कविताएं ::
कैलाश मनहर
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यादों के मौसम
यादों के मौसम में
पतझड़ भी फूल खिलाता आता है
वसंत में भी झड़ने लगते हैं
पीले और भूरे पत्ते
यादों के मौसम में
सर्दी भी पसीना-पसीना कर देती है
बारिशों में भी
आंखें सूखी-सूखी पड़ने लगती हैं
यादों के मौसम में
गर्मी भी सिहरा देती है भीतर तक
भूलने की फसल बहुत बेहतर लगती है
कहानियों में भी होने लगता है
सच का-सा भ्रम
यादों के मौसम में
शर्म थी
बहुत फीकी और बदरंग
शर्म थी
घिनौनी और दुर्गंधित
शर्म थी
लचीली और उड़ती-सी
शर्म थी
बहुत दिखावटी और दंभपूर्ण
उफ्फ!
बहुत गजब की थी
उसकी शर्म
कि शर्माने लगीं तमाम
बेशर्मियां
अर्थ में
शून्य की तरह आया
और व्यर्थ में
संपूर्ण की तरह गुजर गया
स्त्री के बारे में
किसी अंधेरे कमरे में
सीलन भरे कोने की
ठंडी दीवार से बात करते हुए
जो स्त्री रो रही है
क्या कोई उस स्त्री के बारे में जानता है?
जो उसके बारे में नहीं जानता
वह अपनी मां के बारे में क्या जानता है
और पत्नी के बारे में
वह शायद ही जानता है
अपनी बहिन और बेटी के बारे में
जो एकांत में बिलखती स्त्री के बारे में
कुछ नहीं जानता
वह धरती के बारे में क्या जानता है?
कविता
नींद और उनींद के बीच
किसी उबासी में से निकलकर
नाम और ईनाम की
गुत्थियों के जाल में फंसती रही
और बिगड़े हुए रूप पर अपने ही
अवसाद और उन्माद के
अंधेरों और चकाचौंध में
कभी रोती कभी हंसती रही
पराजितों की उम्मीद बनना चाहती थी वह
लेकिन विजेताओं ने अपने अहंकार के मुकुट में
हीरे की तरह जड़ लिया उसे
***
कैलाश मनहर के पांच कविता-संग्रह प्रकाशित हैं. वह जयपुर के नजदीक मनोहरपुर में रहते हैं. उनसे manhar.kailash@gmail.com पर बात की जा सकती है. उनकी तस्वीरें अमित हरित के सौजन्य से.