कवितावार में ओ.एन.वी. कुरुप की कविता ::
मलयालम से अनुवाद : एन.पी. कुट्टन पिल्लै

किराये का घर
आखिर आ बसा यह
किराये का घर भी
हमें पूर्ववत् पसंद आया.
उसके अहाते में एक
शेफालिका हमने लगाई,
सींचकर हमने बढ़ाया उसे,
कोंपले आईं, पत्ते आए,
फूल लगे, गंध आई
शेफालिका के अपना
जूड़ा खोलते ही
छाया में बैठ उसकी गंध
का पान करते समय
बोली तू धीरे से :
‘‘यह किराये का है घर—
पता नहीं कब खाली
कर जाना होगा.’’
सही है, ऐसे कितने
ही घर हम
खाली कर आए होंगे;
हमारे अपने निर्मित
निर्वृति के दुपहरी
क्षणों में.— फिर
नित्य विस्मृति!— दुबारा
एक किराये के घर में
आ बसने का
नया उत्सव मनाते समय;
किसी कारण नई एक
फलों लदे पौधे की छाया बनाते समय,
एक बात भूल जाएं
किराये का घर यह भी—
यह दुःख! हमारे लिए
यहीं आ बसना मात्र सत्य है.
***
वर्ष 2007 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित शीर्षस्थ मलयालम साहित्यकार ओ.एन.वी. कुरुप (27 मई 1931 – 13 फरवरी 2016) की कविता भाव-सांद्रता, अर्थ-गांभीर्य और चित्रगीतों की त्रिवेणी है. यहां प्रस्तुत कविता भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनकी प्रतिनिधि कविताओं (1970-1989) के संकलन ‘दर्शन’ (1991) से ली गई है.