राजस्थानी कविताएँ ::
अम्बिका दत्त

अम्बिका दत्त

गाँव

प्रभात गाँव की—ज्यूँ ओढ़नी का कच्चा रंग
चढ़ती दुपहर—जैसे बजते हों चंग
मझ दुपहर—जैसे तंत्री की तांती
साँझ—जैसे पूनी रूई की
किसी माई ने जो काती तो काती ही काती
पता ही न चला कब हो गए दिया-बाती

सियाळे की साँझ

कितना छोटा-सा दिन होता है सियाळे का
कितनी जल्दी घिर आई शाम
बूढ़ी औरत कब से अनमनी
बैठी है घर के छापर में
पिछले कई जन्मों की स्मृतियों का हेरा लेकर
कुछ सूझता नहीं
कुछ सुहाता नहीं
सोचती है कि कट ही गया जमारा इस बार भी
कितना छोटा-सा दिन होता है सियाळे का
कितनी जल्दी घिर आई शाम
छाया उम्र की लंबी होती ही जा रही है।

मत पूछना

मत पूछना—बाप कब से नहीं है
माँ कब मरी
उमर कितनी है—मत पूछना

मत पूछना—कितने दिन हुए हजामत बनाए
कब धुली थी ये अंगरखी आख़िरी बार
जो पसीने से भीगकर प्लास्टिक हो गई है
अब कब धुलेगी—मत पूछना

उसे कुछ पता नहीं है क्या है उसके मन में
उससे मत पूछना

चैनदार बटुआ है मन उसका
इसे मत खेालना

अंदर मत झाँकना
सूनी भेाली आँखों में

क्या हैं सपने उसके—मत पूछना

मत छेड़ना खरूँट सूखी खाल के
घाव जो अंदर छिपे है ठंडी आग के
मत देखना परचोगे तो दहल जाओगे।

कळस्ये1जो अभी आवे में पकाए नहीं गए मिट्टी के ऐसे कच्चे मटके।

गारे की देही की तक़दीर जिनकी

लिखी जाए कुम्हार के गन्नगट्ट गोल घूमते चाक पर
सूखते सुखाते कोई गीला गात, काया दुच जाए तो दुच जाए
मुच जाए, भैं जाए तो भैं जाए
कौन पूछता है किसे फिकर है
सूखे पीछे जैसी भी है वो दुची देह, मुचा गात, पिचकी-सी काया
उसी पर रंग रँगे, चितराम रचे, फिरे कूँची खड़ी और गेरू की

ओह!
अभी शेष है तपना-पकना आवे में
पर आवे में रखने से पहले
इतनी-सी अरज हमारी सुन लो—ओ कुँवरानी कोमल हाथों वाली
थोड़े आहिस्ता धरना आवे में
बात की बात में ज़रा-सी बात में
तरेड़ चल जाए, दरक जाएँ या टूट जाएँ, फूट जाएँ
कळसे कच्चे गार के हैं तो क्या हुआ
ज़िंदगानी किसको प्यारी नहीं लगती।

दरसाव

की है कभी महसूस आपने
अपने अंदर गहरे
नीम के फूलों की भीनी-सी गंध
हाँ! बस इतना
इतना-सा ही है
सत की काया का दरसाव!

सीत्कार

देखा है कभी आपने तेल का जलता दिया
और सुनी है कभी उसकी बाती जलने की चरट्-चरट् आवाज़
हाँ! बस इतना
इतना-सा ही है
जीवते रहने का सीत्कार!

नां पढां! नां ना पढां!! नां पढां!!!

देखे हैं कभी आपने चलती रेल में बैठे पीछे भागते रूंख
मानो बस्ता लेकर स्कूल से
भागता जाता हो गाँव
और माथा हिला-हिलाकर, हिला-हिलाकर कहता हो
म्हां तो ना पढां! म्हां तो नां पढां!! म्हां तो नां पढां!!!

नहीं आया

नहीं आया
बेखटके सोना
जागना
चिड़ियों जैसा नहीं आया
नहीं आया
घूमना बेफ़िक्र-बेलौस
रहना हर हाल में हर जगह मौजूद हवा की तरह
नहीं आया
नहीं आया
बनाकर ओक हाथ की
पिए पीछे पानी धापकर मुँह पोंछना
नहीं आया

नहीं आया
मुरझाने के बाद भी
सूखकर गिरते वक़्त डाल से मुस्कुराना
फूल की तरह
नहीं आया।

बारूद और कोढ़

रोपते हो रोगन (बारूद)
आप ही ज़मीन में
पूछते हो फिर किससे
हुआ क्यूँ कोढ़ आसमान को!

मछली

मछली
एक मन में फिरे है
डूब जावै राग में
पर गीत में तिरै है।

जूण2योनि।

ऐसी जूण
किसके समान है
कि जिसमें बाहर बियाबान है
और अंदर घमासान है।

झाड़ू

रोज़गार तेरा तेज़ है कि मंदा है
झाड़ू! वापरने से पहले ये बता
तू ख़ुद साफ़ है कि गंदा है।

हवा

किसने घोली ख़ुशबू इसमें
किसने आवाज़ मिलाई है
साथ है कोई क्या इसके
या हवा अकेली आई है।

दरद

स्वर एक छिपा है बाँसुरी के मन में
पर वो अजाना है
बजता रहता है
सुर वही अठपहर
दिन रात सूने बखत में।

रागिनी

खजूर की चटाई के सिरहाने
नई मटकी-से धरे हुए दिन
आँधियों, बवंडरों, लू, चक्रवातों में
अगन ताप से भरे हुए दिन
राख उन्हीं दिनों की तो
भस्म-सी रमा ली है मन में
विस्मृत होती नहीं कभी वो आग
रागिनी जिससे उपजती है जोग की।

ठूँठ और चूँच3चोंच।

ये जीवन धिक्कार
व्यर्थ और बेकार ये जूण—कठफोड़े जैसी
सारी उमर बीतगी ठक-ठक करते
पता नहीं चल पाया फिर भी
आवाज ठूँठ में से आ रही है
या चूँच में से।

अम्बिका दत्त (जन्म : 1956) हिंदी-राजस्थानी कवि हैं। उनकी हिंदी और राजस्थानी में कविता और गद्य की नौ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ राजस्थानी से हिंदी में उन्होंने स्वयं अनूदित की हैं। वह कोटा (राजस्थान) में रहते हैं। उनसे ambikadutt2@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 23वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।

1 Comment

  1. हरिचरण अहरवाल'निर्दोष' मई 5, 2020 at 3:54 अपराह्न

    अद्वितीय कविताएं, आज ही “आवो में बारहों मास” पढ़ी है

    Reply

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