पूर्णेंदु पत्री की कविताएँ ::
बांग्ला से अनुवाद : सुलोचना वर्मा
एक मुट्ठी जुगनू
एक मुट्ठी जुगनुओं का प्रकाश लेकर
ख़ाली मैदान में जादू दिखा रहा है अंधकार।
एक मुट्ठी जुगनुओं का प्रकाश पाकर
प्रत्येक युवक बन रहे हैं जल-पहाड़
युवतियाँ स्वर्णरेखा।
सँपेरे की टोकरी खुलते ही बाहर निकल पड़े एक मुट्ठी जुगनू
शारदीय पत्रिका के खुलते ही बाहर निकल पड़े एक मुट्ठी जुगनू।
एक मुट्ठी जुगनुओं का प्रकाश लेकर
ख़ाली मैदान में जादू दिखा रहा है अंधकार।
मैदान के मंच पर एक मुट्ठी जुगनुओं को उड़ाकर
जयघोष कर उठे न जाने कौन लोग।
रवींद्र सदन में तीस कवि तीस दिनों तक चलाते रहे
एक मुट्ठी जुगनुओं के संग अपना प्रेम-संबंध।
यूनेस्को की गोल मेज़ को घेर बैठ गई है
गणमान्य व्यक्तियों की सभा
एक मुट्ठी जुगनुओं के प्रकाश में
अफ़्रीका से आसमुद्र हिमाचल समस्त पत्तरघास वन
और दरार वाली दीवारों में
सजा देंगे कोणार्क या एथेंस का भास्कर्य।
सात शताब्दियों का अंधकार इस प्रकार
ख़ाली मैदान में जादू दिखाता आ रहा है
एक मुट्ठी जुगनुओं के प्रकाश में।
जिस टेलीफ़ोन के आने की बात थी
जिस टेलीफ़ोन के आने की बात थी
वह टेलीफ़ोन आया नहीं।
लंबी प्रतीक्षा में
सूर्य डूबता है रक्तपात में
सब बुझाकर अकेला है आकाश अपने ख़ाली बिस्तर में।
एकांत में जिसके हँसने की बात थी, वह हँसा नहीं।
जिस टेलीफ़ोन के आने की बात थी
वह टेलीफ़ोन आया नहीं।
अपेक्षारत सीने के अंदर काँसे का घंटा शंख की उलुध्वनी
एक सौ वन की हवाएँ आकर एक पेड़ में मचा रही हैं खलबली
लगता है जैसे आज उसका मन है
आलिंगन के लिए पास बुलाएगी
झील के बाद खो जाने के लिए,
तैरने वाले जल के पागल नृत्य में।
क्या अब भी बुलावे की सज्जा में सजी नहीं?
जिस टेलीफ़ोन के बजने की बात थी बजा नहीं।
तृष्णा जैसे जल की एक बूँद, बढ़ते-बढ़ते बारिश बादल
तृष्णा जैसे अगरबत्ती, गंध से आँकती है सुख का आदल
ख़ाली मन का सब कुछ है ख़ाली
मृत नदी का बलुआ पाँक
हालाँकि घर द्वार हर जगह तृष्णा बजाती है ताली।
प्रतीक्षा इसलिए है प्रहरविहीन
आजीवन और सर्वजनीन
सरोवर तो है सभी के सीने में ही,
कमल केवल पर्दानशीन।
स्वप्न को देता है सर्वशरीर,
सामने वह तैरता नहीं।
जिस टेलीफ़ोन के आने की बात हो,
अमूमन आता नहीं।
स्रोतस्विनी है, सेतु नहीं
तुमने कहा, धूप में जाओ, धूप में तो गया
तुमने कहा, अग्निकुंड जलाओ, जलाया।
समस्त संचित सुख—तुमने कहा, अच्छा रहेगा बेच देना
मैंने किया नीलाम।
फिर भी मैं हूँ अकेला।
मुझे किया है तुमने अकेला।
एकाकीत्व में भी तोड़-ताड़ कर सौ टुकड़े कर
बीज रोपने की तरह छिड़का है जल-स्थल में।
तुमने कहा था इसलिए साज-सज्जा छोड़ी, उन्हें फेंका।
जो अरण्य दिखाया तुमने, उसी की डाल को काटा, खोदा।
जब भी फैलाया हाथ तुमने, मैंने उड़ेला प्राण
फिर भी मैं हूँ अकेला।
फिर भी मेरी कोई नहीं हो तुम
मैं भी तुम्हारा कोई नहीं।
हमारे आभ्यंतर में स्रोतस्विनी है, सेतु नहीं।
कथोपकथन
कल नहीं आई, आज चला गया दिन
अब बादल छाए हैं, बारिश दूर है!
भीषण बारिश, डूब जाएगा कोलकाता
क्या तुम अब भी ढूँढ़ रही हो नेल पॉलिश?
साड़ी पहनी थी? तो क्यों नहीं आई?
जूती फटी हुई थी? जूती फटी हुई थी क्या?
काजल नहीं था? क्या होगा काजल लगाकर?
तुम्हारी आँखों के हिरण को मैं पहचानता हूँ।
कल नहीं आई, आज चला गया दिन
अब गोधूलि है, अभी बुर्क़ा पहनकर
कोलकाता डूब जाएगा प्रगाढ़ हिम में।
क्या तुम अब भी ढूँढ़ रही हो सेफ़्टी पिन?
सरोद बजाना आता
मेरे ऐसे कुछ दुःख हैं
जिनका नाम है तिलक कामोद
ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं जो हैं सिंधुभैरवी
जयजयवंती की तरह बहुत ज़ख़्म रह गए हैं
भीतर की दीवार पर
कुछ-कुछ अभिमान
यमनकल्याण।
सरोद बजाना आता तो बहुत अच्छा होता।
पुरुष कैसे रोते हैं केवल वही जानता है।
क़ालीन से सजे प्रिय अंतःपुर में घुस आया है जल।
मुहुर्मुहुः डूब जाती है नाव, बह जाता है विरोधी लंगर।
पृथ्वी के समस्त प्रेमियों के जलयान डूब गए हैं जहाँ
वहाँ नारी के समान कमल खिले रहते हैं।
जल हँसता है, जल उसके चूड़ी पहने हाथों में,
नर्तकी की तरह नाचकर घूम-घूमकर घाघरे के आक्रमण से
सब कुछ छीन लेता है, छीन कर फिर से भर देता है
बासी हो चुके सीने में कमल-गंध, खुले बाग़ में।
यह अपूर्व ध्वंस, ज़ंग लगे घर द्वार में दबा यह
चूना
दरबारी कान्हड़ा इसी का नाम है?
सरोद बजाना आता तो बहुत अच्छा होता।
पुरुष कैसे रोते हैं केवल वही जानता है।
यहाँ प्रस्तुत सभी कविताएँ ‘परिंदे’ (जून-जुलाई 2023) में पूर्व-प्रकाशित, वहीं से साभार
पूर्णेंदु पत्री (1933–1997) एक बंगाली कवि, लेखक, संपादक, कलाकार, चित्रकार और फ़िल्म निर्देशक हैं। उन्हें उनकी कविताओं और कहानियों के लिए जाना जाता हैं, विशेष रूप से उनके कविता-संग्रह ‘कथोपकथन’ के लिए, और पुस्तक कवर डिजाइन के साथ उनके प्रयोग के लिए। वह कोलकाता के इतिहास के शोधकर्ता भी थे। सुलोचना वर्मा (जन्म : 1978) सुपरिचित हिंदी लेखिका और अनुवादक हैं। उनकी कहानियों और कविताओं के एक-एक संग्रह प्रकाशित हैं। ‘नायिका’ (उपन्यास) उनकी नवीनतम पुस्तक है। उन्होंने बांग्ला से हिंदी में पर्याप्त, महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय अनुवाद-कार्य किया है। उनसे verma.sulochana@gmail.com पर बात की जा सकती है। ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व-प्रकाशित उनके अनुवाद-कार्य के लिए यहाँ देखें : समग्र जीवन रहो कथाहीन होकर | आगामी वसंत में हो सकता हूँ मैं और भी अधिक नष्ट