नोट्स ::
व्योमेश शुक्ल
उन्नीस और बीस अक्टूबर (2019) को युवा कविता पर एकाग्र एक आयोजन में भाग लेने मैं पटना गया था। कार्यक्रम का नाम था—‘दो दिन कविता के’। इसे रज़ा फ़ाउंडेशन और अर्थशिला ने मिलकर संभव किया था। मैं लंबे समय बाद किसी साहित्यिक आयोजन में शामिल हो रहा था तो मन में कुछ संकोच और भय भी था। इससे आज़ाद होने के लिए मैंने सोचा कि वहाँ जो कहा जाएगा, उसमें से कुछ न कुछ नोट करता रहूँगा। ये वही नोट्स हैं।
उस आयोजन में शामिल होकर मुझे कई लाभ हुए। एक : शाम के कार्यक्रम के कुछ घंटे पहले, दोपहर में ही मैं पटना पहुँच गया था, तो कई साल बाद मैं दोपहर में सोया और मुझे कोई भाषण नहीं देना था तो स्नायुओं पर भी कोई दबाव नहीं था। दो : मैं समकालीन हिंदी कविता के दृश्यालेख को बहुत क़रीब से देख पाया। तीन : मैंने अपने भीतर एक बार फिर कविता के विद्यार्थी की खोज की।
एक
अशोक वाजपेयी के वक्तव्य के नोट्स :
कविता समाज नहीं, व्यक्ति लिखता है, फिर भी कविता एक सामाजिक कर्म है, क्योंकि वह भाषा में लिखी जाती है और भाषा एक सामाजिक संपदा है।
इन दिनों हिंदी झगड़ालू और गाली-गलौज की भाषा बनती गई है।
कविता भाषा का शिल्पित रूप है, कच्चा रूप नहीं।
शिल्प भाषा का अंतःकरण है।
कविता एकांत देती है।
कविता भाषा का भाषा में स्वराज है।
जितना कवि समय को, उतना ही समय कवि को गढ़ता है।
कविता सरलीकरण और सामान्यीकरण के विरुद्ध अथक सत्याग्रह है।
कविता परम सत्य और चरम असत्य के बीच गोधूलि की तरह विचरती है।
कविता अपने सच पर ईमानदार शक करती है।
कविता का काम संसार के बिना नहीं चलता। वह उसका सत्यापन भी करती है और गुणगान भी।
कविता कवि, पाठक और श्रोता का साझा सच है।
कविता आत्म और पर के द्वैत को ध्वस्त करती है।
कविता व्यक्ति को दूसरा बनाए जाने के क्रूर अमानवीय उपक्रम के विरुद्ध सविनय अवज्ञा है।
अगर कविता न होती तो राम और कृष्ण भी यथार्थ न होते।
कविता यथार्थ का बिंब भर नहीं होती। वह उसमें कुछ जोड़ती, इज़ाफ़ा करती है।
दो
आयोजन के पहले दिन समकालीन कविता में छंद के प्रयोग पर भी कुछ बातें हुईं। वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने एक अद्भुत स्थापना करते हुए कहा कि एक समय छंद में लिखना रूढ़ि थी, आज छंद में न लिखना रूढ़ि है। बाद में, अपने वक्तव्य में मानो इसका उत्तर देते हुए जाने-माने लेखक प्रेम कुमार मणि ने कहा कि जिस तरह नागार्जुन के शून्यवाद के मुताबिक़ जगत और चेतना एक दूसरे के पूरक हैं, वैसे ही, गद्य और पद्य भी एक दूसरे के पूरक ही हो सकते हैं, विरोधी नहीं।
तीन
अरुण कमल ने अपने भाषण में जार्ज बर्नार्ड शॉ के एक नाटक के हवाले से एक विचित्र प्रसंग सुनाया। वह नाटक शेक्सपीयर के लेखकीय व्यक्तित्व की बातें करता है। बक़ौल अरुण कमल, उस नाटक में शेक्सपीयर लिखने की टेबल पर बैठे कुछ लिख रहे हैं, तभी एक काम करने वाली स्त्री वहाँ आ जाती है। शेक्सपीयर उसे अचानक चूमने लगते हैं, चूमते हुए अचानक उन्हें लिखने लायक़ कुछ सूझता है—वह चूमना छोड़कर लिखने लग जाते हैं। लिखकर फिर से चूमना प्रारंभ कर देते हैं।
यह क़िस्सा सुनाने के बाद अरुण कमल ने कहा : आवेश के सघनतम क्षण में भी कवि पहले शब्दों को ही चूमता-पकड़ता है।
चार
अरुण कमल ने अपने भाषण में मायकोवस्की को उद्धृत करते हुए एक और बात कही—मानो अपने चिरयौवन के पक्ष में दलील देते हुए : मेरी आत्मा का एक भी बाल सफ़ेद नहीं है।
पाँच
छंद वाला विमर्श अगले दिन कुछ उदात्त हो गया, जब कवि-आलोचक उदयन वाजपेयी ने यह कहा कि कविता में अलग से छंद की माँग करना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई शब्द नहीं, जो छंद में न हो। भाषा में सब कुछ छंदमय है। उन्होंने बोर्हेस का एक वाक्य भी उद्धृत किया : Each word is born from a verse. उन्होंने कहा कि छंद और मीटर में कन्फ्यूज़ होकर ही कविता से छंद की माँग की जा सकती है।
छह
कवि अनंत का राजदूत है, जिसे समय ने बंधक बना रखा है।
— बोरिस पास्तरनाक
कविता विचारों से नहीं शब्दों से लिखी जाती है।
— मलार्मे
कोसल टिक नहीं सकता
कोसल में विचारों की कमी है
— श्रीकांत वर्मा
अशोक वाजपेयी के वक्तव्य में आए उद्धरण।
सात
ईश्वर एक ऐसा वृत्त, जिसकी परिधि कहीं नहीं और केंद्र हर कहीं।
यह कथन पटना में ही सुना गया—कुछ भूल गया, कुछ याद रहा।
आठ
अपने वक्तव्य में उदयन वाजपेयी ने एक जगह पर कहा कि हमने समृद्धि का सिर्फ़ आर्थिक पक्ष समझ रखा है, जबकि समृद्धि के बहुत से मानवीय और आत्मिक संदर्भ हैं।
नौ
हर वस्तु एक शिल्प है। हम उसे उपयोगिता के नज़रिए से देखते हैं, इसलिए उसका शिल्प होना भूल जाते हैं।
दस
कवि-गद्यकार उदयन वाजपेयी ने समकालीन कविता के बारे में कुछ बहुत ज़रूरी असुविधाजनक बातें भी कीं। उन्होंने कहा कि कवि कई बार बहुत समझाने लग जाते हैं। कहीं-कहीं कविता में जातिवाचक संज्ञाओं का अतिरिक्त इस्तेमाल हो रहा है। ऐसी समाजशास्त्रीय कोटियों की जगह साहित्य में नहीं हो सकती। वाचालता से ध्वनि का नुक़सान होता है।
ग्यारह
एक युवा कवि-मित्र का यत्किंचित घबराया और जल्दबाज़-सा कविता-पाठ सुनकर महबूब कवि आलोकधन्वा ने कहा कि कविता-पाठ स्वतःस्फूर्त नहीं हो सकता। उसे फ़्रेम करना ही होगा।
व्योमेश शुक्ल सुपरिचित हिंदी कवि-आलोचक और रंगकर्मी हैं। उनका एक कविता-संग्रह ‘फिर भी कुछ लोग’ शीर्षक से राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो चुका है। वह बनारस में रहते हैं। उनसे vyomeshshukla@gmail.com पर बात की जा सकती है। मशहूर तबलावादक कुमार बोस से उनकी एक बातचीत ‘सदानीरा’ के 23वें अंक में प्रकाशित हुई है। इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज : GUS FINK