आलेख ::
शुभनीत कौशिक
नेहरू का सिनेमा प्रेम
इतिहास, दर्शन, साहित्य और विज्ञान में गहरी रुचि रखने वाले जवाहरलाल नेहरू सिनेमा, रंगमंच, संगीत में भी समान दिलचस्पी रखते थे। सिनेमा और रंगमंच से अपने गहरे लगाव का ज़िक्र जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में किया है। अगस्त 1933 में जेल से रिहा होने के बाद जब नेहरू बंबई गए, तब उनकी मुलाक़ात प्रख्यात कलाकार और नृत्य-निर्देशक उदय शंकर से हुई थी। नेहरू उदय शंकर की नृत्य-कला के मुरीद थे और उनका नृत्य कार्यक्रम देखकर वह काफ़ी आनंदित हुए। उल्लेखनीय है कि पंद्रह वर्ष बाद 1948 में उदय शंकर ने ‘कल्पना’ सरीखी फ़िल्म भी बनाई थी।
वर्ष 1936 में लिखी गई अपनी आत्मकथा में जवाहरलाल नेहरू अफ़सोस जताते हुए लिखते हैं :
‘‘कई सालों से रंगमंच, संगीत, सिनेमा, सवाक् फ़िल्में, रेडियो मेरी पहुँच से बाहर हो गया है। जब मैं जेल से बाहर होता हूँ, तब भी दूसरे ज़रूरी कामों में व्यस्त हो जाने के कारण मैं इनके लिए वक़्त ही नहीं निकाल पाता। अब तक मैं केवल एक सवाक् फ़िल्म देख सका हूँ और सिनेमा के बड़े नाम मेरे लिए सिर्फ़ नाम भर ही हैं। मैं उनके अभिनय को देखने का अवसर नहीं पा सका हूँ। मुझे नाटक न देख पाने का ख़ास अफ़सोस रहता है।’’
सवाक् और मूक फ़िल्मों की विषयवस्तु पर टिप्पणी करते हुए नेहरू ने यह भी लिखा कि वह बहुधा मिथकों और पौराणिक विषयों पर आधारित होती हैं।
जब जवाहरलाल नेहरू ‘सोसाइटी फॉर कल्चरल रिलेशंस’ के आमंत्रण पर वर्ष 1927 में सोवियत रूस गए, तब उस यात्रा में उन्होंने कुछ रूसी फ़िल्में भी देखीं और उन फ़िल्मों की गुणवत्ता और कलात्मकता से वह गहरे प्रभावित हुए। सोवियत रूस की उस यात्रा के दो वर्ष बाद लिखी गई अपनी पुस्तक ‘सोवियत रसिया : सम रैंडम स्केचेज़ एंड इंप्रेशन’ में उन्होंने सोवियत सिनेमा की खुलकर प्रशंसा की है। ‘द लास्ट डेज़ ऑफ पेट्रोग्राद’ फ़िल्म देखने के बाद नेहरू ने लिखा था :
‘‘रूसी फ़िल्मकार अपनी फ़िल्मों की खूबसूरती और कलात्मक उत्कृष्टता के लिए जाने जाते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से हिंदुस्तान में हमें रूसी फ़िल्मों को देखने का अवसर नहीं मिलता। हम तो हॉलीवुड में बनी भौंडी और बचकाना फ़िल्मों को ही देखने के लिए अभिशप्त हैं।’’
अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में नेहरू
वर्ष 1952 में भारत में अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह का आयोजन किया गया। वैसे तो मुख्य समारोह बंबई में 24 जनवरी से 1 फ़रवरी 1952 के बीच आयोजित हुआ; लेकिन बाद में यह समारोह मद्रास, कलकत्ता और दिल्ली में भी आयोजित किया गया। इस समारोह में संयुक्त राष्ट्र संघ समेत कुल तेईस देशों ने भाग लिया और इसमें कुल चालीस फ़ीचर फ़िल्में और लगभग सौ लघु फ़िल्में भी प्रदर्शित की गईं। इसी दौरान फ़िल्म निर्माण से जुड़ी तकनीक और उपकरणों की एक प्रदर्शनी भी बंबई और कलकत्ता में फ़िल्म समारोह के साथ आयोजित की गई थी।
अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह को जनवरी 1952 में दिए अपने संदेश में नेहरू ने फ़िल्म समारोह में अपनी प्रविष्टियाँ भेजने वाले सभी देशों और उनके प्रतिनिधियों को धन्यवाद दिया। नेहरू ने कहा कि यह समारोह भारत ही नहीं बल्कि एशिया में अपनी तरह का पहला फ़िल्म समारोह है। भारतीय फ़िल्मों की बात करते हुए, जहाँ एक ओर नेहरू ने इस बात पर ख़ुशी जताई कि भारत विश्व में अमेरिका के बाद दूसरा सबसे बड़ा फ़िल्म-निर्माता देश है। वहीं उन्होंने संख्या के साथ-साथ गुणवत्ता की ओर भी भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री का ध्यान खींचा। उनका विश्वास था कि लोगों के जीवन पर फ़िल्में गहरा असर छोड़ती हैं, इसलिए फ़िल्मों को लोगों को शिक्षित करने के साथ ही उन्हें सही राह दिखाने का भी काम करना चाहिए। उन्होंने शैक्षणिक उद्देश्य से बनाई गई डॉक्यूमेंटरियों को भी प्रोत्साहन देने की बात कही।
नेहरू का विश्वास था कि प्रोपेगेंडा फ़िल्मों से अलग ऐसी ज्ञानवर्धक-मनोरंजक फ़िल्में लोगों में कलात्मक अभिरुचि और सौंदर्यबोध पैदा करने और जीवन के सभी पक्षों में अंतर्निहित सुंदरता को सराहने का गुण विकसित करने में सहायक होंगी। नेहरू ने भारतीय फ़िल्म निर्माताओं से आग्रह किया कि वे सनसनीख़ेज़, मेलोड्रैमेटिक या हिंसक फ़िल्मों की जगह ऐसी फ़िल्मों के निर्माण को तरजीह दें, जो लोगों में सुरुचि विकसित करने के साथ-साथ नए हिंदुस्तान के निर्माण में भी मददगार हो सकें।
जुलाई 1955 में जवाहरलाल नेहरू ने भारत के विदेश सचिव को लिखी एक टिप्पणी में चीन में भारतीय फ़िल्म समारोह आयोजित करने का सुझाव दिया। उस टिप्पणी में नेहरू ने लिखा कि ‘आवारा’ और ‘दो बीघा ज़मीन’ जैसी फ़िल्में सोवियत संघ और यूगोस्लाविया जैसे देशों में काफ़ी लोकप्रिय हुईं। नेहरू का सुझाव था कि ऐसी ही कुछ चुनिंदा भारतीय फ़िल्में और फ़िल्म जगत की कुछ शख़्सियतों को इस फ़िल्म समारोह के लिए चीन भेजा जा सकता है। इस संदर्भ में नेहरू ने पृथ्वीराज कपूर और देविका रानी का नाम भी सुझाया था। उल्लेखनीय है कि नेहरू के सुझाव के अनुरूप अक्टूबर 1955 में चीन में भारतीय फ़िल्म समारोह का आयोजन किया गया। इस फ़िल्म समारोह में भारत से गए प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया था प्रसिद्ध अभिनेता और ‘पृथ्वी थिएटर्स’ के संस्थापक पृथ्वीराज कपूर ने। साथ ही इसमें लेखक कृश्न चंदर, फ़िल्म-निर्माता बी.एन. सरकार और बलराज साहनी जैसे लोग भी शामिल थे।
वर्ष 1961 में जवाहरलाल नेहरू ने नई दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में आयोजित अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह के समापन कार्यक्रम में भाग लिया। सप्ताह भर चले इस फ़िल्म समारोह में सोलह देशों ने प्रतिभागिता की और चालीस से अधिक फ़िल्में प्रदर्शित की गई थीं। इस अवसर पर सूचना एवं प्रसारण मंत्री बी.वी. केसकर और प्रख्यात फ़िल्म निर्देशक बिमल रॉय भी मौजूद थे। समापन समारोह में दिए अपने वक्तव्य में नेहरू ने फ़िल्मों के प्रभाव की चर्चा करते हुए कहा कि मनोरंजन के साथ फ़िल्में नई जानकारियाँ देने और जनता को शिक्षित करने में अहम भूमिका निभा सकती हैं।
‘फ़िल्म जाँच समिति’ का गठन
आज़ादी के ठीक दो साल बाद अगस्त 1949 में जवाहरलाल नेहरू की पहल पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने ‘फ़िल्म जाँच समिति’ गठित की। यहाँ यह ज़िक्र कर देना प्रासंगिक होगा कि इस समिति के गठन से दो दशक पूर्व ब्रिटिश भारत में भी ‘भारतीय सिनेमेटोग्राफ़ समिति’ गठित की गई थी। दीवान बहादुर टी. रंगाचारियार की अध्यक्षता वाली इस समिति ने वर्ष 1928 में सेंसरशिप और भारत में फ़िल्म-निर्माण से जुड़े प्रश्नों पर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी।
वर्ष 1949 में गठित ‘फ़िल्म जाँच समिति’ की अध्यक्षता कर रहे थे, कांग्रेस के प्रसिद्ध नेता और स्वतन्त्रता सेनानी एस.के. पाटिल। साथ ही, इस समिति में संविधान सभा के सदस्य एम. सत्यनारायण, फ़िल्म निर्देशक और राजकमल कलामंदिर के संस्थापक वी. शांताराम, फ़िल्म-निर्माता और कलकत्ता में ‘न्यू थिएटर्स’ के संस्थापक बी.एन. सरकार, इतिहासकार आर.पी. त्रिपाठी और वी. शंकर भी शामिल थे। समिति ने भारत में फ़िल्म उद्योग के विकास और पुनर्गठन, उसकी दिशा, भारत में फ़िल्म रील और अन्य उपकरणों के निर्माण के संबंध में तो विचार किया ही। साथ ही, फ़िल्म निर्माण, वितरण और प्रदर्शन में पेश आने वाली कठिनाइयों के समाधान भी तलाशे।
इसके अलावा ‘फ़िल्म जाँच समिति’ ने उन उपायों के बारे में भी गहराई से विचार किया, जिनके जरिए फ़िल्मों का इस्तेमाल राष्ट्रीय संस्कृति के निर्माण में और शिक्षा व स्वस्थ मनोरंजन को बढ़ावा देने में किया जा सकता था। 1951 में सौंपी गई इस समिति की रिपोर्ट में फ़िल्मों के वित्तीय पहलू, कराधान आदि के बारे में भी सुझाव दिए गए। समिति ने फ़िल्म निर्माताओं, वितरकों और प्रदर्शकों के व्यापारिक संबंधों को संतुलित करने की बात भी कही। साथ ही, समिति ने ‘फ़िल्म काउंसिल ऑफ़ इंडिया’ के निर्माण और फ़िल्म निर्देशन, फ़िल्म के तकनीकी पक्षों के प्रशिक्षण हेतु एक विशेष ‘प्रशिक्षण संस्थान’ स्थापित करने का सुझाव भी दिया था।
सिनेमा, समाज और भारतीय राज्य : नेहरू की दृष्टि में
कला-साहित्य-संस्कृति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से जवाहरलाल नेहरू ने वर्ष 1954-55 के दौरान संगीत नाटक अकादेमी, साहित्य अकादेमी और ललित कला अकादेमी की स्थापना में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है फ़रवरी 1955 में नई दिल्ली में सिनेमा पर आयोजित एक सेमिनार, जिसका उद्घाटन ख़ुद जवाहरलाल नेहरू ने किया था। इस सेमिनार में भारतीय सिनेमा से जुड़ी दिग्गज हस्तियों ने भाग लिया था। इसमें वी. शांताराम, मोहन भवनानी, बी.एन. सरकार, एस.एस. वासन, किशोर साहू, नरेंद्र शर्मा, उदय शंकर, ख्वाज़ा अहमद अब्बास, दुर्गा खोटे जैसे लोगों ने सिनेमा से संबंधित लेख प्रस्तुत किए थे। इन लेखों में भारतीय फ़िल्म उद्योग, कला, फ़िल्म-निर्माण और उसके तकनीकी पहलू, अभिनय, स्टूडियो के प्रबंधन, फ़िल्म लैब, सिनेमा के गीत आदि विषयों पर विस्तार से चर्चा की गई थी। वहीं इस सेमिनार में भारतीय सिनेमा की महत्त्वपूर्ण हस्तियों जैसे देविका रानी, नरगिस, राज कपूर, दिलीप कुमार, बिमल रॉय, पंकज मलिक, बी.एन. रेड्डी आदि ने भी भाग लिया था।
नेहरू ने अपने उद्घाटन भाषण में भारत या विश्व सिनेमा के विकास और उसके इतिहास के बारे में अपनी जानकारी के बिलकुल सीमित होने का उल्लेख किया। उन्होंने अभिनेत्री देविका रानी को धन्यवाद दिया, जिन्होंने सेमिनार से पूर्व भारतीय सिनेमा के बारे में एक संक्षिप्त नोट नेहरू को भेज दिया था। साथ ही, नेहरू ने श्री एस.एस. वासन का शुक्रिया अदा किया, जिन्होंने सेमिनार के अपने वक्तव्य की प्रति नेहरू को उपलब्ध करा दी थी। उल्लेखनीय है कि एस.एस. वासन (सुब्रमण्यम श्रीनिवासन) फ़िल्म निर्देशक और निर्माता होने के साथ ही मद्रास स्थित ‘जेमिनी स्टूडियोज़’ के संस्थापक भी थे। वासन ने अपने वक्तव्य में मनोरंजन कर और सेंसरशिप के संदर्भ में कई सवाल भी उठाए थे। नेहरू ने इन सवालों को अहम बताते हुए वासन के विचारों से अपनी असहमति भी प्रकट की थी।
सेंसरशिप के संदर्भ में, नेहरू का स्पष्ट मानना था कि फ़िल्म, साहित्य, कला, संगीत, नृत्य जैसी विधाओं पर राज्य द्वारा एक सीमा से अधिक अंकुश क़तई नहीं लगाया जाना चाहिए। राज्य को अपनी सीमाओं के प्रति सचेत रहना चाहिए और उसे कलात्मक अभिव्यक्ति को विकसित होने की पूरी स्वतंत्रता देनी चाहिए। साथ ही, राज्य को लोगों की नैतिकता को अपनी कसौटियों पर कसने से बचना चाहिए। इस तरह नेहरू का मानना था कि सृजनशीलता को बग़ैर किसी हस्तक्षेप के संवर्धित होने का यथोचित अवसर और प्रोत्साहन देना चाहिए।
आधुनिक विश्व में सिनेमा के व्यापक प्रभाव से नेहरू वाक़िफ़ थे। उनके अनुसार, सिनेमा का प्रभाव और उसकी व्यापकता किताबों और अख़बारों से भी कहीं अधिक विस्तृत और प्रभावशाली थी। अकारण नहीं कि सिनेमा, सरकार और समाज दोनों की नज़रों में अहम हो जाता है। नेहरू का मानना था कि राज्य को सिनेमा सरीखे कला माध्यमों पर तभी अंकुश लगाना चाहिए, जब वे समाज के लिए एक ख़तरा बन जाएँ। और ऐसा तभी करना चाहिए, जब समाज और राज्य दोनों ही किसी फ़िल्म को समाज के लिए ख़तरनाक समझें।
इस संदर्भ में, नेहरू ने ‘हॉरर कॉमिक्स’ और युद्ध की मनोवृत्ति को बढ़ावा देने वाली प्रोपेगेंडा फ़िल्मों का ज़िक्र किया। ‘हॉरर कॉमिक्स’ के संदर्भ में नेहरू ने कहा कि ऐसी सामग्री अबोध बच्चों के मन पर भयावह असर डालती है और उनमें क्रूरता और हिंसा को बढ़ावा देती है। ठीक यही बात नेहरू ने प्रोपेगेंडा फ़िल्मों द्वारा युवा दर्शकों के मन पर नकारात्मक प्रभाव डालने के संदर्भ में भी कही। इसलिए यह ज़रूरी हो जाता था कि राज्य, समाज और सिनेमा उद्योग इन मुद्दों पर एक व्यापक सहमति बना लें। जहाँ एक ओर राज्य सिनेमा की स्वायत्तता में दख़ल न दे, वहीं दूसरी ओर सिनेमा भी अपने सामाजिक दायित्व का बख़ूबी निर्वहन करे। नेहरू ने भारतीय सिनेमा उद्योग की सराहना करते हुए कहा कि यह उन लोगों के अथक परिश्रम का नतीजा है, जिन्होंने औपनिवेशिक सरकार की उपेक्षा झेलते हुए भी हिंदुस्तान में सिनेमा और फ़िल्म उद्योग के विकास की राह प्रशस्त की।
सिनेमा के संदर्भ में अपनी व्यक्तिगत पसंद का ज़िक्र करते हुए नेहरू ने कहा था कि वह सिनेमा में मेलोड्रामा को पसंद नहीं करते। नेहरू का मानना था कि जहाँ एक ओर सिनेमा लोगों की पसंद और उनकी रुचियों को प्रभावित करता है, वहीं दूसरी ओर लोगों की पसंद और उनकी रुचियाँ भी सिनेमा को गहरे प्रभावित करती हैं। ये दोनों ही अंतर्संबंधित हैं। नेहरू ने भारत में बच्चों की फ़िल्मों के अभाव को भी रेखांकित किया। उनका कहना था कि बाल-फ़िल्मों को उपदेशात्मक नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसे उपदेशों से बच्चे जल्दी ही ऊब जाते हैं। इसलिए नेहरू का आग्रह था कि बच्चों का सिनेमा ऐसा हो जो मनोरंजक तो हो ही, साथ ही वह बच्चों के मन पर सकारात्मक प्रभाव भी छोड़ सके। ख़ुद सरकार भी बच्चों के लिए सिनेमा और वृत्त-चित्र बनाने की दिशा में पहल करेगी, इसका विश्वास भी नेहरू ने उपस्थित लोगों को दिलाया।
बाल चित्र समिति और फ़िल्म संस्थान
संयोग नहीं कि उक्त फ़िल्म सेमिनार के ठीक तीन महीने बाद जवाहरलाल नेहरू ने मई 1955 में ‘चिल्ड्रेंस फ़िल्म सोसाइटी ऑफ इंडिया’ (सी.एफ़.एस.आई.) की स्थापना में प्रमुख भूमिका निभाई। स्वतंत्रता सेनानी व राज्यसभा के सदस्य पंडित हृदयनाथ कुंजरू की अध्यक्षता में बाल चित्र समिति (सी.एफ़.एस.आई.) ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्त विभाग के रूप में कार्य आरंभ किया। बाल चित्र समिति द्वारा निर्मित पहली ही फ़िल्म ‘जलदीप’ ने वेनिस फ़िल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ बाल फ़िल्म का पुरस्कार जीता। इस फ़िल्म का निर्देशन किया था केदार शर्मा ने जिन्होंने ‘नील कमल’, ‘बावरे नैन’ और ‘जोगन’ जैसी चर्चित फ़िल्में बनाई थीं। आगे चलकर बाल चित्र समिति से मृणाल सेन, तपन सिन्हा, श्याम बेनेगल, एम.एस. सथ्यू और सई परांजपे सरीखे दिग्गज फ़िल्मकार भी जुड़े।
प्रसार भारती के आर्काइव पर उपलब्ध एक वीडियो में जवाहरलाल नेहरू बच्चों के साथ बाल चित्र समिति द्वारा निर्मित फ़िल्म ‘जलदीप’ पर चर्चा करते नज़र आते हैं। वह बच्चों से पूछते हैं कि उन्हें ‘जलदीप’ फ़िल्म में क्या बातें पसंद आईं। इस बातचीत में वह बाल फ़िल्मों की ज़रूरत, उनके महत्त्व को तो रेखांकित करते ही हैं। इसके साथ ही वह बच्चों को ही बाल-फ़िल्मों का वास्तविक समीक्षक बताते हैं। वह कहते हैं कि बच्चों की फ़िल्म का सही मूल्यांकन बच्चे ही करेंगे, बड़े नहीं। वह ‘भारत में अव्वल दर्जे की बाल-फ़िल्में’ के अपने संकल्प को भी दुहराते हैं। इसी क्रम में वह बाल-फ़िल्मों की विषयवस्तु की चर्चा भी बच्चों से करते हैं :
नेहरू के प्रधानमंत्री रहते हुए ही वर्ष 1960 में ‘फ़िल्म जाँच समिति’ के सुझावों के अनुरूप पुणे में भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान (एफ़.टी.आई.आई.) की स्थापना की गई। बाल चित्र समिति की तरह ही तब यह सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का ही एक विभाग था। पुणे स्थित प्रभात स्टूडियो के परिसर में स्थापित एफ़.टी.आई.आई. को आरंभ में भारतीय फ़िल्म संस्थान (एफ़.आई.आई.) के नाम से जाना जाता था। बता दें कि प्रभात फ़िल्म कंपनी की स्थापना 1933 में कोल्हापुर में हुई थी, लेकिन स्थापना के चार साल बाद ही कंपनी का स्टूडियो पुणे में स्थानांतरित हो गया। प्रभात स्टूडियो ने हिंदी और मराठी में लगभग 45 फ़िल्मों का निर्माण किया था। 1971 में भारतीय फ़िल्म संस्थान का नाम बदलकर भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान (एफ़.टी.आई.आई.) रखा गया।
हॉलीवुड में नेहरू
नवंबर 1961 में जवाहरलाल नेहरू अमेरिका की यात्रा पर गए। तब जॉन एफ़. केनेडी अमेरिका के राष्ट्रपति थे। नेहरू ने इस अवसर पर वॉल्ट डिज़्नी के आमंत्रण पर डिज़्नीलैंड का भ्रमण भी किया। 12 नवंबर 1961 को अमेरिका के मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष एरिक जॉनस्टन ने नेहरू के सम्मान में लॉस एंजेल्स में एक सभा आयोजित की। इस सभा में किर्क डगलस, ग्रेगरी पेक और चार्ल्टन हेस्टन सरीखे हॉलीवुड के दिग्गज अदाकार भी मौजूद थे। एरिक जॉनस्टन ने अपने भाषण में कहा कि जवाहरलाल नेहरू दुनिया के लिए उम्मीद और शांति के प्रतीक हैं। वह बुद्ध और गांधी के संदेशों के वाहक हैं और उनके ऊपर गांधी के सपनों को हक़ीक़त में बदलने की बड़ी ज़िम्मेदारी है।
इस सभा के आयोजन के लिए एरिक जॉनस्टन का शुक्रिया अदा करते हुए नेहरू ने दुनिया को गांधी और बुद्ध द्वारा दिए गए संदेश की याद दिलाई। महात्मा गांधी को याद करते हुए नेहरू ने कहा कि गांधी कहते थे कि हमें दुनिया की हर आँख से एक-एक आँसू को पोंछना है। ऐसा करते हुए हमें साधन-साध्य का भी ख़याल रखना होगा। फ़िल्मों की बात करते हुए नेहरू ने सिनेमा के विश्वव्यापी प्रभाव का ज़िक्र किया। नेहरू का कहना था कि फ़िल्में सिर्फ़ हमारा मनोरंजन ही नहीं करतीं, बल्कि वह प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारे दिमाग़ पर, हमारी सोचने-समझने की प्रवृत्ति पर भी गहरा असर डालती हैं। अकारण नहीं कि नेहरू ने ज़ोर देकर कहा :
‘‘आज ऐसी फ़िल्मों की ज़रूरत है, जो लोगों को सही राह दिखा सकें। ऐसी फ़िल्में जो दूसरे समुदायों के प्रति लोगों में संवदेनशीलता पैदा करें। और उनके मन में उन लोगों के लिए भी करुणा और सहिष्णुता का भाव जगाएँ, जिनसे वे मतभेद रखते हों।’’
शुभनीत कौशिक इतिहास और साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। वह फ़िलहाल बलिया (उत्तर प्रदेश) के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं। उनसे kaushikshubhneet@gmail.com पर बात की जा सकती है। इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज़ : Focus magazine