‘प्रकाश’ प्रसंग ::
निशांत

वर्ष 2012 में भारतीय भाषा परिषद (कोलकाता) से प्राप्त युवा पुरस्कार के साथ प्रकाश और निशांत

एक

प्रकाश के दोनों कविता-संग्रह किताबों की रैक से झाँक रहे हैं। बाहर कालच्छा बादल है। नमी है मौसम में। रिमझिम-रिमझिम बारिश हो रही है। खिड़की से सब धुँधला-धुँधला दिख रहा है। प्रकाश के दूसरे संग्रह को निकालता हूँ। फिर पहले को। मित्र याद आता है पहले, कवि बाद में। आज उसे गए हुए चार साल हो गए। समय-देवता ऐसे याद दिला रहे हैं जैसे कल की ही बात हो।

प्रकाश के पास वंशीधर उपाध्याय जैसा भाई (रविशंकर उपाध्याय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र-कवि) नहीं है। होना चाहिए था।

मेरी सीमित जानकारी के हिसाब से भाई तो कमला प्रसाद जी के पास भी नहीं है। हाँ, आशीष त्रिपाठी जी और राजेंद्र शर्मा जी जैसे शिष्य-मित्र हैं। कमला जी से न मिल पाने का अफ़सोस है और प्रकाश से बिछड़ने का। प्रकाश को बहुत कुछ करना-कहना था, पर उसने कहा :

मेरे पास कहने को कुछ नहीं था
सो जन्मों से कहता जाता था
कहने को होता तो
कह कर चुक जाता

कहने को कुछ नहीं था
सो वाणी डोलती न थी
केवल कुछ तरल-सा हुआ करता था

कहने को कुछ नहीं था
सुबह कोहरा रहता था
समय चुपचाप बहता था
मैं हर बार एक हिलते पौधे से
एक अंजुरी फूल चुनकर
धारा में डाल देता था
और चुपचाप प्रणाम करता था।

यह चुपचाप बहुत कुछ कहती हुई ‘न’ कहने की कविता है। प्रकाश जितना बोलता था उससे काफ़ी कम उसकी कविताएँ कहती-बोलती थीं। वह कम से कम शब्दों में ब्रह्मांड को व्यक्त करना चाहता था। गूँगे के गुड़ की तरह, बिना कुछ कहे गुड़ का स्वाद पाठकों को बताना चाहता था। एक असंभव को संभव करने की कोशिश, वह कविता में करता था। प्रकाश की पहली कविता-पुस्तक की पहली कविता है—’अकथ’।

उसका पहला संग्रह है—’होने की सुगंध’ (2009) और दूसरा है—’आवाज में झर कर’ (2018) दोनों कम से कम शब्दों में ज़्यादा से ज़्यादा वाचाल हैं। थोड़ा लिखना ज़्यादा समझने की तरह। वह छोटी कविताओं का बड़ा कवि है। उसने लिखा तो बहुत ज़्यादा है, पर उसका प्रकाशित बहुत कम ही हमारे सामने हैं।

दो

प्रकाश को मैं तब से जानता हूँ जब मैं लगभग पंद्रह या सोलह साल का था। वह मुझसे दो साल बड़ा था। वह जहाँ भी जाता तुरंत घुल-मिल जाता। जिससे मिलता, उस व्यक्ति के बारे में उसके पास काफ़ी जानकारी होती। कविता का वह कीड़ा था। उसकी कविता जैसा उसका जीवन था। अभी कविता पढ़ना शुरू की नहीं की ख़त्म। आज हिंदी कविता के प्रति थोड़ा-थोड़ा सशंकित हो रहा हूं। डर भी लग रहा है। पता नहीं क्यों?

जिस ज़माने में फ़िल्में देखकर शे’र-ओ-शाइरी, गीत गुनगुनाने का मन होता था; उस ज़माने में वह ‘हम भी तुम्हें चाहना जानते हैं वनपाखी’ जैसी कविताएँ (यह उसका पहला कविता-संग्रह था जिसके प्रकाशक अभिज्ञात जी हैं और जिसे प्रकाश ने जानबूझकर डम्प कर दिया था।) लिख रहा था। वह संग्रह उदयराज जी की लाइब्रेरी में होगा, वैसे 2006 में वह जे.एन.यू. की लाइब्रेरी में था। …तो हम फ़िल्में देखते और मिथुन चक्रवर्ती की तरह ‘डिस्को डांसर’ होने की कल्पना करते। तब प्रकाश ‘वनपाखी’ को चाहता था। उसी ज़माने में राजश्री न्यास के सहयोग से कोलकाता में हिंदी मेला शुरू हुआ था, जिसके प्राणप्रतिष्ठाकारक शंभुनाथ जी हैं; इस मेले के ही एक कार्यक्रम में, 1997 में पहली बार प्रकाश का नाम सुना। वही पता चला प्रकाश भी कवि है। तब मैं मिठाईलाल के नाम से कविता लिखता था।

प्रकाश ने बताया की मिथुन चक्रवर्ती से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हैं—विष्णु खरे और केदारनाथ सिंह। तब वह जनसत्ता में प्रूफ़रीडर की नौकरी करता था और हिंदी का उसका ज्ञान अद्भुत था। भाषा पर उसकी ग़ज़ब की पकड़ थी। हम चमत्कृत होते थे। मेरी हिंदी तो वैसे भी माशाअल्लाह थी। सुभानअल्लाह आज भी है। उन दिनों वह हमारे लिए हिंदी कविता का जीता-जागता इनसाइक्लोपीडिया था। किसी कवि के बारे में पूछना होता तो हम लोग उससे पूछ लेते। गौरीपुर के हिंदी हाईस्कूल में एक भी टीचर ऐसे नहीं थे जिनसे हम केदारनाथ सिंह या कुँवर नारायण के बारे में पूछ पाते। वैसे हम भी तब उन्हें कहाँ जानते थे?

मैं जब पहली बार प्रकाश के घर गया। उसकी किताबों की अलमारी को देखकर लगा कि लाइब्रेरी ऐसी ही होती है। मन भौचक्का। प्रकाश ख़ुश। किसी को अचरज में डालकर उसे काफ़ी मज़ा आता था। उसी तरह कोई नई कविता लिखने के बाद यदि वह उसे पसंद आई तो काँख में डायरी दबाए या एक पन्नी में उसे लिए आपके पास हाज़िर हो सकता है। आपको भौचक्का करने के लिए। वह कविता पढ़ते हुए आपके चेहरे के एक्सप्रेशन को देखता था, आप क्या कह रहे हैं; यह कम महत्त्वपूर्ण होता था उसके लिए। वह कविता पढ़ते हुए आपके चेहरे को भी पढ़ता चलता था।

प्रकाश बाबू (कभी-कभी प्यार से मैं उसे कहता था) को कविता सुनाकर आपकी गुड्डी को ‘भो-काटा’ करने में और ‘मुफ़्ते माल दिले बेरहम’ माने प्रकाश बाबू और आप कचौड़ी खा रहे हैं या एगरोल या झालमुड़ी तो पैसा आप देंगे, तय करवा लेने के बाद कचौड़ी खाने में दिव्यानंद प्राप्त करते थे। आनंद बाबू (आज के आनंद गुप्ता) के सौजन्य से कभी-कभी हम दोनों को ये दिव्यानंद प्राप्त होता था। कवियों को खाने-पीने (खाना और पीना, सचमुच का) के मामले में ‘चूजी’ नहीं होना चाहिए, जो मुफ़्त में मिल जाए उसे प्रसाद समझकर ले लेना ही समय-समाज का गुणधर्म है… यह प्रकाश ने हमें सिखाया।

वह बड़े कवियों की कविताओं का हमेशा प्रशंसक रहा। कुछ कवियों को ऐसे प्यार करता था जैसे कि वे उसकी प्रेमिकाएँ हों, ख़ासकर उनके संग्रहों को। हमें पढ़ने के लिए देता तो सप्ताह भर में ही तगादे करके ले भी जाता। वह अपनी प्रेमिकाओं (कविता पुस्तकों) से हमें ऐसे परिचित करवाता मानो ताजमहल का दीदार करवा रहा हो। अंतिम दिनों में वह ताजमहल के पास ही नौकरी कर रहा था—आगरे में—केंद्रीय हिंदी संस्थान में।

वह पढ़ाकू इतना था कि रात-रात भर जग कर पढ़ता था। मुझे उन दिनों यह कम आश्चर्यजनक नहीं लगता था कि पढ़ने के लिए कोई रात-रात भर कैसे जग सकता है? पढ़ने के लिए सुबह चार या पाँच बजे जगने का रिवाज था। तब हमारे घरों में पढ़ने के बाद बाहर जाकर खेलने का। तो प्रकाश बाबू रात भर जग कर चमगादड़ की तरह दिन भर नींद की आग़ोश में झूलते रहते और शाम को अपनी डायरी लिए ‘जनसत्ता’ के दफ़्तर में। दफ़्तर पहुँचने के पहले किसी दोस्त के सौजन्य से वह गोलगप्पे का चरम आनंद ले लेता या झालमुड़ी का। प्रकाश को भूख बहुत लगती थी और खाने को हीरे की तरह मुग्ध भाव से देखते हुए वह खाता था।

वह हमारा कविता-मास्टर था। वह हमें मिथुन, धर्मेंद्र,जितेंद्र, अमिताभ के चक्कर से बाहर लाया और केदारनाथ सिंह, विष्णु खरे, लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, विनय सौरभ और ‘पहल’ से मिलवाया। विनय सौरभ उसके मित्र थे और उनसे उसकी ख़तोकिताबत होती थी। वह कविता के चक्कर में एक बार मुंबई भी हो आया था और प्रकाश भिसे और गीत (पता नहीं आज वाले गीत चतुर्वेदी भाई या कोई और) का ख़ूब नाम लेता था। वह हमें डाँटता रहता था कि तुम लोग झाँ*** लिख रहे हो, कविता तो ये लोग लिख रहे हैं।

हिंदी की मुख्यधारा या कहे समकालीन कविता का वह गहरा जानकार था। कुछ विदेशी कवियों के नाम से भी पहली बार उसने ही हमें परिचित कराया और उनके अनुवाद का दर्शन करवाया। केदारनाथ सिंह को ‘देखो—वह आ रहे हैं’ कहकर जीवन में पहली बार उन्हें पहचनवाया। कोलकाता में ‘भारतीय भाषा परिषद’ है, वहाँ प्रभाकर श्रोत्रिय निदेशक हैं; यह जानकारी भी पहली बार उसने ही हमें दी। एक बार वहाँ कबीर पर चल रहे एक भव्य कार्यक्रम में हम लोग इसलिए भी गए कि दुपहर में खाने की अच्छी व्यवस्था थी। खाने को लेकर तब हम लोग थोड़े से लालची हुआ करते थे। यह लालच ग़रीबी की वजह से ही था… यह अब मैं समझने लगा हूँ।

रात को खाने-पीने के बाद अच्छी वाली फ़िल्में देखने का उसे शौक़ था। टीटागढ़ में राकेश श्रीवास्तव के घर कई बार रात की पार्टी होती—खाने-पीने और फ़िल्म देखने की। आगरा में नौकरी करने और किराए पर कमरा लेने के बाद टी.वी. और डीवीडी प्लेयर उसने सबसे पहले ख़रीदा। मैं तब जे.एन.यू. में था और मुझे भी न्योता मिला था—शनिवार-रविवार को आकर महफ़िल में जीमने का। वह यारबाश तो था, पर अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाता था और किसी को महान बताता तो इतना कि उसे हिमालय बताता और उसकी आलोचना करता तो इतना कि उसे खटमल बता देता। वह दोनों स्थितियों में चरम पर चला जाता। संतुलन साधना वह जानता नहीं था। इसलिए उसकी दोस्तियों में झगड़े शामिल हो जाते और टूटन आ जाती। वह लड़ते-झगड़ते कविता की दुनिया में पनाह लेते हुए चल रहा था। इसलिए उसकी कविताएँ एक दूसरे ढंग की दुनिया रच रही थीं। वह उन्हीं में रह रहा था। ‘होने की सुगंध’ की एक कविता है—’अपनी कथा नहीं’ :

मैं अपनी कथा कहना चाहता था

कथा शुरू करते ही
पहले शब्द में आकर
बैठ जाती थी एक चिड़िया
जब तक मैं उस चिड़िया को हड़काता था
दूसरे शब्द में आकर बैठ जाती थी एक हरी पत्ती
पत्ती से निपटने की सोचते ही
रिश्ते में चला आता था
हँसता हुआ गुलाब

मुझे हँसी आ जाती थी
मेरी अपनी कोई कथा नहीं थी।

वह बातचीत के क्रम में कहने को बहुत कुछ कहता था। मिलता तो वही ज़्यादा बोलता, हम चुप रहते। उसे सुनते। पर वह लिखता तो काफ़ी छोटी-छोटी कविताएँ—मनोज कुमार झा की तरह। यह ऊपर की कविता भी 2009 के समय-काल को नहीं बता रही है। वह अपना समय-काल नए ढंग से बता रहा है, बल्कि वह अपना समय-काल रच रहा है; जहाँ उसकी कोई कथा नहीं है। एक जेनुइन कवि, हमेशा अपना समय और काल बनाने की कोशिश करता है। प्रकाश भी बनाने की प्रक्रिया में था, थोड़ी बहुत उसकी निर्मिति भी वह कर चुका था। लेकिन वह पूरा नहीं कर पाया—जीवन का मकान।

तीन

प्रकाश बाबू समय से हाँककर जीवन के बाहर खदेड़ दिए गए थे। उनमें उनका जीवन था। जीवन में जीने की जद्दोजहद थी। वह जीवन के हाथी के ऊपर खड़े होकर, नीचे से जीवन को गुज़रते हुए देखते थे और उस जीवन में गरिमा की उपस्थिति का अकाल उन्हें दिखता था। अकाल का उत्सव मनाते कवि उन्हें दिखते थे। कवि के जीवन और उनके शब्दों के उत्सव से वह भागकर अपनी दुनिया अपनी कविताओं में लिखते नहीं रचते थे।

उसमें कविता लिखने का अद्भुत गुण था। आनंद और हम हर हफ़्ते उसकी कविता सुनते थे। वह भी सात या आठ से कम नहीं होती थीं।

उसके रचे हुए को कभी-कभी हम नहीं समझ पाते थे, कहते भी थे और फिर वह आराम से हमें समझाता या समझाने की कोशिश करता। ‘पूर्वांचल प्रहरी’ (असम का एक हिंदी दैनिक) में जाने के पहले तक उसकी कविताएँ दूसरी दुनिया की नहीं लगती थीं। पर हाँ, वे थोड़े अलग आस्वाद की उस समय भी थीं। वह विनोद कुमार शुक्ल का प्रशंसक तो काफ़ी था, लेकिन विष्णु खरे भी उसे काफ़ी प्रिय थे। विष्णु खरे की गद्य कविताओं का वह मुरीद था। अशोक वाजपेयी को वह बस पढ़ लेता था, उन्हें पसंद नहीं करता था। लेकिन पीएच.डी. उसने उन पर ही की। पीएच.डी. की कहानी फिर कभी।

जवानी की उस उम्र में रास्ते पर दौड़ते हुए उसे कभी नहीं देखा।इस चक्कर में कई बार टीटागढ़ या कांकीनाड़ा में हमारी लोकल ट्रेनें छूटी। थोड़ा तेज़ चल लेने पर बूढ़ों की तरह वह हाँफता था। इसका शायद अवसाद एक कारण रहा हो या जवानी की असफलताओं ने ख़ासकर बारहवीं में अँग्रेज़ी में तीन-तीन बार फेल होने की वजह से ही वह अवसाद में गया हो। अवसाद में जाकर वह बुड्ढा हो गया। अब बच्चों जैसी सरलता कभी-कभार ही उसके चेहरे पर दिखती—अच्छा खाते वक़्त या अपनी कविता का ‘प्रकाश’ आपके चेहरे पर देखकर। एक बार कोलकाता पुस्तक मेले में शंभुनाथ जी के लिटिल मैगज़ीन के स्टाल पर हम लोगों ने प्रकाश, शैलेंद्र जी और कुमार विश्वबंधु के कविता-पाठ का आयोजन करवाया। उसमें विनोद दास को इन तीनों की कविताओं पर बोलना था। इस अवसर पर प्रकाश के विषय में विनोद दास की एक बात ज़ेहन में अटकी रह गई कि आप जवान होकर बूढ़ों की तरह कविता लिखते हैं। आपकी कविताएँ पढ़कर-सुनकर लगता है कि आप बचपन से सीधे बुढ़ौती में चले आए। युवाओं को आक्रोश और प्रेम पर कविताएँ लिखनी चाहिए। इतनी गंभीरता इस उम्र में अच्छी नहीं। इसे सुनकर वह मंद-मंद मुस्कुराता रहा। बाद में ट्रेन में आते वक़्त वह विनोद दास की बातों से सहमत नहीं दिख रहा था।

समय से पहले उसकी कविताएँ गंभीर हो गई थीं। समय से पहले वह बुद्धिजीवी हो गया था और समय से पहले अलहदा कवि।

समय से सब कुछ होता है तो अच्छा होता है। समय से पहले और उसके बाद होने से सभी गड़बड़ियाँ शुरू हो जाती हैं। एक रिटायर पिता, बूढ़ी माँ, जवान और बड़ी दो बहनें, घर का दूसरा पर बड़ा लड़का, दो छोटे पर समय में बड़े भाई; इसमें प्रकाश की स्थिति ‘आधे-अधूरे’ की नायिका की तरह थी। वः करना तो बहुत कुछ चाहता था, पर हो कुछ भी नहीं रहा था। चालाकियाँ और मजबूरियाँ उसे बाँधकर कुछ करने नहीं दे रही थीं। वह तड़फड़ाता और फिर उसी पिंजरे में आकर बैठ जाता। तीन बार की असफलता, जनसत्ता की छूटी हुई नौकरी कि पहले डिग्री लेकर आइए; उसे बूढ़ा बनाने के लिए काफ़ी थी। वह हिंदी का प्रकांड विद्वान था, लेकिन डिग्रीहीन। वह कहता था (मुझसे तो कई बार) कि सिर्फ़ मेरे पास डिग्री नहीं है; नहीं तो मैं शंभुनाथ जी से ज़्यादा जानता हूँ। मुझे उसकी ये बातें गर्व से भरी लगती थीं, लेकिन इन्हें कहते वक़्त वह काफ़ी आत्मविश्वास से भरा लगता था। 2005 से पहले वह कुछ समय के लिए असम में था। एक बार बंगाल आया और हम लोग शैलेंद्र जी से मिलने सोदपुर रेलवे स्टेशन पर उतरे—उनके घर जाने के लिए। नौकरी के बाद उसके पास कुछ रुपए थे और पहली बार उसने मिठाई ख़रीदी और रिक्शे से मुझे ज़िद करके ले गया, जबकि रिक्शे पर चढ़कर जाना मुझे पैसे की अपव्ययता लगती थी उन दिनों। उसने पैसे बचाने बाद में शुरू किए, लेकिन बचा नहीं पाया। पैसे ने ही उसकी जान भी ली। वह बच नहीं पाया।

वह अभी और जीता अगर उसने थोड़ा-सा धीरज धरा होता।

सब कुछ रास्ते पर आना शुरू हो गया था। उसने कुछ समझौता भी करना शुरू कर दिया था— शंभुनाथ जी के आगरा से चले आने के बाद—केंद्रीय हिंदी संस्थान के रजिस्ट्रार के साथ। अशोक वाजपेयी के ऊपर पीएच.डी. पूरी करके उसने वाणी प्रकाशन से ‘कविता का अशोक पर्व’ के नाम से उसे पुस्तकाकार छपवा भी लिया था। यह बात अलग है कि इस प्रकाशन में अशोक जी की भूमिका ज़्यादा थी। फिर भी अशोक जी पर इतना व्यवस्थित काम या पुस्तक कम लेखकों ने ही लिखी है। अशोक जी के चाहने वालों ने भी नहीं।

पर प्रकाश को आत्महत्या करनी पड़ी, कारण बना पैसा।

वास्तव में दिल्ली के एक डी.डी.ए. फ़्लैट ने उसकी जान ली। संस्थान के रजिस्ट्रार ने उसे डी.डी.ए. फ़्लैट का फ़ॉर्म भरने के लिए उकसाया और डी.डी.ए. की लॉटरी में उसके नाम एक फ़्लैट निकल आया। एक लाख देकर फ़ॉर्म भरा था। बाक़ी के चौदह लाख देने थे। उसने एक प्राइवेट बैंक से लोन भी लिया और दोस्तों-घरवालों पर दबाव बनाने लगा, क़र्ज़ लेने-देने का। घर ने ही उसकी जान ली।

उसने एक घर ही तो चाहा था। वह घर भी वह नहीं ख़रीद सका। वह सब कुछ छोड़कर चला गया। वह मौत की बात कम करता था, लेकिन मौत से डरता ज़रूर था। अंतिम दिनों में वह अपनी मृत्यु से लोगों को डराने की कोशिश करता था और एक बार ढेर सारी नींद की गोलियाँ भी पिता को डराने के लिए खाई थीं, पर इस बार डर हक़ीक़त में बदल गया। वह हार गया।

जाने कब से इस भाँवर की तैयारी थी

एक चिड़िया जन्मती थी
और बूढ़ी होकर मर जाती थी
एक हरी पत्ती निकलती थी टहनी पर
और पीली होकर गिर जाती थी
नदी की पहली धारा अपने उत्स से निकलकर
एक लंबी बेचैन यात्रा के बाद
सागर से मिल जाती थी
आसमान से एक तारा टूटकर
करोड़ों प्रकाशवर्ष की यात्रा कर
ब्रह्मांड में कहीं खो जाता था

मैंने हिमशिलाओं को टूटते देखा था
देखी थी इस मिट्टी की अंतस प्यास

मेरा भी कवच कई बार टूटा था
पर भीतर दुबका कछुआ
हरदम सुरक्षित था

मेरी टकटकी उसकी ओर लगी रहती थी
और एक दिन पड़ी ही गई वह भाँवर
अनंत समय से जिसकी तैयारी थी।

जन्मना और बड़ा होकर मर जाना यह 2009 की कविता में है। 2006 के बाद वह काफ़ी परेशान रहने लगा था। उम्र का बढ़ना, पैसे का कम से कम होते जाना उसकी चिंताओं में शामिल होता गया था। असम की नौकरी छूटने के बाद भारतीय ज्ञानपीठ और वाणी प्रकाशन में एक तरह से प्रूफ़रीडर की नौकरी और उसमें शोषित होना—लगातार शोषित होना, एक संवेदनशील मनुष्य और कवि के लिए त्रासद था?

चार

मृत्यु कभी भी जीवन का विकल्प नहीं होती—हत्या या आत्महत्या भी नहीं। आत्महत्या के लिए उकसाने या मजबूर करने वाला समाज काफ़ी क्रूर होता है—व्यक्ति के बरअक्स। प्रकाश पूर्णकालिक कवि था। वह कविता लिखकर जीना चाहता था। यह समाज सिर्फ़ कविता लिखकर किसी को जीने नहीं दे सकता। नौकरी करते हुए कविता लिखी जा सकती है। कविता की नौकरी करना कठिन कार्य है। प्रकाश नहीं कर पाया, जबकि अंत के दिनों में वह काफ़ी समन्वयवादी होने की प्राण-प्रण से चेष्टा कर रहा था। हर बार प्रयत्न सफल हो जाए, ज़रूरी नहीं। वह अवसाद की दवा खाता था। यह बात हर मिलने-जुलने वाला पहले दिन से जान जाता था, पर वह इतने अवसाद में कभी नहीं रहा कि आत्महत्या कर ले। कम से कम हम लोगों को तो यही लगता था। शंभुनाथ जी के आगरा से आने के बाद एक बार वह भीषण अवसाद में पड़ा। तब विजय बहादुर सिंह ‘वागर्थ’ के संपादक थे। एक दिन वह और नीलकमल जी उसे देखने भी गए थे। आनंद और मैं, अलग-अलग गए थे। वह परेशान ज़रूर था, लेकिन आत्महत्या के बारे में सोच रहा था, ऐसा नहीं लगा।

परेशानी हमारी पीढ़ी को उपहार में मिली है या शायद हर पीढ़ी ही ऐसा सोचती होगी! इस परेशानी-बेचैनी को लेकर ही मैंने एक रोज़ मैंने अपनी डायरी में लिखा था :

24/11 को मित्र प्रकाश आया, शाम को 6:00 बजे और 25/11 को मैं दिन भर उसके साथ रहा।

बदला तो वह ज़रा भी नहीं है। एक बार टीटागढ़ में उसने मेरी मुफ़लिसी के दिनों में पूछा था कि अच्छा बताओ मिठाई? अगर कोई तुम्हारी गाँ*** मारकर सरकारी नौकरी देगा तो तुम लोगे? मैंने उस समय भी उसे कड़ा जवाब दिया था। लेकिन आज जब वह रजिस्ट्रार के लिए समीक्षा, लेख, पुस्तक लिखने को तैयार हो गया है तो इसे मैं क्या समझूँ? समीक्षा और लेख तो लिख भी दिया है। अब पुस्तक तैयार करने वाला है। यह गाँ*** मरवाकर नौकरी बचाने का ज़्यादा बेहतर तरीक़ा है। सुनने में यह आता है कि संजीव जी ने महुआ माजी के उपन्यास को सुधारा है। कोलकाता के कवि ध्रुवदेव मिश्र पाषाण ने एक महिला की कविताएँ सुधारी हैं और कुणाल सिंह ने दूसरों के लिए संपादकीय तक लिखा है। कहीं पद से, कहीं पैसों से तो कहीं रूप से लोग लोगों का शोषण कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में प्रकाश और कुणाल जैसी प्रतिभाएँ कितने दिन तक बची रहेंगी? कितने दिनों तक बचा रहेगा उनका लेखन? एक बार आप झुके, फिर बार-बार आप झुकेंगे। झुकते ही चले जाएँगे। ऐसी स्थिति में क्या होगा आपका? आप जब झुकने से इनकार कर देंगे। आप मार दिए जाएँगे। अब यह एक ऐसी यंत्रणा हो जाएगी जो जिंदगी भर टीसती रहेगी। बहरहाल, प्रकाश की इस स्वीकारोक्ति पर मैं हतप्रभ रह गया, लेकिन कुछ कह नहीं पाया। उसके पत्नी और होने वाले बच्चे को देखकर मैं उसे विद्रोह करने के लिए उत्तेजित नहीं कर पाया। मैं भी एक बार ऐसी ही स्थिति में फँस गया था, जब जगदीश प्रसाद साह के यहाँ मैंने नौकरी की थी। वह महाश्वेता देवी के ख़िलाफ़ मुझसे लिखवाना चाहते थे, पर मैंने लिखने से इनकार कर दिया था। एक महीने दस दिन से ज़्यादा वहाँ नौकरी नहीं कर पाया। आज जगदीश जी नहीं हैं और न उनके द्वारा दिए जाने वाला सम्मान का कोई नामोनिशान।

[26 नवंबर 2008, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली]

लेकिन हमारी पीढ़ी के पास हिम्मत भी ख़ूब है। मनोज कुमार झा, अच्युतानंद मिश्र, प्रदीप जिलवाने और भी कई कवि-कथाकार हाल-हाल के दिनों तक परेशान थे और हैं। लेकिन वे हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाते चल रहे हैं। प्रकाश भी चलता यदि यह फ़्लैट उसके गले में न पड़ता। वह जब 22 जनवरी को बंगाल के एक अस्पताल में पड़ा था तो उस दिन वह अपने पिता से रुपए लेकर वापस आगरा जाने वाला ही था, पर वह स्टेशन नहीं गया। वह कहीं दूर की यात्रा पर निकल पड़ा।

उसे यहाँ ही नहीं पूरे भारत में प्यार करने वाले लोग काफ़ी थे। ज्ञानरंजन, अरुण कमल, मधु काँकरिया, शंभुनाथ, विजय बहादुर सिंह, एकांत श्रीवास्तव, अशोक वाजपेयी, इब्बार रब्बी, कृष्ण कल्पित, नीलकमल, भोला सिंह, संजय राय से लेकर दिल्ली में उसके संघर्ष के दिनों के साथी तक।

संघर्ष तो प्रकाश ने काफ़ी किया था। वह संघर्ष करके प्रकाश बना था। उसके पहले संग्रह पर उसका नाम प्रकाश पत्र छपा था। सर्टिफ़िकेट में वह प्रकाश साव था। उसने पत्र और साव दोनों को अपने नाम से हटाया। वह घर का पहला लड़का था और पीएच.डी. करके डॉक्टर को अपने नाम के आगे ले आया था, पर लिखा कभी नहीं—डॉ. प्रकाश। हाँ, कभी-कभी वह गर्वोक्ति मैं कहता कि मैंने अपने घरवालों का नाम रौशन किया है। पिता और माँ के खानदान में किसी ने पीएच.डी. नहीं की है। सिर्फ़ प्रकाश नाम से ही वह ख़ुश था और हम दोस्तों में मोटका। उसके भाई-बहन भी उसे मोटका ही कहते थे, लेकिन हमारी तरह उसके पीछे-सामने कहने पर सबकी तरह उसे भी यह बुरा लगता था, लेकिन बुरे लगने का अभिनय वह नहीं करता था। वह अभिनेता नहीं था और यह उसकी कमी नहीं थी। पर इसका ख़ामियाज़ा उसे उठाना पड़ा। ‘पूर्वाभ्यास नहीं’ कविता में वह कहता है :

इस अभिनय का कोई पूर्वाभ्यास नहीं
धकेल दिया जाता हूँ नेपथ्य से मंच पर
रह जाता हूँ अबोधपने के साथ—
हक्का-बक्का!

क्या करूँ
हाथ-पैर हिलाऊँ
या मुँह बनाऊँ
कैसे करूँ शुरू
या निकल जाऊँ चुपचाप उचकाकर कंधा

इस अभिनय का कोई पूर्वाभ्यास नहीं

ठीक से न रोना सीखा न हँसना
आखों में चमक या उदासी का भी पता नहीं
चेहरे पर नहीं कोई रंग-रोगन
रात पहनकर जो सोया था कपड़ा
सुबह आँख मलता उठकर चला आया सीधा यहाँ

बालक-सी अचानक रुलाई फूटती है
क्या करूँ अभिनय
इस अभिनय का कोई पूर्वाभ्यास नहीं

‘इस अभिनय का कोई पूर्वाभ्यास नहीं’ की आवृत्ति, जैसे लगता है कि उसकी आत्मा से निकलकर कविता में बार-बार चली आती है। जब आज कविता और जीवन में अभिनय ही प्रधान हो गए हैं, वह अभिनय न करने का ख़ामियाज़ा उठाकर चलता बना।

पाँच

प्रकाश शुरुआती दिनों में बहुत महत्वाकांक्षी नहीं था, लेकिन दिल्ली आने के बाद ख़ासकर सन् 2000 के बाद उसके मन में भी महत्वाकांक्षाओं ने अपने पर फैलाने शुरू कर दिए। उसकी कई इच्छाओं में दो इच्छाओं ने दिल्ली में आकर अपने पंख खोलना शुरू किया। एक तो वह चाहता था कि उसे युवा कविता के लिए दिया जाने वाला का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार मिले, जो लगभग उसे मिल भी गया था; लेकिन एक तकनीकी ग़लती की वजह से वह ‘ऑफ़िशियली’ उसे नहीं मिला। दूसरी इच्छा थी कि उसका संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से आ जाए। पर वह वहाँ से नहीं आया। मित्र कुणाल सिंह ने अपना जादू दिखाया था तब। बाद में वह संग्रह शिल्पायन से आया—2009 में—’होने की सुगंध’ शीर्षक से। उसमें भी शिल्पायन वाले ने उससे 7000 रुपए लिए 100 कॉपी देने की एवज़ में।

चाहे आपके चाहने वाले जितने हों, आज भी युवा कवियों के लिए कविता-संग्रह छपवाना कम मुश्किल काम नहीं है। वह तो भला हो ज्ञानपीठ, साहित्य अकादेमी और कुछ संस्थाओं का जहाँ से समय रहते कुछ लोगों के संग्रह आ गए हैं।

प्रकाश की कविता में रुचि किशोर उम्र से ही थी। शुरुआती दिनों में अभिज्ञात जी उसके गुरु थे। उन दिनों त्रिलोचन जी के लड़के जनसत्ता में थे तो उनसे भी उसकी अच्छी बनती थी। उन दिनों कोलकाता में ‘लघु पत्रिका’ आंदोलन ख़त्म नहीं हुआ था। ‘ईरा’, ‘उद्गार’, ‘कण’, ‘पदार्पण’ और ‘समकालीन सृजन’ लगातार निकल रही थीं। उसी समय प्रकाश ने भी ‘सृजन प्रवाह’ के नाम से अपनी पत्रिका का एक अंक निकाला था। बाद में दूसरे अंक से आनंद और मैं, साथ में कई मित्र जुड़े और उसके असम जाने के पहले तक सात अंक निकले। प्रकाश उसका संपादक और हमारा लीडर था तब आईएसएसएन नंबर का रोब-दाब नहीं था। प्रकाश के असम जाने के बाद वह टीम बिखर गई और हम लोग अपने-अपने रास्ते लग गए।

प्रकाश कविता को लेकर जुनून की हद तक पागल था। विनोद कुमार शुक्ल की किताब ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह’ से और उनकी कविता से पहली बार हमारा परिचय भी उसने ही करवाया। बाद में वह उनकी तरह की कविता भी लिखने लगा। जब जीवन, जीवंत जीवन इतना चारों और धँसा पड़ा हो; तब वह कलावादी ढंग की कविता लिखता था और मैं आश्चर्यचकित हो जाता था। क्या जीवन की समस्याओं का हल कल्पनावादी ढंग से किया जा सकता है? क्या प्रकाश की कविताएँ उसके माहौल और परिवेश से मेल खाते थे? दिल्ली में भी उसका संघर्ष कम भयानक नहीं था। मनोज कृष्ण बताते थे—उसके सपनों और संघर्षों को लेकर, लेकिन उसकी कविताएँ कुछ और बयान करती थीं। उसमें समझ और हिंदी का ज्ञान काफ़ी अच्छा था और इसकी बदौलत शंभुनाथ जी ने आगरा में उसे सहायक संपादक बनाकर रखा था। उनके आने के बाद फिर एक बार उसका संघर्ष तेज़ हुआ, लेकिन यह सब उसकी कविताओं में नहीं दिखता था। कभी-कभी उसकी कविताएँ मेरे भी सिर के ऊपर से गुज़र जाती थीं। उसका जीवन और संघर्ष देखकर और उसकी कविताएँ देखकर लगता था कि जीवन का अभाव वह कविता से पूरा कर रहा है। अंतिम दिनों में वह ओशो को पढ़ने लगा था। पढ़ाकू तो वह बड़ा भयानक था और किताबों का शौक़ीन भी। ओशो से वह इतना प्रभावित था कि ‘आत्मन्’ शीर्षक से उसने इतनी कविताएँ लिखी थीं कि सिर्फ़ उन्हें एकत्र कर दिया जाए तो एक से ज़्यादा संग्रह बन जाएँ। कांकीनाड़ा के मित्र रथीश शर्मा से वह ओशो और अपनी उन कविताओं पर घंटों बहस करता था। एक समय में रतीश भाई ने भी जमकर ओशो का रसपान किया था। प्रकाश के मरणोपरांत ‘आवाज में झर कर’ जो संग्रह अशोक वाजपेयी जी के सौजन्य से आया, उसमें ‘आत्मन् के गाए गए कुछ गीत’ एक खंड है जिसमें क्रियाओं को केंद्र में रखकर तेरह कविताएँ—आना, सुनना, कहना, गाना, चलना, साँस लेना, देखना, जानना, पुकारना, खाना, पीना, सोना, जाना—शीर्षक से हैं। ये अलग में भी थोड़ा ढंग की कविताएँ हैं… मतलब जिन्हें मैं कुछ-कुछ समझ पाता हूँ।

जवानी में हर कवि, किसी न किसी कवि से प्रभावित रहता है या किसी न किसी के लेखन से। प्रकाश विनोद कुमार शुक्ल की चमत्कारप्रियता से प्रभावित था, लेकिन उसने उनकी नक़ल नहीं की। उसने उनके शिल्प को लिया, लेकिन उसे अपने कल्पना और अमूर्त बिम्बों से उनके जैसा नहीं रहने दिया। यह प्रकाश की ख़ूबी थी। उसके समकालीन तो आज भी केदारनाथ सिंह की नक़ल करते हैं, लेकिन वह नक़ल से आगे बढ़ गया था। वह अपना रास्ता बना चुका था। एकदम अलहदा, एक नए ढंग का कि तभी वह दुर्घटना घटी और सब कहने लगे कि उसे अभी बहुत कुछ करना था। उसे अपने बेटे कबीर को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाना था। अपनी कविताओं की डायरियों को व्यवस्थित करना था। नए घर में जाना था। पर कवियों के जीवन में बहुत कुछ अधूरा ही रह जाता है—कभी कविताएँ, कभी इच्छाएँ और कभी जीवन और स्वप्न। प्रकाश की कविता ‘आह’ के बहाने से कहूँ तो :

चला जाऊँगा
तो यह जाने का दुख मुझे नहीं होगा
दुख यह किसी ‘तुम’ ‘आप’ को भी न होगा

इतना सुंदर हो जाऊँगा
कि नष्ट करने से पहले
पूरा अस्तित्व हहकारेगा
फिर उसके कंठ से फूटेगी
एक आह!

इस कविता की पंक्ति ‘कि नष्ट करने से पहले पूरा अस्तित्व हहकारेगा’, क्या भविष्यगामी दृष्टि थी? जहाँ सिर्फ़ एक ‘आह’ बचेगी?

छह

प्रकाश पर लिखता जाता हूँ और सोचता जाता हूँ। कितनी-कितनी बातें याद आ रही हैं, कितनी- कितनी कविताएँ; कितनी-कितनी घटनाएँ? मेरे ख़ुदा! कवियों तकलीफ़ चाहे जितनी दे, लेकिन उन्हें उम्र तो देनी चाहिए।

प्रकाश के साथ बिताए हुए पल मेरी पूँजी की तरह हैं तो उसके साथ की गई यात्राएँ मेरी धरोहर हैं। हम दोस्तों के बीच झगड़े ख़ूब हुए तो प्यार भी हमने एक-दूसरे को ख़ूब किया। उसे बोलने में मज़ा आता था और मुझे सुनने में। वर्ष 1999 से 2005 तक का समय उसके जीवन में चैन की बंसी बजाने का समय था। जब त्रिलोकीनाथ, दीपक (वकील साहब), राजेश, मैं और आनंद हर रविवार को टीटागढ़ में अड्डा जमाते थे। कभी-कभी वह मेरी दुकान में आ जाता और हम लोग साथ ही हमारे घर आते। वह इस दौरान बेरोज़गार जरूर रहा, लेकिन ‘सृजन प्रवाह’ इसी दौरान निकली और परवान चढ़ी। वह अपनी पत्रिका से प्रेम करता था। उसने अपनी पत्रिका में कभी अपनी कविता नहीं छापी। वह युवा था, पर छपने के प्रति उस समय उसके अंदर विरक्ति थी। उसे लिखने से प्रेम था। वह हर रविवार को अपनी पाँच-छह या आठ-दस नई कविताओं के साथ उपस्थित हो जाता। मुझ पर और आनंद पर वह अपना हक़ समझता था और कभी भी आकर कहता कि चलो आदु (आनंद) के यहाँ जाना है या रतीश के यहाँ चलो। उसे साइकिल पर बिठाकर मैं ले भी जाता था। अष्टभुजा शुक्ल जी ने तो एक बार उसे डाँटा था कि साइकिल चलाना सीख लो तब मेरे यहाँ आना। वह भी बस्ती का था और एक दिन अष्टभुजा जी के महाविद्यालय पहुँच गया था। उसका उत्साह बच्चों जैसा था, लेकिन कविताएँ बच्चों जैसी नहीं थीं। 1999 से 2005 के बीच प्रकाश ने ख़ूब कविताएँ लिखीं। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उसकी पहचान नहीं बन पाई थी। उसकी पहचान बनी आगरा पहुँचकर—’गवेषणा’ से जुड़कर। इस बीच उसने इग्नू से बारहवीं और बी.ए. की परीक्षा पास कर ली। आगरा पहुँचकर उसने इग्नू से एम.ए. किया और फिर पंजाब विश्वविद्यालय से पीएच.डी.।

आगरा में जब नौकरी हो गई तो टीटागढ़ आकर उसने शादी कर ली। लड़की देखने मैं और प्रकाश गए थे। वह एक अलग कहानी है। शादी के बाद उसके जीवन में असली संघर्ष शुरू हुआ। पढ़ाई, नौकरी, शादी, परिवार, लेखन… सबकी गाड़ी को वह एक साथ खींचने लगा। वह इसमें सफल भी हो गया था। उसे कवि-संपादक के रूप में लोग जान भी गए थे कि तभी शंभुनाथ जी कोलकाता आ गए और प्रकाश संस्थान में सबका टारगेट बना—ख़ासकर रजिस्ट्रार का। वह जीवन के सबसे बुरे दौर में पड़ गया—गहरे अवसाद में। उसने डरकर घर से निकलना बंद कर दिया। वह धीरे-धीरे कुछ ठीक हुआ। उसकी पत्नी विभा ने उसे सबसे ज़्यादा सँभाला और वह वापस जाकर नौकरी पर लग भी गया। तभी उसके गले में पड़ा डी.डी.ए. फ़्लैट का फंदा। एक घर का सपना जिसके लिए वह बार-बार टीटागढ़ से भागता था। अंततः यह चाहत उसे बहुत दूर भगा ले गई।

प्रकाश कवियों-लेखकों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कम दिलचस्पी दिखलाता था, उनके लेखन के बारे में ज़्यादा। वह दुनिया-जहान के बारे में बातें करता, लेकिन कविता लिखता था तो वे अलग ही संसार की कविताएँ होतीं। उन कविताओं में काव्य-तत्त्व तो होते, पर जीवन-संघर्ष नहीं होता। संघर्ष और दुख जैसे शब्दों की पुनरावृत्ति तो बहुत होती, लेकिन उसका साधारणीकरण नहीं हो पाता। ऐसा नहीं है कि संप्रेषणीयता का संकट था या वह भाषा उसे नहीं आती थी। वह भाषा उसे आती थी, पर वह उसे लिख नहीं पाता था। मुझे लगता है कि वह लिखना चाहता होगा—दुख… और आ जाती होगी—चिड़िया… और फिर चिड़िया उस कविता को अपने साथ उड़ा ले जाती होगी। कविता शुरू करने के बाद वह दूसरा प्रकाश हो जाता होगा। मुझे ऐसा लगता है : नहीं तो जिसके जीवन में इतना तनाव और अवसाद हो। वह चिड़ियों की कविता कैसे लिख पाता होगा? प्रकाश की रचना की मनोभूमि उसके जीवन की मनोभूमि से अलग थी।

केदारनाथ सिंह ने हेराल्ड पिंटर के बहाने संप्रेषणीयता पर जो कहा है, वह प्रकाश पर भी एकदम फिट बैठता है कि आदमी यदि अपनी बात को दूसरे तक नहीं पहुँचा पाता तो इसलिए नहीं उसमें संप्रेषण की क्षमता का अभाव है; बल्कि इसलिए कि वह उस स्थिति की भयानकता से बचना चाहता है। प्रकाश की अधिकांश कविताएँ इस कथन को चरितार्थ करती सी जान पड़ती हैं। उसकी शैली दो अपनी तरह के या कहे तो दो गूँगों के बीच होने वाले वार्तालाप या प्रेमालाप की तरह होती थी जिसमें फूल, पत्तों, चिड़ियों और मौसम की बात तो बार-बार होती थी; पर वह मूल बात हर बार अकथित छोड़ दी जाती थी, जो कि सारी बातों के केंद्र में होती थी। ऐसा संप्रेषण के अभाव के कारण नहीं बल्कि उसकी विवश कर देने वाली अपरिहार्यता के कारण होता होगा। इसे लेखन में एक तरह का कलावादी दृष्टिकोण कह सकते हैं और जीवन से पलायनवादी, पर वह जीवन में काफ़ी संघर्षवादी था और स्पष्टवादी भी था; भले लिख न पाता होगा। यह उसके लेखन की विवश कर देने वाली अपरिहार्यता ही होगी जो उससे फूल, पत्ती और चिड़िया पर कविताएँ लिखवाती होगी।

मुझे याद है कि ‘नया पथ’ का एक युवा विशेषांक आया था जिसका संपादन सत्यकाम जी ने किया था। उसमें प्रकाश की कविताएँ—’पूस की रात के बाद’, ‘फिर कफ़न’ और ‘हारता हुआ रंग’—प्रकाशित हुई थीं जो प्रेमचंद की संघर्षशील विरासत को आगे बढ़ाने वाली कविताएँ थीं। उसमें संघर्ष की अभिव्यक्ति थी और उसमें घीसू, माधव, प्रेमचंद और प्रकाश के संघर्ष मिलकर एकाकार हो गए थे।

शुरुआती दिनों में प्रकाश के पास एक लाल रंग की छोटी-सी डायरी होती थी और ‘रोमा और तानाशाह’ उसकी प्रिय कविता। वह उसे हर किसी को सुनाता था। उसकी एक पंक्ति दिमाग़ में अभी तक बैठी है कि ‘वह इतनी कोमल थी कि छूने से फिच्च से ख़ून फेंक देती’। उस कविता में रोमा नर्तकी थी और नाच तानाशाही व्यवस्था का प्रतिकार।

जीवन में भी कुछ व्यवस्थाएँ तानाशाही व्यवस्था की तरह आती हैं। प्रकाश की गर्दन हमेशा इस व्यवस्था के पैरों तले दबी रही और प्रेमचंद के शब्दों में वह इसे सहला नहीं पाया। वह विरोध के लिए खड़ा तो होता था, लेकिन व्यवस्था हर बार उसकी साँस को थोड़ा ज़्यादा देर तक दबाकर उसे क़ाबू में कर लेती थी। वह तिलमिलाता था, लेकिन फिर शांत हो जाता था। उसकी किताब जब भारतीय ज्ञानपीठ से नहीं आई, तब उसने ट्रस्टी और अन्य नौ सदस्यों को चिट्ठी लिखी, फिर इस मामले को छोड़ दिया। वह केंद्रीय हिंदी संस्थान में रजिस्ट्रार के नाम से अख़बारों में लेख लिखता, ‘गवेषणा’ में संपादकीय लिखता और पीठ पीछे उन्हें गाली देता और फिर वही नौकरी करने समय से पहुँच जाता। ज़लील होता और ज़िल्लत को सहता। एक बार तो अशोक जी के कहने पर वह दिल्ली में रज़ा न्यास में नौकरी करने के लिए दिल्ली में आकर कमरा वग़ैरह किराए पर ले भी चुका था। लेकिन अशोक जी विदेश चले गए। इस तरह वह आगरा से दिल्ली नहीं आ पाया। यह उसकी दिली इच्छा थी कि वह दिल्ली आ जाए। पर सब भला दिल्ली कहाँ आ पाते हैं!

दिल्ली में ऐसा क्या है कि जो एक बार दिल्ली आ जाता है, वह दिल्ली से जाना नहीं चाहता और मजबूरी में जाता भी है तो दिल्ली बराबर उसके सपनों में धमक देती रहती है। दिल्ली देती जितना है, लेती उससे ज़्यादा है। मुक्तिबोध के सामने भी प्रश्न था कि कहाँ जाऊँ? दिल्ली या उज्जैन!

एक बात मैं अपने मित्रों को बार-बार कहता हूँ—’ना रही है जीव तो के खाई घीव’। यह एक मुहावरा या लोकोक्ति है। सिर्फ़ प्रतिभा और साहस से ही कवि नहीं बना जा सकता। कवि होने के लिए ज़रूरी है—धैर्यशीलता। कविता ही नहीं, जीवन को बचाए रखने के लिए भी धीरज की ज़रूरत है। प्रकाश के पास उतावलापन कुछ ज़्यादा ही था। प्रकाश थोड़ा और धीरज से जीवन को बरतता तो ज्ञानपीठ नहीं, राजकमल से अपने संग्रह को आते हुए देखकर बहुत ख़ुश होता और कहता कि देख मिठाई तेरे से ज़्यादा सुंदर छपा है। सुंदरता पर उसका कुछ ज़्यादा ही ज़ोर रहता था।

सात

प्रकाश 23 जनवरी 2016 को हम लोगों को छोड़कर चला गया। यह कविता उसके लिए ही लिखी गई थी :

पोस्टमार्टम किए हुए शरीर की
और इत्र की मिली-जुली गंध थी
जिससे मैं मुख़ातिब था

श्मशान से उठकर चला आया दोस्त
पूछता है प्रश्न
मैं एक भारतीय नागरिक
मुझे सोने के लिए घर चाहिए था
श्मशान में जगह नहीं

मैं चुप!

वह लिखता है अर्ज़ी
मेरे सीने में गड़ाकर अपनी क़लम
और भेज देता है देश की संसद में
अपना पत्र
और चला जाता है
अपने दोस्तों के बीच से
जहाँ से अभी उठकर आया था
मैं सिर्फ़ रोता हूँ
मेरे सीने से
ख़ून के बदले स्याही चूती है—
आजकल…

निशांत (जन्म : 1978) हिंदी के सुपरिचित कवि-लेखक और अनुवादक हैं। उनकी उच्च शिक्षा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हुई है। उनकी कविताओं की तीन किताबें प्रकाशित हैं। उनसे nishant.bijay@gmail.com पर बात की जा सकती है। असमय दिवंगत कवि प्रकाश (1976–2016) पर उनका यह संस्मरण कई अर्थों में हिंदी भाषा और साहित्य को प्रकाशित करने वाला है। यह हमारे बहुत बीच से आया है और हमें बहुत वक़्त तक विचलित रखेगा। निशांत के चयन में प्रकाश की अब तक असंकलित तेरह कविताएँ प्रस्तुत संस्मरण की सहप्रस्तुति के रूप में यहाँ पढ़ी जा सकती हैं : समय में समय की कथा लिखने की इच्छा धारे हूँ

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