जयंत महापात्र की कविताएँ ::
अनुवाद और प्रस्तुति : शिवम तोमर

‘‘मैं भारत के अलावा कहीं और रहने की कल्पना नहीं कर सकता और न ही किसी और जगह रहकर कविताएँ लिखने की।’’ ये जयंत महापात्र (1928-2023) के शब्द हैं। जयंत महापात्र जिन्हें घर की तुलना में विदेशों में अधिक सम्मान मिलता रहा। यहाँ तक क़ि उनके चार कविता-संग्रह भी विदेश में प्रकाशित हुए। यह भारत के समृद्ध साहित्य जगत का ‘लॉन्ग-लिविंग’ विरोधाभास है।

पाँच दशकों तक लेखन में सक्रिय रहे जयंत महापात्र भारतीय अँग्रेज़ी कविता इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण कवि हैं। भारत, भारत के लोग, भारत के वीभत्स सामाजिक परिदृश्य और भारत के कण-कण में व्याप्त असमानता के दारुण उदाहरण हमेशा जयंत महापात्र की कविता के विषय-वस्तु बने रहे। भुखमरी, निर्धनता और इनसे जन्मी सामाजिक क्रूरता का मार्मिक ब्योरा जिस तरह से उनकी कविताओं में है; वह अभूतपूर्व है।

जयंत की कविताओं में सिर के ऊपर छत होना सबसे बड़ी विलासिता है और दैनिक जीविका का होना एक स्वप्न। इसीलिए वह भारतीय सामाजिक व्यवस्था के प्रतिनिधि कवि हैं। जब उन्होंने कविताएँ लिखना शुरू किया तो स्वयं को जिन समकालीन कवियों के प्रभुत्व में घिरा पाया उनके पास उनकी अपनी विशिष्ट स्थानीय भाषा तो थी, लेकिन कहन में उस तरह की बहुस्तरीयता नहीं थी जैसी जयंत आगामी दिनों में अपनी कविता के ज़रिए प्रस्तुत करने वाले थे। तात्कालिक कविता के ख़ालीपन को जयंत महापात्र ने रहस्यवाद के प्रति अपने आकर्षण से भरा।

मृत्यु के बारे में वह कहते हैं, ‘‘जब आप लगभग 50 वर्ष के होते हैं, तो आप मृत्यु से डरते हैं; क्योंकि आप अपने कई क़रीबी सहयोगियों को मरते हुए देखते हैं। लेकिन जब आप मेरी उम्र में आते हैं, यानी 80 से अधिक के हो जाते हैं; तो मृत्यु का डर नहीं रह जाता। चूँकि मैं इन दिनों अलगाव में रहता हूँ, मुझे कभी-कभी मृत्यु की तीव्र इच्छा होती है। लेकिन अगले ही पल जीने की चाहत वापस आ जाती है।’’

अब जयंत महापात्र दैहिक रूप में हमारे बीच नहीं हैं। उनके साथ ही वह आवाज़ भी अब नहीं है जो भूखों के असाक्षर पेट से निकलती थी, जो वेश्याओं के मानव-पक्ष की पैरवी करती थी। इस अभाव में जो रह गया है, वे हैं उनके शब्द जो इस विकासशील देश के अंतर्विरोधों को अपनी संपूर्ण नग्नता के साथ दर्शाते हुए एक लंबे समय तक प्रासंगिक बने रहेंगे।

— शि. तो.

जयंत महापात्र

लापता

अँधेरे कमरे में
एक औरत
नहीं ढूँढ़ पाती
दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब

हमेशा की तरह
वह इंतिज़ार करती है
नींद के हाशिए पर खड़ी

वह अपने हाथों में रखती है
तेल का दीपक
जिसकी मतवाली पीली लपटें जानती हैं
कि उसका अकेला शरीर कहाँ छिपा है

भूख

विश्वास नहीं हो रहा कि
कामोत्तेजना मेरी पीठ पर इस तरह लद जाएगी
अपनी व्यग्रता से पार पाकर मछुआरे ने जाल बिछाया
और एक लापरवाह लहजे में मुझसे पूछा :
‘‘क्या तुम्हें वह चाहिए?’’
इन शब्दों ने मानो
उसके एक उद्देश्य को दोषमुक्त कर दिया हो
फीकी-सी मुस्कुराहट में से झाँकते उसके दाँत
उसकी आँखों में निहित बेचैनी के साथ द्वंद्व में थे

रेत के विस्तार में चलकर मैं उसके पीछे-पीछे गया
मेरा मन गोफन-सी इस देह में धड़क रहा था
इस पाप से मुक्त होने में
शायद मुझे अपना घर जलाना पड़ जाए
एक चुप ने मेरी आस्तीन पकड़ ली

मछुआरे की देह उस जाल को खींचते दोहरी हो गई है
जो सिवाय झाग के कुछ और बाहर न ला सका

टिमटिमाते अँधेरे में
मछुआरे की कुटिया एक घाव की तरह खुली
जिसके भीतर मैं ही हवा था
और मैं ही दिन और रात
कुटिया में खुरसे ताड़ के पत्तों ने मेरी त्वचा खरोंच दी
तेल के दिए से निकलकर समय
कुटिया की दीवारों पर छाया हुआ था
रह-रहकर वही चिपचिपी कालिख
मेरे अंतस में नाच रही थी

मैंने उसे कहते हुए सुना :
‘‘मेरी बेटी बस कुछ दिन पहले ही
पंद्रह साल की हुई है
तुम उसका आनंद लो,
मैं जल्दी ही आता हूँ,
वैसे भी तुम्हारी बस तो नौ बजे है’’

मेरे ऊपर आकाश टूट पड़ा
और एक पिता का छलबल भी

दुबली और लंबी,
रबर की तरह ठंडी और निरुत्साह वह लड़की
जब उसने केंचुए जैसे अपने पतले से पाँव फैलाए
मैंने वहाँ एक भूख देखी
मेरी भूख जैसी नहीं,
दूसरी तरह की
एक मछली की तरह रेंगती हुई,
छटपटाती हुई

एक प्रार्थना को सुनते हुए

पत्थर1यहाँ ‘पत्थर’ शब्द का एक अप्रत्यक्ष अर्थ है। पत्थर यानी पत्थर के परिसर में मौजूद जड़ और संवेदनाविहीन ईश्वर और एक असहाय धार्मिक व्यवस्था। गहरे घाव देते हैं

असंख्य लोगों की व्यथा की छुअन से
मंदिर की घंटी काँपती है

मंदिर चौक के इस पार,
जो हवा मेरे कंधे पर आकर ठहर गई है,
उसके पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है :
न तो कोई चुप्पी, न ही कोई जवाब

गर्मियों की कविता

सरसराती लू-लपट के बीच
पुजारी जब ज़ोर-शोर से मंत्रोच्चारण करते हैं,
लगता है संपूर्ण भारत का मुँह खुल गया हो

मगरमच्छ और गहरे पानी में चले जाते हैं

सुबह के सूरज में
घूरे से उठता है धुआँ

एक समर्पित पत्नी
दुपहर भर मेरे बिस्तर पर आराम करती है,
जलती हुई चिताओं की प्रगाढ़ गर्जना से अछूती
अथक, एक सपना देखती हुई

उसके हाथ

उस छोटी बच्ची का हाथ अँधेरे से बना है
मैं उसे कैसे पकड़ सकूँगा?

कटे हुए सिरों की तरह टँगे हुए हैं स्ट्रीट-लैंप
ख़ून हमारे बीच स्थित एक ख़ौफ़नाक दरवाज़ा खोलता है

इस देश का विशालकाय मुँह दर्द में भिंचा हुआ है
जबकि शरीर कीलों के बिस्तर पर पड़ा छटपटा रहा है

मैं उस तक पहुँच तो सकता हूँ
लेकिन उस छोटी-सी बच्ची के पास
बलत्कृत एक शरीर मात्र है

मेरा अपराधबोध इतना प्रचंड होकर भी
उस बच्ची को गले लगाने की मेरी झिझक के सामने
कमज़ोर पड़ गया है

गर्मियों में पूनम की रात

गर्मियों की इन पूनम रातों के पास
सुनाने के लिए अक्सर
वैसी कोई भी कहानी नहीं होती
जिनमें गैस से भरे कमरों में रगड़ने के लिए
माचिस की तीली अनुपस्थित हो,
या एक अवास्तविक आकाश के सामने
ताड़ के पेड़ों की तरह
उग्रवादियों द्वारा गोली से मारे जाने के लिए
गाँव के लोग क़तार में न खड़े हों

न तितली के रूपांतरण में निहित
अकेलेपन की कोई कहानी होती है
न दुर्गंध से जन्मी
एक अर्थहीन कविता की कहानी

लेकिन इस कहानी में जो मैं अब कहता हूँ
नायक ने कोई गंभीर अपराध नहीं किया है
केवल छोटे-मोटे अविवेक
या कभी-कभार छोटे-मोटे झूठ

झूठ जो एक बलात्कारी द्वारा
डरी-सहमी बच्ची को मसल दिए जाने पर उठे सवालों के
दुखद और भविष्यसूचक उत्तरों को दबा देता है

इसलिए, इस कहानी का उद्देश्य
साहस के कुछ शब्द ढूँढ़ना मात्र है
यह जानते हुए भी कि बेआवाज़ हम
उन्हें खो सकने में पूरी तरह समर्थ हैं

यह एक ख़ाली मंच पर प्रस्तुत की गई कहानी है
जिसका साक्षी एक भी दर्शक नहीं है
क्योंकि इतिहास एक ऐसे लोहे के स्वप्न में बँधा है
जो क्षरणग्रस्त है

इसकी नायिका वह एक साधारण स्त्री भी हो सकती है
जो अपने घुटनों में सिर घपाए बैठी है
जिसका बच्चा उसकी पिंडलियों के सहारे टिका बैठा है
भूख उसके शक्तिहीन मांस को निगल रही है
फिर भी सीता की वंशावली पर उसका विश्वास अडिग रहता है

इस कहानी में अंतर्निहित कोई अन्य कहानी नहीं है
केवल ‘और कुछ भी न चाहने’ की तीव्र वेदना है,
कोई अधिकार, लालसा या प्रेम नहीं है
वह स्त्री अपनी अंतरतम भावनाओं को
उजागर कर रही है,
अपनी प्यासी परछाइयों को धो रही है,
थकी हुई दादी-नानियों के अधूरे स्वप्न को
आज़ाद कर रही है

तभी पूनम का चाँद
एक साहचर्य की प्रत्याशा धूमिल करता हुआ
थकी हुई नदी के ऊपर धीरे से सो जाता है
एक साहचर्य जो उनके हलक़ में उलझी गुप्त सुबह से
मुक्ति पा लेने का अवसर हो सकता था।

आज

मैं एक ऐसी कविता लिखता हूँ
जिसके शब्द कविता बनने से पहले
टुकड़ा-टुकड़ा बिखरे पड़े मिलते हैं

पीलक पक्षी अब नहीं पुकारता
मैं जानता हूँ कि उसकी पुकार दुबारा नहीं सुन सकूँगा
एक बच्चे की चित्र-पुस्तक में
वह पक्षी अब एक नाम मात्र है

मुझे याद है वह मृत गौरैया
जिसे मैंने एक वसंत की सुबह उठाया था
कैसे उस छोटे से एक दुःख ने
मुझे इंसान बना दिया था

मेरा हृदय जिसे कोई भी ठीक तरह से नहीं समझ सका
वह अपने ही तरह के एक पथराए अकेलेपन में क़ैद है,
वे सभी दृश्य भी जिनके प्रति कभी मैं आसक्त रहा :
बारिश में आपस में गुँथे हुए मेंढकों का प्रेम
देवदार के पेड़ों पर झूलते चमगादड़
और वह अंधकार का रंग
जो प्रकाश को पूरी तरह बुझा सकने में समर्थ था

आओ इस क्षण के ठीक बीच से गुज़रें
इसमें ख़ून, पेंट, पेट्रोल, सीमेंट,
लिपस्टिक और फ़ैक्ट्री के कचरे की गंध है
पेड़ों की मौत की बड़बड़ाहट है।
रोओ बच्चो!
अपने रुदन को प्रतिध्वनित किए बिना
रेशम से ढके इस उनींदे शहर से गुज़रो
इस पृथ्वी की ख़ामोशी को रोओ

उस प्रेम के बारे में

उस प्रेम की
मीलों बारिश में साथ चलने की
अब बस एक थकान बाक़ी है

अब मैं वह अजनबी हूँ
जिसकी शक्ल मेरा शीशा प्रतिबिम्बित करता है
इस क्षण में निहित नीरवता बमुश्किल
शीशे की सतह पर उभर पाती है
अपने आपको
जो किसी अजनबी का भेस धरे
मेरे सामने शीशे में खड़ा है
मैं दया-भाव से देखता हूँ

यहाँ कोई नहीं बचा,
कोई ऐसा नहीं जिसे मैं पहचान सकूँ
जहाँ मैं खड़ा हूँ वहाँ से मुझे
कुछ दिखाई नहीं देता
कितने साल बीत गए
जबसे मैं तुम्हारे बगल में बैठा
बादलों से रिक्त होते आकाश के
अकेलेपन को देख रहा था
उस रिक्तता में तुम्हारे द्वारा
जीवन भर दिए जाने के इंतिजार में

आज़ादी

कभी-कभी, जैसी कि मैं देखता हूँ
ऐसा लगता है कि मेरे देश की देह
नदी में पड़ी कहीं बहती जा रही है
एकाकीपन में, मैं तट पर स्थित
एक लगभग शरीरविहीन बाँस हो जाता हूँ
जिसका निचला हिस्सा अपने आपके
खोखलेपन में ही धँसता जाता है
हठपूर्ण प्रार्थनाओं में समय-समय पर शीश नवाते हुए
बूढ़ी विधवाएँ और मरणासन्न आदमी
यहाँ अपनी आज़ादी को सँजोते हैं
जबकि बच्चे दुनिया को ढंग से जाने बिना ही
उसे बदलने की आज़ादी की इच्छा से कूकते हैं

यहाँ प्रस्तुत कविताएँ अँग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद करने के लिए जयंत महापात्र के कविता-संग्रह Rain of Rites और poemhunter से चुनी गई हैं।


शिवम तोमर से परिचय के लिए यहाँ देखें : आवाज़ लगाने से भी कम होती है दूरी | कविता लिखना दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति को एक साथ एक ही बार में एक मुख़्तसर पत्र लिखने जैसा है

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