गद्य ::
प्रदीपिका सारस्वत

प्रदीपिका सारस्वत

बहुत लेखकों ने इस सवाल का जवाब लिखने की कोशिश की है कि आख़िर हम क्यों लिखते हैं। ‘द पेरिस रिव्यू’ की द आर्ट ऑफ़ फ़िक्शन सीरीज़ में आप अपने तमाम पसंदीदा लेखकों को पढ़ सकते हैं—इस तरफ़ कुछ न कुछ कहते हुए। जॉर्ज ऑरवेल जैसे कुछ लेखकों ने तो निबंधों की शक्ल में ब्योरेवार लिखा है कि वे क्यों लिखते हैं। मुझे संकोच हो रहा है यह सोच कर कि हिंदी के किसी लेखक का नाम में यहाँ नहीं ले पा रही हूँ। सिर्फ़ हिंदी ही क्यों तमाम भारतीय और विश्व भाषाओं के साहित्य में कितना कुछ है, जिसे पूरी उम्र लगा कर भी जाना नहीं जा सकता।

मैं देख रही हूँ कि लेखन के बारे में लिखते हुए यह लेख पढ़ने की तरफ़ चला जा रहा है। ‘हम क्यों लिखते हैं’ तक जाने से पहले की सीढ़ी है ‘हम क्यों पढ़ते हैं’। आह! कैसा सुंदर सवाल। अभी कुछ समय पहले क्रिस्टिअन साल्मन द्वारा किए गए मिलान कुंदेरा के साक्षात्कार के बारे में पढ़ा। क्रिस्टिअन कुंदेरा के मोंटपरनास के दफ़्तर के बारे में बताते हैं। किसी विद्यार्थी के कमरे जैसा दफ़्तर, किसी मशहूर लेखक के कमरे जैसा कम। अलमारियों में दर्शन और संगीत-शास्त्र की किताबें, एक मेज़ और उस पर एक पुराना टाइपराइटर, दीवार पर साथ-साथ लगी दो तस्वीरें—एक उनके पिता की जो कि एक पियानिस्ट थे और दूसरी चेक संगीतकार लेओस यनाचेक की।

इस दृश्य को पढ़ते हुए मुझे रोमांच हो आता है। हाथों से बढ़ते हुए एक सिहरन कंधों तक जाती है और पूरे बदन में कुछ होता है—इतना रोमांच किसी प्रेमी के बारे में सोचते हुए भी नहीं हुआ। आख़िरी बार यह रोमांच कुंदेरा की ही किताब पढ़ते वक़्त हुआ था। ‘द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग’ के शुरुआती पन्ने पढ़ते हुए मन किस तरह साधो-साधो कर उठा था। कितनी बार बीच में रुक कर मुझे कहना पड़ा था कि ऐसा कोई कैसे लिख सकता है—कहाँ-कहाँ की यात्रा की होगी लिखने वाले ने यह लिखने से पहले। इतनी गहराई और इतना विस्तार एक साथ! कुंदेरा पहले दर्शन के स्तर पर आपसे बात करते हैं और आप उनके पीछे-पीछे बढ़ते जाते हैं—अँधेरी सुरंग में किसी रौशनी की पतली-सी लकीर की तरह। और फिर कहानी दर्शन से यथार्थ में आती है—आप सुरंग से बाहर हैं, एक जीवित संसार के बीच मगर सुरंग का अँधेरा और रौशनी की लकीर अब भी आपके साथ है और कहानी के अंत तक साथ रहती है। आख़िरी पन्ने पर पहुँच कर भी आप मानना नहीं चाहते कि किताब ख़त्म हो गई है। क्यों ख़त्म हो जाती हैं ऐसी सुंदर किताबें, आप बच्चे की तरह पूछते हैं।

पढ़ना आपको एक ही जीवन में, एक ही संसार में कितने संसार देखने का अवसर देता है—यह सोच कर भी नशा हो आता है। नशा—यही एक शब्द है जो मैं लेखन के समतुल्य रख सकती हूँ। स्कूल के दिनों में मुझे पढ़ने का नशा था। मुझे याद है कि इन दिनों फिर से उस नशे को अपनी रगों में महसूस करते हुए एक दिन में सचमुच अपने-आपसे पूछ रही थी कि इन बीते सालों में तुम कर क्या रही थीं? तुम पढ़ क्यों नहीं रही थीं? और मुझे सचमुच यक़ीन नहीं आता कि बीते कई सालों में यह कैसे संभव हुआ कि मैंने इतना कम पढ़ा। पढ़ने के नशे के सामने लिखना बहुत पीछे छूट जाता है—बहुत पीछे। मुझे आता क्या है जो मैं लिखूँ? मैंने देखा क्या है, जाना क्या है जो मैं लिखूँ?

पढ़ने के साथ और उसके रोमांच के साथ एक और अनुभूति है जो गहराई से जुड़ी है—बच्चा हो जाने की अनुभूति। पढ़ते हुए मैं वापस बचपन में चली जाती हूँ—उस लोक में जहाँ सब कुछ संभव है और सब कुछ सुंदर है। ऑक्यूपेशन, रजिस्टेंस, युद्ध, कला, पलायन, मानव की जिजीविषा, उसके मन के असंख्य तल—सब कुछ। ऐसा सोचने वालों पर रोमैंटिक होने का आरोप लग सकता है। पर कला है ही एक ऐसा आयाम जहाँ आप स्वतंत्र हैं—सभी तरह के नियमों से और सभी आरोपों से भी। एक युद्ध को झेलने के बाद कला की भाषा में अपनी बात कहने वाला जब बोलता है तो युद्ध का क्रूर चेहरा भी कोमल भावनाओं में लिपटा हुआ दिखता है। उसके साथ चलते हुए आप युद्ध को सिर्फ़ एक त्रासदी की तरह देख कर, सिर्फ़ उसकी निंदा करके नहीं छोड़ सकते। आप युद्ध के दोनों छोरों पर जाकर युद्ध को झेलते चेहरों को देखते हैं, उनकी आँखों, होंठों, हाथों और माथे को देखते हैं। देखते हैं कि युद्ध के दोनों छोरों पर जूझ रहे लोग कौन हैं और यहाँ क्यों फँसे हुए हैं, युद्ध के दौरान वे कहाँ सोते हैं और कैसे सपने देखते हैं, वे किनसे प्यार करते हैं और किस तरह करते हैं।

क्या यह सब देख पाना भीतर सुंदरता का बोध नहीं जगाता?

सिर्फ़ इतना ही नहीं, इन किताबों में सिर्फ़ बाहर के युद्ध नहीं दीखते, भीतर के युद्ध भी उसी तरह दिखाई देते हैं। ‘अनबिअरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग’ की टेरेज़ा की अपने शारीरिक अस्तित्व—अपने शरीर की इंडिविजुऐलिटी को स्वीकार्यता दिलाने की लगातार कोशिश हो या फिर उसकी माँ की यह साबित करने की कोशिश कि हम सबके शरीर एक ही जैसे हैं और शरीर में छुपाने के लिए कुछ भी नहीं। टेरेज़ा का यह युद्ध उसे और उसके साथ-साथ टोमास को कहाँ-कहाँ ले जाता है, हम देखते हैं। और उनके साथ-साथ हम अपने भीतर चल रहे युद्धों को भी देखना सीखने लगते हैं। पढ़ना हमें देखना सिखाता है—बाहर, भीतर, आगे, पीछे, बीच में, सब तरफ़—जहाँ भी संभव हो।

बचपन में हमारे पास वैसी अबोध उत्सुकता होती थी—तब हम जानना चाहते थे, कुछ भी और सब कुछ को जानना। लगातार पढ़ते रहने पर वैसी अबोध उत्सुकता संभव है। इस पर शोध किया ही गया होगा। यदि नहीं, तो आने वाले समय में ज़रूर किया जाएगा। अधिक पढ़े बिना लिखना संभव तो है। बहुत कुछ, बहुत पढ़े बिना लिखा भी जाता है। पर लिखने वाला जब पढ़ना शुरू करता है, तब ही जान पाता है कि बिना पढ़े जो लिखा गया था; वह पढ़ कर लिखे गए से किस तरह अलग है। कला में मौलिकता पर बहुत कुछ कहा जाता रहा है। पढ़ने पर हम अपनी मौलिकता नहीं गँवाते, बल्कि उसे और सँवारते ही हैं। पढ़ते हुए हम अपने भीतर दबे बहुत से ऐसे संगीत को स्वर दे पाते हैं, जिसे अब तक हमने पहचानना नहीं सीखा था। संगीत हममें जन्मजात होता है, लेकिन फिर भी बिना सीखे हम संगीत को कहाँ जान पाते हैं? बिना पढ़े हम लिख सकते हैं, लेकिन उतना ही जितना हमें हमारे अनुभव ने सिखाया है। पढ़ कर हम अपने अनुभव में कितने लेखकों और किरदारों के अनुभव, उनके समय, उनकी स्मृति और उनकी दृष्टि को अपने अनुभव में शामिल करते जाते हैं; हम जान भी नहीं पाते।

मज़ा यह कि हर किताब के बाद, हम नई दृष्टि से जीवन को देख रहे होते हैं। कितनी सुंदर बात है कि हम जितना जानते जाते हैं, उतने अबोध होते जाते हैं।


प्रदीपिका सारस्वत सुपरिचित लेखिका और पत्रकार हैं। उनसे pradeepikasaraswat@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. Madhu Bala joshi सितम्बर 7, 2021 at 10:29 पूर्वाह्न

    Ms. Saraswat has given words to thoughts that have been lying uneasy within one. Reading the essay is to experience the process of crystallization.
    Look forward to reading more of her writing here.

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  2. yogesh dhyani सितम्बर 8, 2021 at 3:15 अपराह्न

    सुन्दर आलेख

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