आलेहांद्रा पिज़ारनीक की कविताएं ::
अनुवाद : रीनू तलवाड़

Alejandra Pizarnik
आलेहांद्रा पिज़ारनीक

[…] मौन पर

...चूंकि वह सब है किसी ऐसी भाषा में जिसे मैं नहीं जानती.

—ल्यूइस कैरल, थ्रू द लुकिंग ग्लास

मैं सुनती हूं दुनिया का सिसकना एक विदेशी भाषा की तरह.

—सेसीलिया मेइरेलीज़

इस भूमिका को निभाने के लिए वे प्रवासी हो गए.

—ओंरी मीशो

किसी ने मार डाला है कुछ .

—ल्यूइस कैरल, थ्रू द लुकिंग ग्लास

एक

यह छोटी नीली गुड़िया दुनिया में मेरी दूत है.
बगीचे में हो रही बारिश में, जहां एक लाइलैक रंग का पंछी भकोस जाता है
लाइलैक के फूल और एक गुलाबी रंग का पंछी डकार जाता है गुलाबों को, वह अनाथ है.

मुझे डर लगता है सलेटी भेड़िए से जो घात लगाए बैठा है बारिश में.

जो कुछ भी तुम देखते हो, जो कुछ भी यहां से ले जाया जा सकता है, वह अकथनीय है.
शब्दों ने कर दी है बंद चटखनी सभी दरवाजों की.

मुझे याद है यहां-वहां भटकना गूलर के पेड़ों तले…
मगर मैं नहीं रोक पाती हूं स्वांग – मेरी छोटी-सी गुड़िया के दिल के नन्हे कक्षों में भर जाती है गैस

मैंने असंभव को जिया है, असंभव द्वारा ही नष्ट होते-होते

ओह, मेरे दुष्ट आवेगों की तुच्छता,
जो वशीभूत है प्राचीन स्नेहशीलता के

दो

अब हरे रंग से कोई नहीं रंगता.
सब कुछ नारंगी है.
अगर मैं कुछ हूं, तो मैं क्रूरता हूं.
मौन आकाश पर छिटके हुए हैं रंग सड़ते हुए जानवरों की तरह. फिर आकारों, रंगों, कड़वाहट और स्पष्टता से करता है कोई प्रयास कविता रचने का (शांत, आलेहांद्रा, बच्चे डर जाएंगे…)

तीन

कविता विस्तार है और वह घाव छोड़ जाती है.

मैं नहीं हूं अपनी छोटी नीली गुड़िया-सी जो अभी तक करती है पंछियों के स्तनों से पान.

स्मृति तुम्हारी आवाज की… उस जानलेवा सुबह में जब सूरज था पहरेदार और कछुओं की आंखों से टकरा-टकरा कर लौटती थी उसकी छवि.

तुम्हारी आवाज को याद करते-करते बुझ जाती है समझ की बाती इस दिव्य हरे मिलन के सामने, ये समुद्र और आकाश का बाहुपाश.

और मैं अपनी मृत्यु की तैयारी करती हूं.

***

यहां प्रस्तुत कविताएं आलेहांद्रा पिज़ारनीक की कविताओं की किताब Extracting the stone of madness से Yvette Siegert के अंग्रेजी अनुवाद पर आधृत हैं. इस किताब में पिज़ारनीक की 1962 से 1972 के दरमियान लिखी गई कविताएं संकलित हैं. रीनू तलवाड़ सुपरिचित हिंदी लेखिका, अनुवादक और अध्येता हैं. चंडीगढ़ में रहती हैं. उनसे reenutalwar@gmail.com पर बात की जा सकती है. यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 18वें अंक में पूर्व-प्रकाशित.

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *