डोरिस कारेवा की कविताएँ ::
अँग्रेज़ी से अनुवाद और प्रस्तुति : रुस्तम
डोरिस कारेवा (जन्म : 1958) इस्टोनिया की सबसे महत्त्वपूर्ण कवियों में हैं। उनका जन्म ताल्लिन्न में हुआ था। अब तक उनके पंद्रह कविता-संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त उनकी दो और पुस्तकें भी प्रकाशित हैं जिनमें से एक उनके लेखों का संग्रह है। उनकी कविताएँ अब तक विश्व की बीस भाषाओं में अनूदित हुई हैं। उन्होंने अन्ना अख़्मातोवा, एमिली ब्रॉण्टे, एमिली डिकिन्सन, कबीर और रूमी की कविताओं का इस्टोनियन भाषा में अनुवाद किया है। 1992 से 2008 तक वह इस्टोनियन नेशनल कमीशन फ़ॉर यूनेस्को की सेक्रेटरी जनरल रहीं। 2001 में उन्हें इस्टोनियन ऑर्डर ऑफ़ द वाइट स्टार प्रदान किया गया। उनकी कविताओं के दो संग्रह अँग्रेज़ी में भी प्रकाशित हैं। यहाँ प्रस्तुत अनुवाद-कार्य मिरियम मेकइलफ़तरिक-सेनोफ़ोनतोव और टीना अलेमान के अँग्रेज़ी अनुवादों पर आधृत है तथा कवि की उपस्थिति में संपन्न हुआ है।
ईश्वर घटित होता है।
तितली के पंख पर
संसार का चित्राक्षर।
*
बालू को बादलों की चिट्ठी :
छायाएँ
धीरे-धीरे
ग़ायब हो जाती हैं।
हमारी दूसरी ओर
दिन बना हुआ है।
*
ऐसा लगता है कि वह घड़ी आएगी
जब ज़रूरी होगा
किसी चीज़ को पहचानना,
किसी चीज़ को बदलना—
ख़ासकर अपने आप में,
कुछ करना
ताकि ज़मीन पर रोशनी हो।
*
मैंने सपने में देखा कि शैतान
तुम्हारे स्वर में बोल रहा था।
धीरे-धीरे सब कुछ ढह रहा था।
उसने मुझे काँच का एक पात्र दिया
और कहा, “देखो,
यह मृत्यु है।”
*
एक रात-उजले कमरे में हवा खिलती है।
दबी आवाज़ में, आँखें मुँदी हुईं,
वे बातचीत करते हैं—दो फ़रिश्ते—
एक कौंधती तलवार के ऊपर।
दर्पण-भाषा,
अविचल छितराया हुआ मौन,
अडिग
जीव-विकास।
*
जीवन के बीचों-बीच मृत्यु का एक पत्थर उड़ता है,
जो पानी को एक वृत्त में चौंका देता है।
दिनों-दिन पहले से ज़्यादा गहराई और स्पष्टता में
मैंने तुम्हें देखा है।
तुम—उससे भी ज़्यादा मैं जितनी मैं ख़ुद हूँ।
मानवीय, प्रकाशमान सगोत्र सहआत्मा।
मृत्यु की चकाचौंध में से गुज़रते हुए
मैंने महसूस किया है तुम्हें।
*
मेरे पिता के पिआनो पर
बारीक चाक़ू और ताल-घड़ी
अपने दरमियान
एक चुप्पी रखते थे
जब मैं बच्ची थी।
सिर्फ़ अब, इतने वक़्त बाद,
मैंने शुरू किया है सुनना और समझना
उनकी विचित्र कथाओं को।
वे वक़्त को पतले-पतले टुकड़ों में तराश देते हैं।
*
घड़ी चलती है
घर के अंदर चहुँ ओर
और समय-समय पर रुकती है
किसी सोने वाले के पैताने पर।
मैं बंद रखती हूँ अपनी आँखें,
और साँस नहीं लेती।
उसके हाथ पैने हो सकते हैं।
जैसा कि साबित कर देगा
किसी भी नाना-दादा का चेहरा।
*
प्रेम
तेज़ी से बदलती राहों पर चलता है,
फिर भी उसकी आत्मा
लगभग हर चीज़ में
स्वप्न में डूबी हुई लगती है
जिसे तुम छूते हो।
धीमे से
नन्हा बीज
आकाश की ओर खुलता है,
उसका चेहरा
सूरज के सम्मोहन में बँधा हुआ।
सारी प्रवृत्तियों में
यह सबसे गहरी लगती है।
*
अँधियारे में एक पंजा बढ़ता है
बहाव को टटोलने।
कहना मुश्किल है
क्या चिपटा रहेगा लालसा से।
कच्चे, खुरदरी धार वाले शब्द,
तेज़, रूखे और अनुवाद से परे,
मेज़ से शहतीरों तक।
वहीं लेटे रहो, निश्शब्द,
अँधियारे का ख़ून भरा थूक निगल लो।
*
जो पीड़ाएँ
हमें पकड़ लेती हैं
देर-सबेर
उनमें से हम चुन लेते हैं किसी को
और उसे बहने देते हैं अपने भीतर से
और गढ़ने देते हैं
हमारी आत्मा को।
यही है हमारी नियति,
ख़ुद को गढ़ती हुई पीड़ा,
जो हमारे अंतर्तम का
सार और रूप है।
*
हर वस्तु जिसकी तुम्हें ज़रूरत है
इस या उस छिपे हुए रूप में
तुम्हारे पास आएगी।
यदि तुम उसे पहचान लोगे
वह तुम्हारी हो जाएगी।
हर वस्तु जिसे तुम चाहते हो
वह तुम्हारे पास आएगी,
वह तुम्हें भीतर-बाहर से पूरी तरह जानती होगी।
साँस लो, दस तक गिनो।
क़ीमत बाद में उजागर होगी।
*
यदि पतझड़ को अंतिम क्षण तक
सहा जाए,
तब वसंत आएगा मुझे विश्वास है।
वृक्ष जो अभी हमारी उदासी पर
निगरानी रख रहे हैं, फिर खुल जाएँगे
उजाले के चमत्कार के लिए।
वहाँ, उन बड़ी पत्तियों के नीचे
हम मिलेंगे,
मेरे प्यार।
*
जीवन एक चीज़ सिखाता है और एक अन्य,
परंतु तीसरी का अनुभव कैसे करें?
विचार वहाँ नहीं पहुँचता,
सड़क वहाँ ले जाती नहीं।
मन के दर्पण की विशुद्धता में
घट सकता है यह।
वसंत में बिजली की तरह
स्पष्टता कौंधती है :
अब यह यह है।
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सप्त स्वर
एक
मेरे बारे में मत सोचो।
मैं तो बस एक स्वप्न थी।
सत्य की गहराइयों में एक चमक।
जिस चीज़ का महत्त्व है वह यह है कि तुम्हें क्या मिला।
दो
बारिश, क्या तुम बारिश ही होती हो
जब तुम गिरती नहीं?
स्वप्न, क्या तुम स्वप्न ही होते हो
तुम्हें जब कोई नहीं देखता?
धुँध में दबे
नंगे और मूक पहाड़ पर
ये किसकी पदचापें हैं?
सुनने वाला सोचता है।
चलने वाले का मन बहकता है।
सुनने वाले के स्वप्न में से रिसती है
पदचापों की फुहार—
कल्पतरु के पत्तों-सी।
ख़ामोशी बोलता है ईश्वर।
बाक़ी सब ख़राब अनुवाद है।
क्या यह मैंने पढ़ा था
या किसी स्वप्न ने इसे कहा था?
शायद कोई कुत्ता भौंका था।
शायद रूमी बोले थे।
रुस्तम (जन्म : 1955) कवि, दार्शनिक और अनुवादक हैं। अब तक उनके पाँच कविता-संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें एक संग्रह किशोरों के लिए कविताओं का है। अँग्रेज़ी में भी उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं। वह भोपाल में रहते हैं। उनसे rustamsingh1@gmail.com पर बात की जा सकती है। इस प्रस्तुति से पूर्व ‘सदानीरा’ पर उनकी डायरी और कविताएँ और तस्वीरें प्रकाशित हो चुकी हैं। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 23वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।