं। वह इन दिनों लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शोधरत हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनके काम-काज के लिए यहाँ देखें : क्रूर शासक के अपकीर्ति-स्तंभ-सा उपेक्षित │ कविता थीं वे पंक्तियाँ जो लिखी नहीं गईं │ पानी की स्मृति भी प्यास बुझाती है │ मुझे कोई आईना नहीं मिला | तुम्हारे चुम्बन की स्मृति चूमती है मुझे
संपर्क : sughosh0990@gmail.com