चिट्ठियाँ ::
फ्रेडरिक शिलर
अनुवाद और प्रस्तुति : रिया रागिनी — प्रत्यूष पुष्कर

यहाँ नेपथ्य में स्पिनोज़ा का यथार्थ को ही परिपूर्ण मानना उपस्थित है, सम्मुख ‘सौंदर्य’ का प्रकाश गति से, समय की अनिवार्यता का लोप कर सर्वव्याप्त होना। क्या हम अपनी यात्राओं पर सौंदर्य समझ रहे हैं? या वह जिसे हम सौंदर्य मान रहे हैं, वह एक क्वांटम संवाद का अवक्षेप है केवल?! मानो ‘सौंदर्य’ हो चुका, ओझल नज़रों से किसी रॉकेट की तरह और उसके प्रेसीपीटेट पर हमारा यह आश्चर्य, हमें अपने अनुकूलित बौद्धिक और नैतिक वातावरण में पसरने मात्र की स्वतंत्रता देता हुआ।

मुक्ति दिक्-काल का रिक्त, हम भरे हुए…

उन नियमों से जिनसे सौंदर्य को बाँधा हुआ है हमने एक सिग्निफ़ायर पर एक से सिग्नीफ़ाइड…

स्मृतियों में कोई भी पत्ता चौकोर नहीं। सुंदर का संबोधन हमारा न्याय, और सौंदर्य मीमांसा न्याय-अन्याय का अनंत विस्तार।

हमारे कर्तव्य सौंदर्य से जुड़े हुए हैं। और (विस्तृत) सौंदर्य के दैहिक विस्तार का अर्थ कर्त्तव्यों की प्रचुरता और देह की थकान से मिलता-जुलता है। क्या सौंदर्य का विस्तार बाह्य है? नहीं। लेकिन फिर सौंदर्य के समावेशी होने के प्रमाण तो ख़तरे में नहीं हैं?! जेंडर या लिंग, सौंदर्य का एक नियम जो हमने रचा। फिर इस चश्मे से व्यक्ति को देखा और सुंदर-असुंदर कह अपना न्याय दिया। इस न्याय का विस्तार इस स्थिति में कैसे हो? दैहिक और बाह्य हो तो सभी लिंग के सभी लोग सभी लिंग के निजी सौंदर्य मीमांसा के नियमों पर तत्काल खरे उतर जाएँ, या अगर इसके मूल में आत्मा हो, और आत्मा का सौंदर्यपरक व्यवहार तो?! हमारा जेंडर विसंबंधित हो जाए, और जेंडर की सीमाओं से परे हम मानव को जान सकें, समझ सकें, एक दूसरे तत्त्व के गुणधर्मों का सहज आकलन कर, उस स्पिनोज़ियन प्रणाली को समझ सकें, जिसमें यथार्थ के गठन से पहले ही सौंदर्यबोध हो चुका होता है। जहाँ यह पत्ते पर निर्भर होता है केवल कि वह कैसा दिखे। जहाँ पत्ते की (निजी) उपस्थिति की स्वतंत्रता सौंदर्यबोध है, और हम गेटे के पत्ते।

सौंदर्य, उपस्थिति की स्वतंत्रता है।
— फ्रेडरिक शिलर

जीवन ऐसा है कि कला, अध्यात्म और दर्शन से दूर रहकर, हमारा अचेतन ऐसी स्थितियों की प्रतीक्षा में लगा होता है, जहाँ चमत्कार, सत्य और कर्तव्य प्रकृति के बलों के अधीन, हमारे अव्यवहार्य, काल्पनिक आदर्शों की पूर्ति करने, हम तक का रास्ता तय कर लें।

लेकिन यहाँ अस्तित्व या सत्ता-निर्धारण की सभी कुंजियाँ हमसे तिरोभूत रहती हैं, और इसी मनोवैज्ञानिक रंध्र का लाभ उठाकर, धार्मिक संरचनाएँ हमारे जीवन को जकड़ लेती हैं। ‘धर्म’ जहाँ व्यक्ति का निर्धारण तो है, किंतु उसके पास निर्धारण के शर्त लिखने की क्षमता न के बराबर है।

कला, अध्यात्म और दर्शन हमें क्षमता के इस संदर्भ को लिखने को प्रेरित करते हैं, और इस संदर्भ को लिखने के लिए निज पर जिस प्रत्यय का लगना हैं, वही प्रत्यय सौंदर्यबोध है। यह प्रत्यय, अगर शिलर की माने तो, शब्द या कथ के बाद आकर नहीं लगता, पहले लगता है।

यह एक कलाकार के जीवन का सबसे विस्मयकारी विरोधाभास भी है और बौद्धिक और नैतिक संघर्ष में लगे मानव की सबसे बड़ी दुविधा भी। वह बोध जो हमें हमेशा यात्रा के अंत या अंतिम पड़ाव के पास या परार्ध दिखता है, वह होता उसके ठीक पहले है। मानव जिस नैतिक और बौद्धिक अनुबंध को ‘कॉमनसेंस’ से संबोधित करता हैं, उनका ओरिजिन, मत या भाव-गठन से पहले ही, सौंदर्यबोध में छिपा है। कर्तव्य के इर्द-गिर्द हमारी बौद्धिक और नैतिक संरचनाएँ खड़ी हैं। नैतिकता के दर्शन कर्तव्य से ऊपर मानव को उठने नहीं देते। शिलर, कर्त्तव्यों के इस मैट्रिक्स से स्वयं को अनप्लग करने या कर्त्तव्यों की इस भार-प्रतियोगिता को जीतने के लिए, हमें कर्त्तव्यों के आकार, स्वरूप और प्रणालियों को हाहाकारी संदर्भ देने को नहीं कहते, हमें कर्त्तव्यों के गुरुत्वाकर्षण को बढ़ाने को नहीं कहते बल्कि दिए हुए कर्त्तव्य को, उसके स्वयं के आकार, क्षमता, सज्जा में, सौंदर्यबोध के संग करने को कहते हैं। हम चाहें तो उनका आकर छोटा भी कर अपने अवलोकन की सीमाओं में ही अपनी मुक्ति ढूँढ़ सकते हैं।

दैहिक को सौंदर्यबोध से निबाहना, कर्त्तव्यों से उत्तीर्ण होना है।
— फ्रेडरिक शिलर

हमारे अस्तित्व से हमारा संवाद निष्क्रिय और सक्रिय रूपों में चलता है। हमारी जिज्ञासाओं की सर्वप्रथम चुनौतियों में से एक इस निष्क्रिय और सक्रिय का कोई दैवी अनुपात भी है। धर्म इस अनुपात का रहस्यमय ढंग से उपचार करते हैं। आत्मीयता का संदर्भ सौंदर्य-मीमांसा का विनियोजन सिद्ध होता रहता है। हमारे दर्शन से आत्मा के जो अभिप्राय हैं, वे शिलर के दर्शन से पारस्परिक विरोधाभास में नहीं हैं। शिलर आत्मा के सौंदर्यबोध को मानते हैं। सौंदर्यबोध को आत्मीय मंतव्य-सा देखते हैं।

दर्शन से आत्मा का लोप असंभव ही लगता है। एक इंद्रिय व्यक्ति, अब चाहे अपने धर्म के ईश या स्पिनोज़ा के ईश के सम्मुख ही खड़ा होकर, भावनाओं के ऐसे बल के बारे में आपबीती सुनाने लगे तो सभी निरुत्तर हैं, और इंद्रिय जो है वह धार्मिक भी है। उसकी अवधारणाओं में उसके स्वयं की शुद्ध स्थिति की स्मृति है; जहाँ उसने अपना निर्धारण, देह के सभी दैत्यों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है। इसके बाद भी उसके पास ऐसा कुछ बचा हैं, जो उसे जीवन में रुचि देता है, उसे गुदगुदाता है, उसे यह भरोसा देता है कि सुंदर और वीभत्स के इस वर्गीकरण में भी इसी शुद्ध स्थिति से उसकी मुक्ति का प्रक्षेपण निश्चित है। इस इंद्रिय व्यक्ति के जीवन में संरचनाओं की अधीनता है, और यहाँ व्यक्ति स्वयं अपना निर्माण नहीं करता। शिलर जिसके विरुद्ध प्रकट होते हैं। शिलर उस इंद्रिय व्यक्ति को इस निष्क्रिय अधीनता से जीवन-चर्या में सक्रिय निर्धारण की ओर जाने को कहते हैं।

सौंदर्यबोध कहाँ हैं? सौंदर्यबोध हमारे मत और भाव के ठीक पहले है—हमारे मत और भाव से स्वतंत्र…

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writer Friedrich Schiller 2292019
फ्रेडरिक शिलर [ 10 नवंबर 1759–9 मई 1805 ]

तेईसवीं चिट्ठी

यहाँ से मैं अपने शोध को पुन: उठाता हूँ, जिसे बीच में मैंने केवल इसीलिए रोका था ताकि उनमें व्यवहारिक कला और इसके कार्यों के अभिमूल्यन के सिद्धांतों को भी पिरो सकूँ।

भाव या इंद्रिय निष्क्रियता से विचार की सक्रियता का यह संक्रमण केवल सौंदर्यबोध की स्वतंत्रता के मध्यवर्ती स्थिति द्वारा प्रभावित किया जा सकता है, स्वयं मात्र में यह स्थिति हमारे मत और भाव को केंद्र में रखकर कोई निर्णय नहीं लेती हैं, और इसीलिए हमारी नैतिकता और बौद्धिकता को समस्याजनक बनाकर रख देती है, लेकिन फिर भी यह स्थिति ही वह अनिवार्य अवस्था है जिसके बिना हम किसी भी मत या भाव का निर्माण ही नहीं कर सकते। एक शब्द में, किसी भावात्मक व्यक्ति से एक तार्किक व्यक्ति की उत्पत्ति हेतु उस व्यक्ति का सौंदर्यबोध ही एकमात्र रास्ता है।

लेकिन आप इस बात का विरोध कर सकते है : क्या यह मध्यस्थता संपूर्णतया अपरिहार्य है? क्या सत्य और कर्त्तव्य, या दोनों में से कोई एक, स्वयं द्वारा या केवल स्वयं में, एक भावात्मक व्यक्ति तक नहीं पहुँच सकते? इसके उत्तर में मैं यही कहूँगा कि न केवल यह बिल्कुल संभव है, पर यह अनिवार्य भी है कि निर्धारण के बल का यह ऋण व्यक्ति केवल स्वयं को अदा करे, और इसके विपरीत कोई भी सोच हमारी पूर्ववर्ती अभिपुष्टियों का विरोधाभास मात्र होगा।

यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित है कि ‘सुंदर’ परिणाम का कोई प्रस्तुतीकरण नहीं है, न ही समझ के लिए, न ही इच्छा के लिए; और यह किसी भी शोध के साथ मेल भी नहीं खाता है, चाहे वह विचार का हो या संकल्प का; और यह ऐसी दुहरी शक्ति प्रदान करता है, बिना किसी भी ऐसी चीज़ का निर्धारण किए जो इस शक्ति के वास्तविक अभ्यास के बारे में हो। यहाँ सभी बाह्य सहायताएँ ग़ायब हो जाती हैं, और शुद्ध तार्किक रूप और विचार, मति से ठीक वैसे ही त्वरित संवाद करते हैं जैसे शुद्ध नैतिक प्रारूप और विधि इच्छा से।

लेकिन यह शुद्ध स्थिति इसके लिए सक्षम होनी चाहिए, और सामान्य रूप से भी भावात्मक आदमी के लिए एक शुद्ध स्थिति है, जो, मैं यह मानता हूँ कि केवल आत्मा के सौंदर्यपरक (मैमांसिक) प्रकृति से ही संभव है। सत्य कोई वस्तु नहीं है जो बिना किसी यथार्थ या विषयों के दृश्य सत्ता या अस्तित्व के बिना गढ़ ली गई हो। यह व्यक्ति के स्वयं की स्वतंत्रता और गतिविधियों में स्थानापन्न मंतव्य की वह शक्ति है जो व्यक्ति का निर्माण करती है, और उसके लिए केवल यही स्वतंत्रता ही उचित भी है, जिसे एक केवल भावात्मक व्यक्ति में ढूँढ़ना निरर्थक है।

यह इंद्रिय व्यक्ति पहले से ही दैहिक रूप से निर्धारित हो चुका होता है और इसीलिए उसके पास उसकी स्वतंत्र निर्धारण शक्ति नहीं होती; उसे सक्रिय निर्धारण के विपरीत अपने निष्क्रिय निर्धारण के आदान-प्रदान से पहले, स्व-निर्धारण कर सकने की इस खोई हुई अवस्था को प्राप्त कर लेना चाहिए; और इसीलिए (निर्धारण कर सकने की अवस्था की प्राप्ति कर सकने के लिए) उसे पहले या तो अपने पूर्ववत् निष्क्रिय निर्धारण को जाने देना चाहिए, या फिर तत्क्षण उस निर्धारण या अवधारणा को स्वयं से जोड़ लेना चाहिए, जिसके संग आगे यात्रा करने का निर्णय उसने स्वयं लिया हो।

अगर वह स्वयं को केवल निष्क्रिय निर्धारण के त्याग तक सीमित रखता है, तो ठीक उसी समय में वह सक्रिय निर्धारण की अवस्था भी छोड़ देता है, क्योंकि विचारों को एक देह चाहिए होती है, और प्रारूपों का साधन केवल द्रव्य के माध्यम से संभव है। इसीलिए उसे स्वयं के भीतर सक्रिय निर्धारण की उस एक अवस्था को प्राप्त करना ही होता है, जिसमें वह एक ही समय में सक्रिय-निष्क्रिय दोनों तरीक़ों से निर्धारित रह सके, अर्थात उसका अनिवार्यत: सौंदर्यबोध हो सके।

परिणामत:, आत्मा के सौंदर्यपरक व्यवहार के कारण ‘तर्कणा’ की यथोचित गतिविधि पहले से ही भावनाओं के वलय में समावेशित है, इंद्रिय-शक्ति पहले से ही अपनी सीमाओं में टूटी हुई है, और एक दैहिक मानव की कल्पना दूर-दूर तक इसमें विचरण कर आ चुकी है। एक आध्यात्मिक मानव को स्वयं को मुक्ति की विधियों के संग विकसित करते रहना पड़ता है।

सौंदर्यबोध या सौंदर्य मीमांसा की स्थिति से तार्किक और नैतिक स्थिति (सौंदर्य से सत्य और कर्त्तव्य) का यह संक्रमण दैहिक से सौंदर्यबोध की स्थिति (शुद्ध और अज्ञ जीवन से आकारीय जीवन) के संक्रमण से कई गुना आसान है। परिवर्तनशील मानव केवल मुक्ति से संपन्न कर सकता है, जबकि उसे केवल स्वयं के ‘अधिकार’ (क्षेत्र) में घुसना है, न कि स्वयं को समर्पण कर देना है, अपनी प्रकृति के तत्वों को श्रेणीबद्ध या पृथक करना है, उन्हें बड़ा नहीं करना।

सौंदर्यबोध की प्रकृति को पा लेने के बाद मानव, अपनें निर्णयों और अपने कार्यों को जब चाहे तब एक सार्वभौमिक मूल्य दे सकता है।

पाश्विक प्रकृति से सौंदर्य-मीमांसा तक की यह यात्रा, जिसमें मानव के भीतर एक नए संकाय का जागरण होता है, जो प्रकृति को सहजता से प्रतिपादित करता है, और उसकी इच्छा या संकल्प का ऐसे स्वभाव पर कोई अधिकार नहीं होता, जिस स्वभाव से ही इच्छा या संकल्प का जन्म होता हो।

सौंदर्यपरक मानव को प्रगाढ़ विचारों या उन्नत भावनाओं तक लाने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण अवसरों से ज़्यादा कुछ नहीं लगता है, एक इंद्रिय मानव से यही प्राप्त कर सकने के लिए पहले उसकी प्रकृति बदलनी पड़ सकती है।

सौंदर्यमैमांसिक मानव को एक नायक या एक महात्मा बनाने के लिए केवल किसी एक ऐसे उदात्त स्थिति से परिचय मात्र करवाना हो सकता है, और वह त्वरित कार्रवाई के लिए ही केवल अपनी इच्छाशक्ति का उपयोग करता है। इंद्रिय मानव के लिए वह स्थिति (या संदर्भ) किसी दूसरे ब्रह्मांड के आकाश के नीचे प्रत्यारोपित करना पड़ता है।

संस्कृति के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक मानव को उस आकार में ढालने का होता है, जहाँ एक संपूर्णतया दैहिक जीवन में भी सौंदर्यबोध सौंदर्य की प्रसारणीय सीमाओं तक विचरण कर सके, क्योंकि दैहिक के विपरीत सौंदर्यबोध या मीमांसा की स्थिति ही केवल वह स्थिति है, जहाँ मानव का नैतिक विकास संभव है।

यदि प्रत्येक स्थिति में मानव (स्वयं) अपने निर्णय लेने और संकल्प के निर्माण की क्षमता को संपूर्ण मानवता के निर्णय बना सकने की शक्ति रखे, अगर उसे प्रत्येक सीमित अस्तित्व में असीमित सत्ता या अस्तित्व का संक्रमण ढूँढ़ना हो, और आख़िर में, हर निर्भर अवस्था में भी स्वायत्तता और मुक्ति की उड़ान ले सकना सीखना हो, तो यह बात ध्यान से देखने लायक़ है कि ऐसे किसी भी क्षण में वह केवल व्यक्ति होगा, न वह केवल प्रकृति के नियमों का पालन नहीं कर रहा होगा।

प्रकृति द्वारा निर्धारित अंत के वलयों से स्वयं को विवेकशील सीमाओं तक ऊपर उठाने के लिए, उसने पहले (प्रकृति के) ही वलय में ही अपने दूसरे गुणधर्म का अभ्यास कर लिया होगा, उसने पहले ही अपनी दैहिक नियति में नियत मुक्ति का अंगीकरण भी कर लिया होगा, मुक्ति जिसकी प्रकृति आध्यात्मिक है, सौंदर्य के विधियों के हिसाब से, जो अपने दैहिक प्रयोजन को बिगाड़े बिना भी प्रभाव डाल सकता है।

प्रकृति की उपादेयता उसके संबंध में केवल उसके कृत के सार/सत्व पर निर्भर करती हैं, किंतु प्रकृति के अंत उसके कार्य का निर्धारण नहीं करते, न ही उसके कार्य-आकार का। बल्कि इसके विपरीत, तर्क की विशिष्टताएँ उसके गतिविधियों को अपने विषय-रूप में ग्रहण करती हैं। इसी प्रकार से मानव के नैतिक लक्ष्य के लिए यह जितना ज़रूरी होता है कि वह शुद्ध नैतिक रहे, उसकी सभी गतिविधियाँ उसकी निजी निर्धारित हो, उतना ही अपने दैहिक लक्ष्य के पूर्णतया दैहिक होने के प्रति वह उदासीन होता है। वह संपूर्णतया एक निष्क्रिय रूप में ही कार्य करता है।

इसीलिए इस अंतिम लक्ष्य या गंतव्य के संबंध में, यह पूरी तरह से उसी पर निर्भर करता है, कि वह इसे कैसे निबाहे, एक इंद्रिय व्यक्ति और प्राकृतिक बल होकर, वह बल जो अपने प्रथम व्यय से ही समाप्त हुआ चला जाता है या ठीक उसी समय में, एक निरपेक्ष बल, एक तर्कसंगत व्यक्ति के रूप में…

उसकी गरिमा इन सभी विकल्पों में से किसमें स्वयं को सबसे सक्षम संवाद में पाती है? इसका कोई प्रश्न ही नहीं है।

वह जिसका निर्धारण कर्त्तव्य के ध्येय-रूप में किया जाना चाहिए था, उसे अपने इंद्रिय आवेग में आकर करना उसके लिए भी उतना ही अपयशकारी और तुच्छ है… जितना विधि, समरसता और स्वातंत्र्य के अनुपालन की तरफ़ झुक जाना उसके लिए भद्र और सम्मानजनक है, वहाँ भी जहाँ एक अशिष्ट व्यक्ति केवल अपनी वैध इच्छाओं का निराकरण ही क्यों नहीं कर रहा हो। एक शब्द में कहें तो, सत्य और नैतिकता के क्षेत्र में, इंद्रियता के ऊपर किसी भी निर्धारण को नहीं छोड़ा जा सकता, लेकिन सुख के वलय में, आकार (form) एक ऐसी जगह पा सकते हैं… और खेल का उत्साह बचा रह सकता है।

इसी प्रकार से, दैहिक जीवन की उदासीन सीमाओं में ही मानव को अपने नैतिक जीवन का प्रारंभ करना पड़ता है, उसकी गतिविधियों को निष्क्रियता में अपना पथ ढूँढ़ना ही पड़ता है, और उसकी विवेकशील मुक्ति को इंद्रियों से परे; अपने झुकावों से इतर अपने संकल्प के नियम लागू करने होते हैं, और अगर मुझे कहने दें तो मैं तो यह भी कहूँगा कि उसे वस्तु के क्षेत्र में वस्तु पर ही युद्ध छेड़ना होता है, मुक्ति के अक्षय क्षेत्र में बार-बार इस संदेहास्पद दुश्मन से लड़ने से ख़ुद को बचाने के लिए, उसकी अपनी इच्छाओं को और भद्र और सुंदर करना होता है, स्वयं को विशिष्ट संकल्पों के लिए मजबूर किए बिना। सौंदर्य-मीमांसा संस्कृति का यही फल है, जो सुंदरता की विधियों के सम्मुख समर्पित है; जहाँ न ही प्रकृति के नियम, न ही तर्क के नियम ही कष्ट भोगते हैं, जो मानव की इच्छाशक्ति को मजबूर नहीं करता है, और जो चाहे जो भी रूप बाह्य को दे दे, अंतर के जीवन का पथ खोलता है।

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अपनी आध्यात्मिक यात्राओं पर तर्क के अधीन रहकर हम अपने दर्शन से भूले-भटके या जल्दबाज़ी में अपनी सहजताओं का निषेध कर देते हैं। हमारी सौंदर्य-मीमांसा की प्रकृति निरंतर अति-बौद्धिक या अति-नैतिक होती चली जाती है। मीमांसा को अनिवार्यता से मुक्त करने के लिए, शिलर एक बार फिर से हमें अपनी सर्वप्रथम सहजता, ‘प्ले’ पर आने को कहते हैं। खेल की वह अवधारणा जिससे एक सौंदर्यपरक संवाद संभव है। प्ले जिसमें, कोई बाह्य या आंतरिक अनिवार्यताएँ नहीं हैं। यह ऑब्जेक्टिविटी और सब्जेक्टिविटी की देवाधीनता से भी मुक्त है। खेल हमारे सत और हमारे संभवन, समक्षणिक और अनुक्रमिक, हमारी पहचान और हमारे परिवर्तन का एक समयगत सुलह-संवाद है। इसका विस्तार फिर हमारी कला और हमारे दर्शन में है, जो इंद्रियों पर बल पड़ने से पहले उन्हें विश्राम दे देता है, और जिसका ध्येय आकार का पीड़न भी नहीं है।

क्रीड़ा, जो नियत समय में से समय को मिटा दे।

आत्मा का सौंदर्यबोध है, इंद्रियों की अनिवार्यता है। स्वायत्तता और मुक्ति की प्राप्ति से पहले इंद्रियाँ समयख़ोर है और सभी निष्क्रियताओं से दूर रहकर, सभी निर्भरताओं से दूर रहकर मति समय के अड़ जाने पर अड़ी हुई है। परिवर्तन इंद्रियों और आकारों की तरफ़ से केवल एक द्विचर चुनाव मात्र है। जिस खेल की सहज प्रवृत्ति के बारे में शिलर बात करते हैं, वह इन्हीं दोनों आवेशों को पारस्परिक सुलह और संक्रमण से जीवन अनुबंध में अग्रसारित करता है। खेल की इसी सहज प्रवृत्ति को शिलर कला से जोड़ते हैं। इंद्रिय आवेश की यात्रा को साधारणतया जीवन कह दिया जाता है। आकारिक आवेश की यात्रा को रूप कहा जाता है। शिलर क्रीड़ा की जिस सहजवृत्ति का प्रस्ताव रखते हैं, उसे वह जीवनमय रूप कहते हैं। सौंदर्य मानवता का उपभोग है, इसीलिए यह न केवल जीवन और न केवल रूप के समीप हो सकता है।

खेल की यह सहजता मानव होने को सिद्ध करना हैं। तर्कणा में इस सहजता को सौंदर्य से अलग देखना एक त्रुटि और मानव को सीमित कर देना है। प्ले की यह सहजता या आवेग हमें असीमितता देती हैं। वह सहजता जो गदामेर के अनुसार प्रकृति की सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधियों से अकाट्य निजता से जुड़ी है। मानव इसी सहजता में अपने सत्व से स्वयं को हारमनी में पाता है। पानी और प्रकाश की इसी सहजता से इंद्रियों और आकारों की प्रतिनिधित्वता भी है… और जिसकी असीमित अनुरचना या उच्चतम उद्देश्य का नाम कला है! 

जहाँ सौंदर्यमीमांसा है, वहीं इंद्रिय आवेश और आकारीय आवेश का ऐहिक द्वंद्व समाप्त भी है। सौंदर्यबोध में ही आवेश की शांति है।

क्रीड़ा की सहजवृत्ति, या आवेश एक ड्रामेटिक ऑर्केस्ट्रा की तरह प्रतीत होता है, जिसमें बाक़ी के दोनों आवेशों का संगीत अंतर्निहित है, बिना उनसे उनकी पहचान छीने, उनके स्वयं के गुणों से परिपूर्ण, निरंकुश भी, लेकिन अपने संकल्पों की पूर्ति करते हुए।

क्रीड़ा की सहजता नाम वायलिन द्वारा तारतम्य में रखे, वह वायलिन जिसकी ध्वनियाँ अनंत हैं, वह जिसे श्लेगल, ब्रह्मांड की अनंत क्रीड़ा की एक दूरस्थ अनुकृति, और स्वायत्त, स्वजनित कला(कृति) कहते हैं।

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Friedrich Schiller
जोहान हेनरिक कृत शिलर की प्रतिमा

चौदहवीं चिट्ठी

दो आवेगों के बीच के सहसंबंध पर हमारी सहमति बनाने की कोशिश की गई, और वह भी इस हद तक कि उनमें से एक का कार्य ठीक उसी समय में दूसरे के कार्य को स्थापित या सीमित कर देता है, और दोनों ही जब पृथक कर दिए जाएँ, तो प्रत्येक अपने सर्वोच्च प्रदर्शन या अभिव्यक्ति पर इसीलिए पहुँच पाता है क्योंकि दूसरा सक्रिय होता है।

दो आवेगों के बीच का यह स्थापित सहसंबंध स्पष्ट रूप से एक समस्या है जिसे ‘तर्क’ ने उन्नत किया है, और जिस समस्या का मानव केवल अपने अस्तित्व के पूर्णता की स्थिति में ही समाधान कर सकता है। इस पद का कठोरतम संकेत है; उसकी मानवता की अवधारणा, तदनुरूप, एक अनंत ही है, जिसकी ओर वह समय में निकटतर पहुँच सकता है, कभी उस तक पहुँचे बिना…

उसे उस आकार का साधन नहीं करना चाहिए जो यथार्थ के स्वरूप की क्षति करे, न ही उस यथार्थ का जो उस आकार की क्षति हो।

उसे एक निर्धारित अस्तित्व के माध्यम से संपूर्ण अस्तित्व की खोज करनी चाहिए, और अनंत अस्तित्व के माध्यम से अपने अस्तित्व का निर्धारण ढूँढ़ना चाहिए। उसे यह संसार अपने सम्मुख रखना चाहिए क्योंकि वह एक व्यक्ति है, और उसे एक व्यक्ति इसीलिए होना चाहिए क्योंकि उसके सम्मुख एक संसार है। उसे अनुभूति करनी चाहिए क्योंकि उसके पास उसकी चेतना है, और उसके पास स्वयं की चेतना भी इसीलिए होनी चाहिए क्योंकि वह अनुभूति करता है।

केवल इसी विचार के अनुरूप ही वह संसार के सभी अर्थों में मानव है, लेकिन उसे अस्तित्व के इस रूप के लिए तब तक नहीं मनाया जा सकता, जब तक कि वह दोनों में से किसी भी एक आवेग के सामने समर्पण कर देता है या एक के बाद एक कर उनकी पूर्ति करता है।

जब तक वह केवल महसूस करता है, उसका संपूर्ण व्यक्तित्व और अस्तित्व उसके लिए एक रहस्य बने रहते हैं, और जब तक वह केवल मनन करता है, उसकी स्थिति या समय में उसका अस्तित्व उससे छूट जाते हैं।

लेकिन अगर ऐसी स्थितियाँ होती जहाँ मानव एक बार में ही अपनी चेतना की मुक्ति और अपने अस्तित्व की अनुभूति एक साथ कर पाता, जिनमें वह एक ही समय में पदार्थ या द्रव्य की तरह अनुभूति भी कर सकता और स्वयं को आत्मा रूप में जान भी सकता, तो ऐसी ही स्थितियों में, केवल ऐसी ही स्थितियों में, उसे अपनी मानवता की संपूर्ण अंत:प्रज्ञा मिल सकती है, और वह चीज़ जो यह अंत:प्रज्ञा उसे लाकर देगी, वह उसकी निपुण नियति का प्रतीक होगा, और परिणामस्वरूप वह अनंत की व्याख्या उससे करेगा; क्योंकि उसका यह गंतव्य केवल समय की परिपूर्णता के संग ही परिपूर्ण हो भी सकता है। अगर ऐसा मानें कि इस तरह की स्थितियाँ स्वयं को अनुभूतिरूप में प्रस्तुत करती हैं, तो वे उसके भीतर एक नए आवेग का जागरण भी करेंगी, वे, क्योंकि बाक़ी के दो आवेग भी इसमें अपना सहयोग देंगे, विलगाव या पृथक्करण के उनकी प्रकृति के विपरीत होगा, और संभवत:, उदार स्थितियों में एक नया आवेग भी माना जा सकता है।

यह इंद्रिय या कामुक आवेग है, वह चाहता है कि परिवर्तन हो, कि समय के पास अंतर्वस्तु हो, आकारीय आवेग को चाहिए कि समय का अवरोध या दमन हो और कोई परिवर्तन न हो।

परिणामस्वरूप, वह आवेग जिनमें बाक़ी के दोनों आवेग सामंजस्य में कार्य करते हो, मुझे इसे क्रीड़ा की सहजवृत्ति कहने की छूट दें, जब तक कि मैं इसकी व्याख्या न कर दूँ, क्रीड़ा की इस प्रवृत्ति का विषय समय का समय में दमन, संक्रमण या संभवन की स्थिति को संपूर्ण अस्तित्व से सांत्वना, तादात्म्य संग बदलाव है।

जो इंद्रिय आवेग है, वह अन्यत्र से निर्धारण ढूँढ़ता है। किसी विषय की प्राप्ति ढूँढ़ता है। जो आकारीय आवेग है, वह स्वयं से स्वयं को निर्धारित करना चाहता है या विषय का उत्पादन करना चाहता है। इसीलिए क्रीड़ा-सहजवृत्ति वैसे ही ग्रहण करने का प्रयास करती है, जैसे वह स्वयं से उत्पन्न भी करती हो, और वैसे ही उत्पादन या उत्पन्न करती है, जैसे वह ग्रहण करती हो।

जो इंद्रिय आवेग है, वह अपने विषयों को उनकी स्वायत्तता और मुक्ति से बाहर रखता है, जो आकारीय आवेग है, वह सभी निर्भरताएँ और निष्क्रियता को बाहर रखना चाहता है। लेकिन मुक्ति का निषेध एक दैहिक आवश्यकता है; निष्क्रियता का बहिष्कार एक नैतिक आवश्यकता है। इसीलिए ये दोनों आवेग मन को वश में कर लेते हैं; पहला प्रकृति के नियमों के अनुसार, और दूसरा तर्क के नियमों के अनुसार।

इससे यह परिणाम निकलता है कि क्रीड़ा की सहजवृत्ति, जो बाक़ी दो आवेगों के कार्यों को एकीकृत करती है, एक ही बार में मन को नैतिक और दैहिक दोनों रूपों में संतुष्ट कर सकती है। इसीलिए यह उन सभी चीज़ों का शमन करता है जो आकस्मिक हैं, यह उनका भी शमन करता है जो अवपीड़न या बल-प्रयोग हैं; और मानव को दैहिक और नैतिक मुक्ति देता है।

जब हम नि:सरण से किसी ऐसे व्यक्ति का स्वागत करते हैं जो हमारी अवमानना का हक़दार हो, तो हमें पीड़ा से महसूस होता है कि प्रकृति जकड़ी हुई है। जब हम किसी ऐसे व्यक्ति से द्वेषपूर्ण व्यवहार करते हैं जो हमारे सम्मान का हक़दार होता है, तो हमें तर्क की सीमितता का कष्टकारी अनुभव होता है।

लेकिन अगर वह व्यक्ति हमें रुचि से प्रेरित करता है, और हमारा सम्मान भी पाता है तो अनुभव की सीमितता तर्क की सीमितता के संग ग़ायब हो जाती है, और हम उनसे प्रेम करना शुरू कर देते हैं, कहने का अर्थ है—खेलना, विनोद करना—अपने पक्षों और अपनी मान्यताओं के साथ भी करना!

सिवाय इसके, जो इंद्रिय आवेग है, हमें दैहिक रूप से नियंत्रित करता है और जो आकारीय आवेग है, वह नैतिक रूप से। इंद्रिय आवेग हमारी आकारीय बनावट को अप्रत्याशित बना देता है, और आकारीय आवेग हमारी दैहिक बनावट को अप्रत्याशित… कहने का अर्थ यह है कि हमारी संपूर्णता और हमारी प्रसन्नता के बीच का अनुबंध हमेशा दोनों तरफ़ से अप्रत्याशित होता है।

खेल की यह प्रवृत्ति, जिसमें दोनों आवेग संग कार्य करते हैं, हमारे आकारीय और दैहिक संगठन को आकस्मिक बनाती है, ठीक वैसे ही जैसे हमारी प्रसन्नता और संपूर्णता को। और दूसरी तरफ़ चूँकि यह दोनों को ही आकस्मिक (आपातिक) बना देती है, और यह आपातिक आवश्यकता के संग समाप्त भी हो जाती है, तो यह दोनों में ही इस आपातिक (आकस्मिक) का शमन करती है, और इसीलिए देह (वस्तु) को आकार और आकार को यथार्थ देती है। जिस अनुपात में यह अनुभूति और अनुराग के स्फूर्त प्रभाव को कम करती है, उन्हें वैसे ही तर्कसंगत विचारों के संग सामंजस्य भी देती है। तर्क के नियमों से यह उनकी नैतिक बाध्यताएँ निकालकर, उन्हें इंद्रियों से रुचिपूर्ण सामंजस्य देती है।

यह प्रस्तुति public-library.uk से प्राप्त जानकारी और गेल के. हार्ट के फ्रेडरिक शिलर पर किए गए काम ‘फ्रेडरिक शिलर : क्राइम, एस्थेटिक्स एंड द पोएटिक्स ऑफ़ पनिशमेंट’ पर आधृत है। रिया रागिनी दिल्ली विश्वविद्यालय के कमला नेहरू कॉलेज में संस्कृत की छात्रा हैं। वह संगीत सीख रही हैं और क्वीयर एक्टिविस्ट के रूप में भी सक्रिय हैं। प्रत्यूष पुष्कर हिंदी कवि-कलाकार और अनुवादक हैं। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है और बतौर फ्रीलांस फ़ोटो जर्नलिस्ट पूरा देश घूमा है। इन दिनों वह संगीत के साथ-साथ कला, दर्शन और अध्यात्म के संसार में रम रहे हैं। रिया और प्रत्यूष दोनों ही दिल्ली में रहते हैं। दोनों से क्रमशः riyaraagini@gmail.com और reachingpushkar@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 21वें अंक में पूर्व-प्रकाशित। फ्रेडरिक शिलर की पहली चिट्ठी तथा उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : कला और सौंदर्य

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