चार्ल्स सिमिक की कविताएँ ::
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सत्यार्थ अनिरुद्ध पंकज

चार्ल्स सिमिक | तस्वीर सौजन्य : newyorker

कोयला

वह अपंग फ़रिश्ता
जिसके मन में अब भी धधक रही है धरती,
जिसका चंद्रमा अब भी दो फाँक नहीं हुआ है;
लो तुम्हारी गुज़ारी गई उन लंबी रातों का संदेशा है यह :

इस पल जो कुछ भी मेरी आँखों की ज़द में है :
यह आग, यह खुली हुई अँजुरी, यह खिड़की
और सामने इसके पार के सारे पेड़
और उनके भी पार मीलों दूर तक फैली हुई बर्फ़
यहाँ तक कि यह विचार इस पल का
और यह कविता
सब इकट्ठा होकर जम जाएँगे
नींद के एक ढेले में—
किसी और जागरण के लिए।

हद दर्जे की ग़लती

ओ मरजाने कव्वो!
मत करो काँव-काँव
मत मँडराओ गोल-गोल मेरे सिर पर।

मानता हूँ, अचानक से कभी-कभी
ज़रा-सी भी चेतावनी या आशंका के बग़ैर
मैं ज़रूरत से ज़्यादा ख़ुश हो जाता हूँ।

एक सुबह की बात है,
यों उस दिन धूप नहीं खिली थी
सूली से दिखने वाले दरख़्तों को पार करते
अपनी प्यारी हेलेन के साथ
जो ख़ुद भी एक अजनबी पक्षी है
बाँहों में बाँहों डाले हम सैर कर रहे थे

और हमें लग रहा था एकदम से
हमें जल्दबाज़ी में बुलाया जाएगा
बहुत सादर निमंत्रण के साथ
ख़रबूज़ों के नाश्ते के लिए
पिछली रात गिरी बर्फ़ के फाहों पर
दिगंबर देवताओं की पंगत में।

स्वर्ग की सराय

लाखों मारे गए, जबकि हर कोई निर्दोष था।
मैं अपने कमरे तक महदूद था। राष्ट्राध्यक्ष ने
युद्ध का ऐसा बखान किया
जैसे हो कोई जादुई प्रेम-रस।

मेरी आँखें आश्चर्य से खुली की खुली रह गई थीं।
आईने में मेरा चेहरा ऐसा लगा मुझे
गोया मैं कोई डाक टिकट हूँ
जिसे डाकख़ाने ने दो बार रद्द कर दिया हो।

मैं ठीक से रहा, लेकिन ज़िंदगी भयानक थी।
उस दिन कितने सारे सैनिक थे
और शरणार्थियों की अपार भीड़ थी सड़क पर।
ज़ाहिर है, वे सब मिटा दिए गए
उँगली की एक हरकत से।
इतिहास ने अपने मुँह के ख़ून लगे कोरों को धीरे से चाट लिया।

बिके हुए चैनल पर, एक आदमी और एक औरत
कामातुर चुम्बनों में लीन थे
और एक दूसरे के कपडे फाड़े जा रहे थे
जबकि मैं चुपचाप देखता जा रहा था
आवाज़ बंद कर—कमरे के अँधेरे में
बस स्क्रीन रह-रह चमक उठती थी
जहाँ बहुत ज़्यादा था सुर्ख़ लाल रंग
या ज़रूरत से ज़्यादा रंग गुलाबी।

शीर्षकविहीन कविता

सीसे से पूछा मैंने
क्यों ढलने दिया तुमने ख़ुद को गोली में?
क्या तुम्हें ख़याल नहीं आया कीमियागरों का?
क्या एक दिन सोने में बदल जाने की
सारी उम्मीद तुमने खो दी है?

कोई जवाब नहीं देता—
न सीसा, न गोली
न ऐसे ही नामों वाले और लोग।

बहुत गहरी है नींद
और कितनी लंबी।

सफ़ेद कमरा

मुश्किल है उसे साबित करना
जो साफ़-साफ़ ज़ाहिर है।

बहुतों को वही बेहतर लगता है
जो नुमायाँ नहीं।
मुझे भी। सुना मैंने
पेड़ों को बोलते।

कोई राज़ था उनके पास
जिसे वे कह ही देने वाले थे मुझे
—लेकिन चुप रह गए फिर।

फिर गर्मियाँ आईं। तब मेरी गली का
हर एक पेड़ ख़ुद अपना ही शहरज़ाद था।
मेरी रातें और कुछ नहीं
बस उनकी तकल्लुफ़ क़िस्सागोई का
एक हिस्सा भर थीं।

हम प्रवेश कर रहे थे
अँधेरे बंद घरों में
हर बार और भी अँधेरी इमारत में
जिन्हें छोड़ दिया गया था
जिनकी ज़ुबान हर बार चुप करा दी गई थी
जब भी वे कुछ कहना चाहती थीं।

मैं सो नहीं पाया पूरी रात
इस ख़ौफ़ और विस्मय के मारे
कि ऊपरी मंज़िल पर
बैठा होगा कोई आँखें मूँदे।

लेकिन फिर उस औरत ने कहा
ठंडा और नंगा होता है सच।

सफ़ेद ही कपड़े पहनती थी वह हमेशा
उसने आख़िर तक अपना कमरा नहीं छोड़ा

उस लंबी रात में
अक्षुण्ण बची रह गई
एकाध चीज़ों की तरफ़
सूरज ने इशारा किया।

बेहद मामूली चीज़ें,

अपनी नितांत स्पष्टता की वजह से कठिन।

उन्होंने कोई शोर-शराबा नहीं किया
वह दिन एकदम वैसा था जिसे अक्सर लोग
‘बेहतरीन दिन’ कहते हैं।

ना! क़तई वैसा नहीं
जैसे वे दिन, जब ईश्वर भेष बदल लेता है
बन जाता है कोई कंघी,
जिसकी एक दाँत टूटकर खो गई हो
या एक काला हेयरपिन
कोई दस्ती आईना—
बिल्कुल वैसा नहीं।

बस वैसी जैसी होती हैं चीज़ें
जस की तस
उस उज्ज्वल प्रकाश में
एकटक देखतीं, बेज़ुबान पड़ी हुईं
और पेड़ जैसे रातों का इंतिज़ार करते हुए खड़े निर्विकार।

तरबूज़

उगल देते हैं हम दाँत
खा लेते हैं उनकी मुस्कान
वह बैठे हैं हरित बुद्ध
फलमंडी में बीच दुकान


चार्ल्स सिमिक (1938-2023) सर्बियाई-अमेरिकी कवि-लेखक हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ अँग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद करने के लिए best-poems.net से चुनी गई हैं। सत्यार्थ अनिरुद्ध पंकज हिंदी कवि-लेखक और अनुवादक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : आख़िर क्या बचाए रखता है सच को

1 Comment

  1. Arbind singh जनवरी 23, 2023 at 2:05 अपराह्न

    Behad sundar…

    Reply

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