कहानियाँ ::
अमित तिवारी
इससे ज़्यादा नहीं जानना चाहिए
एक
सड़क के उस पार, मेरी खिड़की के सामने एक परिवार रहता था। हमेशा दो अधेड़ पति-पत्नी को ही देखा उस खिड़की के रास्ते। दोनों के चेहरे एकदम सपाट थे। अधिकतर भावशून्य।
पति बनियान या आधे बाँह की शर्ट पहनकर अख़बार पढ़ते या टी.वी. देखते दिखाई देता। पत्नी खाना बनाते, सफ़ाई करते या फ़र्श पर बैठ कर कुछ काटते-छाँटते दिखाई देती। बात करते नहीं देखा कभी उन दोनों को। छुपकर बात करते हों तो और बात है। इन नियमित क्रियाकलापों के अतिरिक्त चार और दृश्य भी दिख जाते थे यदा-कदा।
पहला, पति के घर में न होने पर एक बड़ी-सी गिलास लेकर औरत का उसी सपाट चेहरे के साथ टी.वी. देखना।
दूसरा, रात-बिरात लुंगी लपेटे, अधनंगे पति का किचन में आकर, मटके से दो-तीन गिलास गटागट पानी पीना। यही एक मौक़ा होता था, जब वह पत्नी को किचन में नहीं भेजता था।
तीसरा, पाँच-सात मिनट की ख़ूब ऊँची आवाज़ में लड़ाई जिसका पटाक्षेप पत्नी के पिट जाने से होता। ये पत्नी के खिड़की से इस पार देखने का अकेला मौक़ा होता। तीसरा मौक़ा जिस दिन या शाम में होता, उसकी रात में दूसरे वाले मौक़े का आना भी आश्चर्यजनक तौर पर तय रहता था।
चौथा, जब पत्नी बालों में तौलिया बाँधे, खिड़की पर आधे से ज़्यादा देह उचकाकर गमले से गुड़हल तोड़ने आती थी।
इधर कुछ दिनों से तीसरे दृश्य की आवृत्ति बढ़ गई थी और परिणामतः दूसरे की भी। पिटाई अब थोड़ी और देर चलने लगी थी। चौथा दृश्य अज्ञात कारणों से कम होने लगा था।
एक शाम तीसरा दृश्य बहुत देर तक चला। और पहली बार मैंने दोनों की आवाज़ें सुनीं। दोनों की आवाज़ में दृढ़ता थी। बराबर और अशक्त, कायरों-सी दृढ़ता। जैसे युद्ध के बहुत लंबा खिंच जाने पर सेनापतियों के अंदर होती है। जीतने से अधिक विध्वंस की इच्छा। हैरानी की बात! उस रात दूसरा दृश्य नहीं हुआ।
अगली सुबह बंद खिड़की पर बड़ा-सा गुड़हल दिखा। अगली शाम तक ये नया, पाँचवा दृश्य बना रहा।
खिड़की खुलने पर नए एकांकी के दृश्य दिख रहे थे। घर पहले से थोड़ा ख़ाली था, पर भरे हुए सामानों में अब ढेर सारी अराजकता और फूहड़पन था। बिखरे बालों वाले आदमी के पात्र में पति, घर में इधर-उधर गर्दन झटकता हुआ आ-जा रहा है। टी.वी. चल रही है पर कोई नहीं देख रहा। पत्नी जैसा कोई पात्र नहीं है इसमें।
गुड़हल अब भी खिड़की पर है, पर अब केवल सूखने-झरने के लिए खिलता है। कोई उमेठने नहीं आता।
उद्देश्य और पद-यश-विहीन जीवन में बेतुकी प्रसन्न्ता के साथ, स्वर्ग-नर्क दोनों से अनुपस्थित आत्माओं का प्रतिनिधित्व करता हुआ गुड़हल, नए नाटक का अधिनायक लग रहा है।
दो
ये ऑफ़िशियल कम्प्लीट लॉकडाउन से पहले का आख़िरी दिन था। अनौपचारिक तौर पर लगभग सब हफ़्ते भर पहले ही बंद हो चुका था। ऑफ़िस से लौटा लाने वाली लोकल ट्रेन में चढ़ा। लगभग पूरी ट्रेन, किसी कैंसर हॉस्पिटल के गलियारे में आधी रात के समय की तरह भाँय-भाँय कर रही थी। लोग दूर-दूर बैठे थे। सहानुभूति पर डर का मुल्लमा चढ़ गया था। कोई खाँस देता था तो सबको याद आने लगता था कि अभी माँ-बाप के लिए कुछ किया नहीं, बीवी को घुमाने ले जाना है, बेटा अभी अबोध है… वग़ैरह।
इतने पीले, सतर्क, चेहरे। वे चेहरे जो अच्छे, जीवट योद्धाओं के तब होते हैं, जब उनको पता चले कि कहीं पास में ही कोई स्नाइपर छिपा बैठा है।
ट्रेन धीरे-धीरे जुईनगर स्टेशन पर पहुँची। एकदम सन्नाटा। न कोई चढ़ने वाला और न उतरने वाला। दड़बे में बंद मुर्ग़े जैसे अपनी तरफ़ आने वाली टाँगों को देखते हैं और उसी में ठुँसे-ठुँसे तड़फड़ाने लगते हैं, ठीक वैसे ही होते दिखे ट्रेन में बैठे सब, हर स्टेशन पर, हर नए पैसेंजर को आता देखकर।
मैं जिस दरवाज़े का हैंडल पकड़कर खड़ा था, वह एक बेंच के सामने आकर रुका। उस पर एक लड़की बैठी थी। साँवली और मँझोले क़द की। सिर से पाँव तक ढँके-तोपे हुए। केवल आँखों का हिस्सा और कोहनी से ऊपर कुछ इंच उघार था। इतना-सा ही साहस रख सकी थी और इतना ही विश्वास था उसे अपने सहजीवियों पर।
मैं अंदर बैठे लोगों की अपने प्रति जुगुप्सा से बचकर बाहर उसको देखने लगा। जाने क्यों उसने भी मुझे देखा। मेरी गर्दन अनायास थोड़ी-सी, दाईं ओर, निरीक्षण मुद्रा में झुकी। उसने भी ऐसा ही किया।
एक संवाद जैसा कुछ अपलक, अबाध तैर गया।
“क्या मैं आपको जानता हूँ?”
“क्या आप मुझे?”
“कितने लोगों को जाना जा सकता है?”
“जान जाने से होता क्या है? क्या जानने के नाम पर हम स्वार्थ साधन नहीं जुटा रहे? मैं आपको या आप मुझको जान रही होतीं तो अभी क्या हो जाता?”
“क्या आप वही हैं जो रोज़ इसी ट्रेन से जाती हैं? जी हाँ, मेरे भी लौटने की यही ट्रेन है।”
“मेरा आपसे कौतूहल का नाता है। मैं आपको और आपके अनुशासन को अपने कर्मभूमि की विशेषता का हिस्सा बताकर वाहवाही लूट लेता हूँ। ये तो तब जब आपको जानने भर भी नहीं जानता।”
“आप हो सकता है अच्छी हों और मेरा कैसा भी फ़ायदा न उठाती हों। मैं एक ईमानदार घाघ हूँ और बाक़ी मुझे सिर्फ़ घाघ लगते हैं।”
इस संवाद के बीच मैंने गर्दन सीधी की और क्या तालमेल! वह भी गर्दन सीधी करते हुए तन गई। अब मैंने गर्दन बाईं तरफ़ हल्की-सी झुकाई : “ओफ्फो, हो क्या रहा है ये…” विस्मय की मुद्रा में। उसने भी यही किया। लगा, जैसे टाइम स्पेस कॉम्पलेक्सिटी के समीकरण पर किसी ने शहद चुआ दिया हो।
वह जैसे मुस्कुराई भी हो। इतनी मांसपेशियाँ हिलती हैं मुस्कुराने में कि आप कोई भी हों, छिपा नहीं सकते। वह भी नहीं छिपा सकी। तमाम मास्क/स्टोल के बावजूद।
मुझे छिपा ले जाने के अपने प्रेडिक्शन पर झेंप हुई। मैं भी मुस्कुराया। मेरे मुस्कुराते ही उसने मुस्कुराना बंद कर दिया। तालमेल के बीच सीढ़ियों, खिड़कियों, रौशनदानों और अनाउंसमेंट के रास्ते गाढ़ा भय लौट आया। ट्रेन जुईनगर से आगे चल दी। वह लड़की एक हाथ के नाख़ून से दूसरे हाथ के नाख़ून खुरचते हुए देखती ट्रेन का जाना देखते रही। मैंने इसे उसका मेरे जाने को देखना माना। मेरे तमाम भ्रमों के बीच एकदम से कोई गीली-सी आवाज़ में कहता हुआ लगा : ‘‘बस्स… इससे ज़्यादा नहीं जानना चाहिए।’’
अमित तिवारी हिंदी कवि-लेखक और अनुवादक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : प्रवाह की अनुपस्थिति से परिभाषित
बेहतरीन 💐