कविताएँ ::
तृषान्निता

तृषान्निता

प्रेम में पुरुष और प्रकृति

प्रेम में पुरुष वृक्ष-सा होता है
लाता है वह फूल
अपनी प्रेयसी के लिए
सजाता है उसके जूड़े को
बड़े प्रेम से
जैसे वृक्ष भर देता है प्रकृति को
फूलों से
जब उसकी शाखाओं को वसंत छूता है
प्रेम में पुरुष का मन वसंत होता है

प्रेम में पुरुष बनता है आश्रय
अपनी प्रेयसी के लिए
बाँहें पसारकर भर लेता है उसे
अपनी छाती में
जैसे वृक्ष बनता है आश्रय
पथिकों और पक्षियों के लिए
दर्प से गर्वोन्मत्त सिर उसका
विनम्रता से झुक जाता है
प्रेम में पुरुष शांत वटवृक्ष हो जाता है

प्रेम में पुरुष भींची मुट्ठी खोल देता है
हथेली बढ़ाता है प्रेयसी की ओर
और उसका हाथ थाम लेता है
जैसे वृक्ष पसारता है अपनी शाखें
और लताओं को सहारा देता है

प्रेम में पुरुष बस देना चाहता है
और बदले में चाहता है
केवल स्त्री का साथ
जैसे प्रकृति साथ देती है वृक्ष का
अपनी हवा पानी और धूप से
उसे उन्नत बनाती है
प्रेम में स्त्री प्रकृति बन जाती है
और पुरुष
उस प्रकृति का वृक्ष।

नदी का दुख

एक दिन नदी को दुख हुआ
लगातार कई दिनों तक
उसके पार पर भाटा रहा
छोटी लहरों के साथ बहकर आते रहे
रंग-बिरंगे प्लास्टिक
माँझी को बहुत दुख हुआ
उसने शोक में नाव नहीं चलाई
मछुआरों ने देखा
भाटे के साथ आती मरी मछलियों को
मछुआरों को दुख हुआ
शोक में उन्होंने जाल नहीं बिछाया

ख़बर शहर पहुँच गई
दल के दल पत्रकार उमड़ पड़े उस नदी किनारे
मछुआरों का साक्षात्कार लिया गया
मछुआरों ने नदी का दुख बताया
न्यूज चैनलों में हेडलाइंस आने लगी—
‘मछली निर्यात में हुआ भारी घाटा’
‘जाल में नहीं फँसी एक भी मछली, मछुआरे चिंतित’

फिर लौट गए सभी पत्रकार
नदी के पानी में कुछ अधिक
चाय के कप और सिगरेट के डिब्बे तैरने लगे
मछुआरों ने आँसू बहाए
पत्रकारों ने पैसे कमाए
नदी दुखी रह गई।

मेरे राम

मेरे राम हल चलाते
धूल मिट्टी में खट
अन्न उगाते

मेरे राम बस्ता उठाते
नंगे पैर दो किलोमीटर
हर सुबह पाठशाला जाते

मेरे राम ताली बजाते
आपके राम के जन्म पर
नाच दिखाते

मेरे राम बंदूक़ उठाते
सरहद की बर्फ़ में खड़े
देश पर जान लुटाते

मेरे राम ‘इंक़लाब’ नारा लगाते
हर अन्याय के ख़िलाफ़
आवाज़ उठाते

मेरे राम तंगी बेहाली से लड़ते
हारकर
फिर खड़े हो जाते

मेरे राम मरोड़ देते हाथ
जो उठे उसकी आबरू पर
मेरे राम हर दुर्गा में दिख जाते

मेरे राम बसते हैं
हर मेहनतकश में
हर साहसी
हर निष्कपट में

मेरे राम बस जाते हैं
हर पापी के पश्चाताप में
मेरे राम बस,
बस न पाते
राजनीतिक आडंबर के
क्रियाकलाप में।

हूक

एक हूक उठती है
जब नहीं निकलती कविता
बहुत मंथन के बाद भी

कि जैसे
शब्दों ने कर दी हो बग़ावत मेरे ख़िलाफ़
भावनाएँ रूठ गई हों मुझसे
उपमयों का हो गया हो झगड़ा उपमानों से

असहाय-सा अनुभव करती
उस बच्चे की तरह
बैठा हुआ जो
गोलाबारी के बीच
यह सोचता
कौन चला रहा गोली हम पर?
क्या हो रही है बगावत यह?
क्यों रूठे हुए हैं लोग चारों ओर?
क्यों हो रहा झगड़ा सब लोगों में?
और नहीं गा पाता वह अपने
सपनों के गीत
लाख कोशिशों के बाद भी

बस उठती है हूक
दोनों के दिलों में।

स्त्रियों को सर्दी नहीं लगती

स्त्रियों को सर्दी नहीं लगती
जब उठती हैं वे मुँह अँधेरे
चूल्हा-चौका करने
या जब सोती है वे देर रात
बर्फ़-पानी से बर्तन धोने के बाद
तब भी जब घर में होती हो कोई पूजा
और भोर के चार बजे उठकर
करती हैं सफ़ाई पूरे घर की
या फिर जब नहलवाईं जाती हैं वे
घर के बाहर वाले कुएँ के पानी से
मासिक धर्म के नाम पर
और तब भी जब उसका दूधमुँहा बच्चा
कर बैठता है पेशाब बिस्तर पर
रात के ढाई बजे

स्त्रियों को सर्दी नहीं लगती
ख़ास तौर पर तब
जब आप इन तमाम घटनाओं को
करते हैं नज़रअंदाज़
मगर चलाते हैं व्यंग्य-बाण
उसके सज-धज कर
बिना स्वेटर के तैयार होने पर।

द्वितीय नागरिक

बचपन से मुझे शालीनता सिखाई गई
मुझे बताया गया
उग्रता मुझे शोभा नहीं देता है
जब मैंने ग़ुस्से में हाथ पाँव पटके
मुझसे कहा गया—
लड़कियों का हाथ-पाँव पटकना अशोभनीय है
जब मैंने चिल्लाकर क्रोध प्रकट करना चाहा
मुझसे कहा गया—
ससुराल में कैसे टिक पाओगी?
जब मैंने सामान तोड़कर प्रतिवाद करना चाहा
तो कहा गया—‘लड़की हाथ से निकल रही है’

पुरुषतांत्रिक समाज के ठेकेदारों द्वारा
बार-बार
मेरे हाथ-पैर ज़ुबान पर अदृश्य पट्टियाँ बाँधी गईं
मुझे जबरन नरम बनाया गया
मुझसे अपने हक़ के लिए लड़ने की ताक़त छीनी गई
मुझसे मेरा क्रोध छीन लिया गया

तो मैंने बचपन से ही
मुखर होने के लिए
कभी आँसू का
कभी बंद कमरे का
तो कभी क़लम का सहारा लिया

फिर एक दिन मेरे
संघर्षरत-स्वतंत्र-शिक्षित-स्त्रीवादी व्यक्तित्व को
कटघरे में खड़ा किया गया
और पूछा गया—
क्या मैं अकेली इस समाज से लड़ सकती हूँ?
क्या मैं हज़ार पुरुषों की भीड़ में
ख़ुद को सुरक्षित रख सकती हूँ?
क्या मैं अपहृत, बलत्कृत, घरेलू हिंसा से
शोषित होने से ख़ुद को बचा सकती हूँ?

मेरे ‘हाँ’ कहने पर मुझसे
मेरे बल, क्रोध, उग्रता और मुखरता का
सबूत माँगा गया

मैंने कटघरे के बग़ल में रखे
न्याय की देवी की ओर देखा
उसकी आँखों पर पट्टी बँधी थी
अचानक
युगों की पुरुषतांत्रिक अदृश्य पट्टियाँ
मेरी ज़ुबान-हाथ-पाँवों पर बँध गईं
मैं सबूत नहीं दे पाई
और फिर कमज़ोर होने के अपराध में
मुझपर ‘द्वितीय नागरिक’ का ठप्पा लगा दिया गया।

चाँद का सामान्य होना

रात के विशाल काले आकाश में
तारों की भीड़ से घिरा
चाँद भी
कितना अकेला होता है
जैसे नए शहर में हज़ारों लोगों के बीच
अकेला होता है
कोई नौकरीपेशा नवयुवक

किसी बच्चे की लंबी रेल-यात्रा का साथी
चाँद भी
हो जाता है कितना पराया
जब उस बच्चे के हाथ लग जाता है
कोई अनोखा खिलौना
जैसे दिन भर अपनी ममता सेवा साहचर्य से
आवृत कर रखने वाली आया
हो जाती है पराई
बच्चे की माँ के ऑफ़िस से घर लौटते ही

अपनी रोशनी के दम पर
रात के गहरे अँधेरे से लड़ने वाला
इकलौता साहसी
चाँद भी
खो जाता है धीरे-धीरे
जैसे तंगी बेहाली से लड़ने वाला
ग़रीब घर का एकमात्र कमाऊ पिता
हार जाता है महीने के अंत तक
आते-आते

अँधेरे में राह दिखाने वाला
हौसला देने वाला
अकेलेपन का साथी
चाँद भी
भुला दिया जाता है
सुबह की धूप निकलने पर
जैसे सफलता मिल जाने पर
भुला दिया जाता है वह दोस्त
जिसने साथ दिया था
सबसे कठिनतम समय में

कवियों की कविताओं का उपमान
सौंदर्य का प्रतिमान
चाँद भी
होता है कितना सामान्य
हम जैसे सामान्य लोगों की ही तरह
पर कभी उसकी सामान्यता पर
कविता क्यों नहीं लिखी जाती?

मेरे जंगल की एक और माँ

मेरी माँएँ काटती हैं काठ
ढोती है लकड़ी
मेरे बाप बनाते हैं महुआ-हड़िया
चीरते है ज़मीन, रोपते हैं बीज, उगाते हैं धान
मेरे जंगल के लोग
बजाते हैं मादल, गाते हैं लोकगीत

मेरे जंगल की एक और माँ बैठती है
भारत-टीले की सबसे ऊँची चोटी पर
मैं सोचती हूँ
क्या वहाँ से दिखता होगा उनको
मेरे जंगल के बच्चों के छीले हुए पैर
जो जाते हैं स्कूल नंगे पैर
मीलों की दूरी तय कर
और देखते हैं शिक्षक अनुपस्थित हैं?
या मेरे किसान भाइयों का दुःख
जब उनसे ख़रीदे जाते हैं उत्पाद
सबसे सस्ते दामों में?
या मेरे बहनों के आँसू
जो उच्च शिक्षा के छूटे सपने लिए
बिठाई जाती हैं विवाह-मंडपों में?

क्या वहाँ से उनको सुनाई देता होगा
मादल की थाप
लोकगीत की धुन
जो गूँजता है मेरे जंगल में हर रात?

क्या सोचती होंगी वह
अपने आदिवासी इतिहास के बारे में?
क्या लिखती होंगी हमारा भविष्य?
क्या देखती होंगी हमारे युगों से ठहरे हुए वर्तमान को?

नाह—
भारत-टीले का उनका वह भवन
सबसे ऊँची चोटी पर है।


तृषान्निता हिंदी की नई पीढ़ी की कवि हैं। उनकी कविताएँ इधर कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताएँ प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे trisannita22@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. Raj Gourav 7903527765 मार्च 31, 2024 at 12:43 पूर्वाह्न

    आपकी कविताएं काफी अच्छी हैं । आपकी आने वाली कविताओं का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा । आप अपने जीवन में स्वस्थ और प्रसन्न रहे ।

    Reply
  2. राजेश कुमार सिन्हा अप्रैल 5, 2024 at 3:11 पूर्वाह्न

    बेहतरीन कविताएं संजीदा ख्याल को दस्तक देती हुई। कवयित्री में बेहतर सृजन की अपार संभावनाएं हैं। बधाई और शुभकामनाएं।

    Reply

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