कविताएँ ::
विवेक आसरी
मेनिफ़ेस्टो
तानाशाह बनते ही
मैं करवा दूँगा बिछड़े प्रेमियों की शादियाँ।
हरेक को करना होगा प्रेम
और बिछड़ना अवैध माना जाएगा।
जन्मना ज़रूरी नहीं होगा
पर जन्मने के बाद भी
न जीने पर देना होगा जज़िया।
मेरी यात्राओं से पहले
शहरों में रोपे जाएँगे गुलमोहर
और गाए जाएँगे उदास गीत।
नौकरी माँगने वालों से माँगा जाएगा
भरपूर नींद लेने का प्रमाण-पत्र
और नौकरी देने वालों को तनख़्वाह के अलावा
देनी होगी रोटी और खीर।
मैं जानता हूँ कि
तुम इसे बेवक़ूफ़ी कहते हो
पर मैं इसे कहता हूँ ख़्वाब
और माँगता हूँ वोट
मुझे एक दिन के लिए तानाशाह चुन लो।
कविताएँ देशहित में नहीं होतीं
जैसे
हवाएँ नेत्रहित में नहीं होतीं
वही उकसाती हैं रेतकणों को
उछलकर किरकिरी बन जाने के लिए
वैसे ही
कविताएँ देशहित में नहीं होतीं
वही बताती हैं कि सीमाएँ क़ैद करती हैं
इंसान को
इस तरफ़ भी और उस तरफ़ भी
देती हैं इल्म
कि क्या रहम है और क्या ज़ुल्म
बताइए साँप को
ज़हर मारने की दवा भाएगी क्या?
सुख का व्याकरण
आ जाएगा
हो जाएगा
बदल जाएगा
धरो
करो
मत डरो
ये सब सुखात्मक क्रियाएँ हैं
उम्मीद सुख के व्याकरण का नाम है
दुख किसी नियम से बँधा नहीं
सारी क्रियाएँ उसकी बाँदी हैं
और सारे विशेषण उसके ख़रीदे हुए ग़ुलाम।
सारे सिद्धार्थ कब के सिड हो चुके हैं, भंते!
बोधिवृक्षों को काटकर बनाई जा चुकी कुर्सियाँ
यह ज्ञान पाने के बाद कि
बिना ज्ञान के बैठा जा सकता है
बोधिवृक्ष से बनीं कुर्सियों पर
फूल-पत्तों का इस्तेमाल
प्रेम कविता में कर सको
तो प्रेम करने की ज़रूरत नहीं
पेड़ों के नीचे कौन चबूतरे बनाता है अब
चौपालों ने बना रखे हैं
अपने-अपने वॉट्सऐप ग्रुप्स
चौतरफ़ा पाले जा रहे हैं भ्रम
और साले जा रहे हैं वे ग़म
जो असल में ख़ुशी के बरअक्स
खड़े होने का साहस नहीं रखते
ख़ुशी और ग़म का
एक साथ बैठकर बीयर पीना
प्रेम का चरम है
दिलों का टूटना बंद हो जाना
मानव के क्रमिक विकास को
हमारे वक़्त की देन है
सारे सिद्धार्थ कब के सिड हो चुके हैं, भंते!
एक त्रासदी चाहिए
पेड़ जताने लगे हैं
कि वे ऊँचे होते हैं पौधों से
फल सब्ज़ियों के मुक़ाबिल हैं
और फूल जो खिल चुके हैं
नहीं चाहते कि कलियाँ ज़रा भी बड़ी हों
दीवारें रंगों से आँक रही हैं अपनी औक़ात
और मकान नींवों को जड़ें बताकर
इतरा रहे हैं झोपड़ियों के सामने
मिट्टी घास को भगा रही है
कि कहीं और उगो
रेत मिट्टी को डरा रहा है
कि छूकर दिखाओ
तालाब का पानी नहर से
नहर का नदी से
और नदी का सागर से
पूछ रहा है उसकी जात
एक त्रासदी चाहिए
जो गिरे भड़भड़ाकर
और सबको बराबर कर दे!
विवेक आसरी कर्म से पत्रकार, मन से घुमक्कड़ और वचन से लेखक और कवि हैं। भारत, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया के मीडिया संस्थानों में ऑनलाइन, रेडियो और टीवी पत्रकारिता कर रहे हैं। फ़िलहाल ऑस्ट्रेलिया में रहकर पत्रकारिता कर रहे हैं। नाट्यकर्म में कई वर्षों से सक्रिय हैं। उनके पहले नाटक ‘कोर्ट मार्शल नहीं‘ को 2009 का मोहन राकेश सम्मान मिल चुका है। उनकी रचना ‘इंसाफ़ एक सीधी रेखा है’ एक लंबी कहानी और नाटक के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुई है। उनसे vivekkumarasri@gmail.com पर बात की जा सकती है।