कविताएँ ::
मनीष कुमार यादव
विपर्यय
एक लंबी यात्रा के बाद
एक लंबे स्वप्न में
कितनी दुश्चिंताएँ घेर लेती हैं
जिनसे पार होने को
एक उजाड़ जिजीविषा लिए
अप्रमेय ही बच पाया हूँ
संप्रेषण की आधुनिकता से
समृद्ध वर्तमान में
न कह पाने की विकलता लिए
अन्यतर नहीं जा सकता
अन्यतर जाना हमेशा
विलोम में जाना नहीं होता
विकर्षणों के समवेत स्वर में
जिसमें अपना कोई विगम
नहीं जोड़ पाता हूँ
तुम्हारी प्रतीति में इतना साम्य है कि
समय लगभग स्थिर है
मेरी उपस्थिति में इतना विरोधाभास कि
उसके वेग से चोटिल मैं
सदिश प्रवाह को कोसता हूँ
इस क्षरण होते समय में
आधे मन से पूरा सामर्थ्य
इकठ्ठा करता रहा
आधे विस्थापन से पूरी यात्रा
हमारी यात्राएँ पृथक हैं
पर सारी यात्राएँ
एक वृहद वृत्त का हिस्सा हैं
जिसका अन्वेषण यह सदी नहीं कर सकती।
आगत-विगत
जनश्रुति है कि
दिशासूल में नहीं की जातीं
लंबी यात्राएँ
यात्राओं की आँख में
पड़ जाते हैं थकान के बिंब
स्थगन—
जिसकी अथाह में चले जाते
फगुआ गाते होलिहारों की टोलियाँ
विन्यस्त होते फागुन की दिशा में
मेरी उपस्थिति से स्वाधीन
जिन ऋतुओं ने सोख लिया है
मन का आस्वाद
जिनमें
उछाह की तरह फीके पड़ रहे हैं
अबीर के उजास के रंग
हम मोल लेते एक जोड़ी स्वप्न
पसेरी भर धान के बदले में
वह चैत्र की स्वप्निल उपज का ईंधन
और एक उत्तर-औपनिवेशिक मुल्क की
औसत उदासी
यातनाओं के ठोस से
वाष्प में बदलने को
एक अवस्था की छलाँग चाहिए
पर आस्वाद की इस तंद्रा में
हम तय कर रहे हैं—
इस नींद से उस नींद का पुल
इस स्वप्न से उस स्वप्न की यात्रा
इस दुख से उस दुख का विस्थापन।
श्याम-पट
देवताओं के सहारे
मनुष्यों ने गढ़े थे
भयातुर आलोक
प्रत्यंचा चढ़ाने में खंडित हुए वैभव
अहिरावण नहीं मारे गए
वे अपने मारे जाने की कहानियों में भी
माया बुनते रहे
मछलियों के गर्भ से
मकराध्वजों के जन्म लेने की कहानियों से
मूर्ख बनाया जाता रहा
ताल के खेत बिना बारिश के सूख जाते
उपरवार के खेत सरकारी नियोजन की कमी से
जाज़िम पर बैठते पंच
टाट पर बैठते व्यवस्था में
पिछड़ गए लोग
व्यवस्था छल करती
न्याय करते हठजोग
मूर्तियों में प्राण-प्रतिष्ठा कारीगरों की बजाय
कपास की सघनता से अनजान
पुरोहित ही करते रहे
और नीम के पेड़ों में
अपना ठौर लिए ग्रामदेवता
छलते रहे रूठ जाने के क़िस्सों से।
नैराश्य
स्मृतिचित्रों के आकाश से
ख़ारिज हुआ मन
लौटता है
अबूझे अतार्किक क्षणों में
जैसे लौटती हो प्रारब्ध की
लक्षित देह
अजायबघरों के मरुस्थल से
जैसे लौटता हो आकाश
अपना विस्तार समेटे हुए
अपनी विमाएँ
कंधों पर लिए
जैसे लौटता हो चंद्रमा
अपने विजात का
प्रकाश लौटाते हुए
अपनी क्षारीयता का अपरदन लिए
जैसे लौटती हो पृथ्वी
अपने विक्षेपन में
अपने दिन-रात के
विभेद का भ्रम लिए हुए
दिन और रात विलग घटनाएँ नहीं हैं
एक ही जिजीविषा के दो छोर
एक ही स्वप्न की दो प्रमाणिकताएँ
एक ही परिमेय के दो भाज्य
अकर्मक प्रार्थनाओं से मूर्त हुआ दुःख
लौटता है
जैसे
किसी अनिर्णीत गंतव्य में विलीन हुआ विस्मय
नैराश्य लिए लौटता हो।
नेह-छोह
विषाद और
असमर्थता के शिल्प में
छिपाते हुए अपना त्रास
अपनी करुणा
चुनी हुई जगहों पर
चुनी हुई आशंकाएँ लिए
भागता है मन
स्थिर हो जाए संशयों की बाढ़
निकल पाए विराट अंत की व्यथा से
पर
व्यथाएँ दीवार की तरफ़ हैं
और व्यग्रताएँ आसमान की तरफ़ हैं
जब दिशाएँ बदल रही हैं अपनी परिधि
सुबहें अपना आर्त्तनाद
सरीसृप अपनी केंचुल
पथिक अपनी सराय
अप्रवासियों के जाने की दिशाएँ बदलीं
पर विदा के अर्थ नहीं बदले
न विदा की विवशता
तरल मन के एकांत में
बहुधा तो भूल जाते कि
कोई आश्रय स्थायी नहीं है
न निलय का गुण-धर्म
उजबकों की तरह देखते रहते
क्यारियों के नीचे की ज़मीन
विछोह का भी स्पर्श होता है
निंदकों के मन की भी आसक्ति
पुकारे जाने की अपनी सीमाएँ हैं
नहीं लौट पाने के अपने
अनुबंध
दयिताओं से बिछड़ जाने की भाषा में—
मन से पृथक संप्रेषण की
कोई सत्ता नहीं है।
विषम
हर शहर में कुछ सड़कें उदास हैं
हर सड़क एक हादसा ढो रही है
मौलिक होने की कोशिशों में
दोहराव होते जा रहे हैं शहर
वे अपने व्याकरण में
लगभग
एक से हो गए हैं
शहरों का धीरज
अब जैसे चुक रहा है
और मैं अपनी व्यग्रता में
ख़र्च हो रहा हूँ
फ़िलवक़्त मेरी तरह
मेरे शहर की भी अपनी
त्रासदियाँ हैं
इस शहर में मिलते हों जैसे
आदिम चेहरे और
पुरातन अनुवांशिकता
इस शहर में तुमसे मिल पाना हो जैसे
एक अनागरिक समय में
अनागरिक इच्छा
पर इस नवजात इच्छा में
प्रौढ़ बीमारियों से लड़ता हुआ
किसी परिजन-सा थक गया हूँ
हालाँकि
उपकरणों और लोगों पर
बहुत कम विश्वास करता
आया हूँ
उपासकों और इष्टों से
ईर्ष्या रखता
आया हूँ
भाषाओं और शहरों
से निष्कासित हूँ
वर्जनाओं और उपमाओं
में निर्वासित हूँ।
संत्रास
वरुणा नदी में
डूबती-उतराती
पूर्वज संरचनाएँ
धमनियों और शिराओं की
आर्द बहुलता में उलझी हैं
शुक्ल-पक्ष के धृणताओं के
समकाल में
जैसे सियार उघारते हैं मिट्टी
नवजात शवों की
जैसे तरई लावा की तरह
छितरा दी गई हो
नियत आकाश में
आसन्न खड़ी चुप लिए
बहती नदी में उफनाती
आसन्न अजोरिया रात
ज़िद के इस अनिश्चय प्रहर में
भग्नावशेषों से साँस रगड़ते
भृतात्माओं से देह
वे पीड़ाएँ जो हर शीतलहर में
बतास की तरह उभर आतीं
क्वार का हठ लिए
आयु झपटती जिनकी तरफ़
उन प्रियजनों की अनुपस्थिति के
अगहन में
अठगंवा न्योतते सारी बिरादरी
अलग्योझों ने समझाया
व्यावहारिकता का भुगतान पर
प्रत्यक्ष समाकलनों का हिसाब
कभी समझ नहीं आया
हम विस्मित होते कि कैसे
सभी दुखों की एक संज्ञा
सभी विकलताओं का एक सिरा
सभी स्वप्नों की एक निराशा
सभी घरों का एक हिसाब।
अधीत
वस्तुनिष्ठ व्यग्रता में
अपूर्णताएँ सहचर हैं
और भंगिमाएँ हमारी
पहुँच में नहीं हैं
वे चेतना में संघर्ष करते
अपनी उपस्थिति नहीं बचा पाईं
और विस्मृत कर दी गईं
मातृ-पक्ष के पूर्वजों की तरह
उन पूर्व-ऊष्माओं की भी स्मृति
जो जीवन के कषाय क्षणों में
कभी आश्वस्ति की तरह भी नहीं आयीं
वह नवजात दुख छिपाते रहे
जो इश्तिहार की तरह
दैनिक स्वप्नों का हिस्सा हैं
कल्पनाएँ नींद का अतिक्रमण हैं
और एकांत की जगहें
लेने को तैयार बैठी हैं
शरणार्थी की तरह भयग्रस्त
निर्वासन का भार लिए बैठा हूँ
और निराशाएँ पाँव रख रही हैं नींद पर
अब भी अगोछ लेती हैं आशंकाएँ
पुरायठ हो चुके
किसी निजी दुख की तरह
युद्ध हारे बैठा रहा हूँ
तुमसे निर्बाध दूरी पर
अधिक दुराव
अधिक वैमनस्य की दुनिया में
मैंने लगभग छूटते जाने के क्रम में
लगभग बिखर चुकी कविताएँ सहेज ली हैं।
मनीष कुमार यादव की कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह तीसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : तयशुदा समय की बीमार उपमाएँ
मनीष यादव को पहली बार पढ़ा…आसपास को परिचय देती कविता…प्रत्येक पंक्ति को दुबारा पढ़ने को मजबूर करती हैं ।
बधाई मनीष यादव को ।
मनीष की कविताएँ सदैव ही मन को कचोटती हैं । शब्दों को ऐसे भी ढाँचो में ढाला सकता है जैसा मनीष करते हैं वो अकल्पनीय है
“यात्राओं के आँख में पड़ जाते हैं थकान के बिंब”
“उत्तर औपनिवेशिक मुल्क की औसत उदासी”
“चुनी हुई जगहों पर चुनी हुई आशंकायें लिए भागता मन”
” अप्रवासियों के जाने की दिशाएँ बदलीं
पर विदा के अर्थ नहीं बदले
न विदा की विवशता”
“ हर सड़क एक हादसा ढो रही है”
क्या ही अद्भुत पंक्तियाँ है सभी
मनीष को शुभकामनाएँ
गूढ़ और विशिष्ट शैली की कविता।
सुंदर कविताएँ, जिनमें एक विकल उदासी सी पसरी हुई है। देशज शब्दों का सटीक प्रयोग इन कविताओं को एक छूटी हुई दुनिया में ले जाता है। जहाँ न जाने कितनी छीजें दृश्य में उतर आती हैं।
मनीष बहुत संवेदनशील कवि और मनुष्य हैं। बोलने के पहले हँस देने वाले । यह सरलता उनकी कविता का साथ छोड़ रही है जो ठीक नहीं है। वह कठिन शब्द योजना की ओर क्यों लगातार बढ़ रहे हैं, जानना मुश्किल है। तबीयत से वह दार्शनिक हैं जिसके अनुपम प्रमाण कविताओं के टुकड़ों में बिखरे हैं । वे स्फुलिंग ही प्रस्तावित हों और पारदर्शी भाषा में , उपक्रम यह होना चाहिए। वह इतने अलग हैं कि अलग दिखने के लिए कोई अतिरिक्त बौद्धिक यत्न अपेक्षित नहीं। अति प्रबंधन और तत्समता बहुत बुरी चीज़ नहीं लेकिन मनीष उसे अपनी ताक़त बना नहीं पा रहे । बाँकपन उनमें अनुस्यूत है – उनकी कविता में उसी की आवृत्ति की प्रतीक्षा में मैं उनकी तरफ़ देखता हूँ ।