कविताएँ ::
शैलेंद्र साहू

शैलेंद्र साहू

लोग

सब कुछ इतना सुंदर है
कि सुंदर से ऊब जाऊँ

जबकि मुँह पर मास्क
मज़ाक़ की तरह
चलते-चलते
थककर
कटकर
मर गए
ज़िंदा लोग
भीड़ या भेड़ की तरह हकाले जाते
इंसान
बस कहने भर को
रहने के लिए अब ये दुनिया
सही नहीं
—कहकर
उसी पटरी के किनारे-किनारे चलते
कविता, कोफ़्त या अपनी काहिली लिखते
सुंदर जिएँगे
इतने बदसूरत
कुछ लोग
हम लोग
हम सब
लोग

बस्तर बैलाडीला

भूल-चूक माफ़ की तरह
यहाँ बहुत हरियाली है
मैं रात भर जंगल का बड़बड़ाना सुनते हुए
अंधे पहाड़ को पुकारता हूँ
और लगभग आधी सदी से अनसुना किए
महुए में धुत्त मामा मुरिया की तरह
बिस्तर पर आकर पसर जाता हूँ
पर नींद नहीं आती
शब्द आते हैं
पत्थर की तरह घूमते हुए
सीधे माथे पर चोट करते
विचारों को लहूलुहान करने—

‘‘शब्द ज़हर हो गए हैं’’—
मैं चिल्लाता हूँ
और लगभग आधी सदी से अनसुने
सवालों की तरह
चुप हो जाता हूँ
या शायद कर दिया जाता हूँ
नींद में बड़बड़ाने के लिए
यहाँ के जंगलों की तरह

‘‘जंगलों के साथ क्या होता है?’’—
रोता है एक मामा मुरिया पूछकर
अपनी आँखों में
अंधे पहाड़ का दुःख ढोते हुए
जिसमें बहुत लोहा है
मैं लोहा भरे शब्दों से
कविता बनाता हूँ
‘‘जो किसी काम की नहीं’’—
कहकर
मामा मुरिया हँसता है
मैं लक्स साबुन से मलकर
अपना चेहरा धोता हूँ
भूल-चूक माफ़ की तरह

शहर में लौटकर

कैसे हो शहर
शहर में लौटकर
शहर से पूछता हूँ

गाँव से भागकर
बार-बार
गाँव जाता हूँ

कैसे हो तुम
हर बार गाँव पूछता है
जवाब में शहर मुस्कुराता है

मैं हमेशा से
हमेशा की तरह
चुप रहता हूँ

चींटियाँ

वे अचानक से निकल आती हैं
दीवार के किसी भी कोने से
मेरे बिस्तर तक
और देह पर रेंगने लगती हैं
झटकता हूँ
मसलता हूँ
उठकर बत्ती जलाता हूँ
फिर लेट जाता हूँ

वे छोटी-छोटी और काली हैं
वे काटती नहीं
बस रेंगती रहती हैं—
कमरे में हर तरफ़ बौखलाई हुई-सी
देह पर
दीवार पर
दिमाग़ में
तुम्हारे ख़याल की तरह

पुराने दोस्त

हम पुराने दोस्त थे
‘थे’ पर इतना ज़ोर था
कि आमने-सामने बैठकर भी
हम अतीत थे

भविष्य में
एक गेंदे का फूल है
एक हँसती हुई बेवक़ूफ लड़की
(जो कमसिन है,
हम बूढ़े हो चुके)

इतने बरसों में
हम इतनी बातें कर चुके थे
कि उन बातों के धागे से
पूरी दुनिया को पूरा
तीन बार लपेटा जा सकता था
और ख़ामोशी ही वह ख़ज़ाना था
जिसे पाने के लिए
हमने अपने पिताओं का क़त्ल किया

फिर भी इसे उम्मीद ही कहिए
कि अब हम अपनी अजन्मी बेटियों का
सपना देखते हुए
अपने-अपने घर लौटना चाहते हैं
जबकि ‘लौटना’ कब का बेमानी हो चुका
‘विदाई’ और ‘जुदाई’ दो अलग-अलग शब्द हैं
और सच तो यह है
कि अब किसी भी बात के कोई मानी नहीं
इसलिए हम बिना कुछ कहे
उठे
और
मुड़
गए

तुम्हारे जाने की दुपहर में

तुम्हारे जाने की दुपहर में
हवा से भड़-भड़ करती एक खिड़की है

कुछ मरी हुई किताबें
जिनकी मैंने कभी सुध नहीं ली

दीवार पर लटकी अधूरी पेंटिंग
हमेशा मुझे डाँटती हुई

और कमरे के बिल्कुल बीचोंबीच
तार पर सूखता अंडरवियर
और एक कंडोम का पैकेट
जिसे कई बार ग़ुस्से में फेंक दूँ
—सोचते हुए—
ड्राअर में वापिस रख चुका हूँ

जब तुम आई थीं की दुपहर पर भी
एक कविता है
कभी लौटकर आओगी तो सुनाऊँगा

इतनी निकम्मी सरकार

सारी बातों को
जहाँ खुलना था
वहीं गाँठ थीं

मैं चिल्लाते हुए जंगल में
चाहे जितनी दूर निकल जाऊँ
मुझसे मेरी आवाज़ को
उतना ही दूर होना था
जितना पास यहाँ समंदर है

इस तरह की बारिश
जो पहले की बारिशों से अलग है
और हर बात बेमतलब
जैसे यह कविता

इतनी निकम्मी सरकार
जितना निकम्मा मैं

मैं

मैं मैं मैं
इतना मैं
कि मिमियाता हुआ
बकरा हो गया
कि तरह
घिघियाता हुआ आदमी
हलाल होने से पहले
भागकर मैं से
मैं में गिरता
मैं की चोट सहलाता मैं
से बचकर मैं
में छुपता हुआ
हैं
हे हे
हा हा
ही ही
हुआ हुआ
जैसी बेशर्मी से
चाँद को चरता हुआ
बकरा
और
मैं

कहो आज़ादी

सब चिल्ला रहे थे—
“आज़ादी”

सब गा रहे थे—
“आज़ादी”

जो चुप थे
उनकी चुप्पी शोर थी

शोर बहरों के लिए होता है
गूँगों की भाषा में

मेरे लिए तुम धूप लिखना
मैं रौशनी समझूँगा

तुम रात लिखना
मैं चाँदनी समझूँगा

तुम्हें निहारते हुए
दुनिया हसीं है

मुझे चिल्लाकर बुलाओ
या धीरे से गुनगुनाकर

मुझे बुलाओ कि हम एक हैं
मुझे बुलाओ कि हम नेक हैं

मेरे बिना मेरे साथ ही
मेरे लिए मेरे बाद भी

कहो आज़ादी
सुनो आज़ादी

और अब कहीं दिल नहीं लगता

हम लोग बहुत जल्दी डर गए हैं
उम्र का पहाड़ चढ़ने से पहले ही
थक गए हैं

बैठने की इजाज़त नहीं
चलते हुए ही
सुस्ताना होगा

खड़े-खड़े थककर
गिर जाने का मन करता है
मर जाने का मन करता है

जल्दी में घरों से निकले थे
या निकाले गए थे याद नहीं
और अब कहीं दिल नहीं लगता

हम लोग बहुत
जल्दी भर गए हैं
अतृप्त इच्छाओं से
धोखे के घावों से
लिजलिजी प्रार्थनाओं से

जबकि सामने शायद अभी
एक लंबी उम्र का पहाड़ है
चढ़ने
गिरने
सँभलने
फिसलने
के लिए

पर क्या करें—
अब कहीं दिल नहीं लगता :
कहीं भी तो नहीं…


शैलेंद्र साहू कविता, कला और सिनेमा के संसार से संबद्ध हैं। उनसे और अधिक परिचय के लिए यहाँ देखें : पाप, साँप और मैंगॅसिप विथ माय रूम पार्टनर

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