तारा पटेल की कविताएँ ::
अँग्रेज़ी से अनुवाद और प्रस्तुति : रंजना मिश्र
जन्म : 1949, मुंबई
तालीम : मुंबई और मलेशिया
कार्य : पत्रकारिता
इसके अतिरिक्त, इससे ज़्यादा जानकारी तारा पटेल के बारे में फ़िलहाल उपलब्ध नहीं है कि उन्होंने अँग्रेज़ी में कविताएँ लिखीं और उनकी कविताओं की पहली किताब ‘सिंगल वीमेन’ शीर्षक से वर्ष 1991 में रूपा पब्लिकेशंस से प्रकाशित हुई। संचारतत्पर इस युग में तारा पटेल के बारे में इतना और पता चलता है कि यूनिस डी’सूज़ा द्वारा संपादित और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा वर्ष 1997 में प्रकाशित किताब ‘नाइन इंडियन वीमेन पोएट्स’ में उनकी छह कविताएँ और संक्षिप्त परिचय है। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ हिंदी अनुवाद के लिए इस पुस्तक से ही ली गई हैं।
इंटरनेट जब अब हमारे जीवन के कमोबेश हर हिस्से में घुसपैठ कर चुका है; एक कवि का गुमशुदा हो जाना, उसकी एक तस्वीर तक का न मिलना… संभवत: कवि का ही चुनाव है, यों माना जा सकता है।
दरअसल, तारा पटेल भी ख़ुद को कवि नहीं मानतीं; लेकिन उनकी कविताएँ विरल और विशुद्ध रचनात्मकता के उन क्षणों की उपज हैं जो महानगरीय जीवन की भागमभाग में मुश्किल से मुमकिन होते हैं। उनकी कविताओं का शिल्प कसा हुआ और सुस्पष्ट है। उनकी अभिव्यक्ति बेहद ईमानदार, संवेदनमय, गझिन, कोमल और एकाकी है। इन कविताओं में समाज और रिश्तों पर सूक्ष्म व्यंग्य भी पूरी सघनता से उपस्थित है।
तारा पटेल की कविताओं की पृष्ठभूमि संभवतः 70-80 के दशक की मुंबई का परिवेश (350 रुपए में वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में जगह शायद 70-80 के दशक में ही मिलती होगी) या अन्य महानगरों में व्याप्त अकेलापन, संघर्ष, रिश्तों की असफलता, बेरोज़गारी से संघर्ष का यथार्थ और उससे उपजी थकान है। यह वह स्थिति है जिसे प्रत्येक व्यक्ति भोगने को बाध्य है, पर संवेदनशील व्यक्ति इससे कहीं अधिक गहराई से जूझता है और इस दृष्टि से यहाँ प्रस्तुत कविताएँ ‘स्त्री-कविता’ स्वर की सीमा से परे निकलती हैं।
ये कविताएँ इस बात की ओर भी इशारा करती हैं कि कैसे महानगर में स्त्री और पुरुष के संघर्ष समान हैं, पर स्त्री की घुटन और संत्रास पुरुष की तुलना में कहीं अधिक है। यहाँ ऊँची बालकनियों और छतों वाले समाज की दृष्टि अकेले पुरुष के अस्तित्व को इस तरह नहीं चिन्हित करती, जैसी अकेली स्त्री की उपस्थिति को। कई बार ये कविताएँ अवसाद की सीमा को छूने तक जाती हैं।
अस्सी के दशक की स्त्री-स्वतंत्रता के बरअक्स खड़ीं ये कविताएँ बताती हैं कि अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद स्त्री की कंडीशनिंग उसे कैसे दोराहे पर ला खड़ा करती है, जहाँ से कोई एक रास्ता चुनना आसान नहीं होता। यह स्त्री-पुरुष संबंधों के मर्म तक पहुँचने का प्रयत्न है, जहाँ बराबरी का दर्जा स्वतः ही आता है। इसके लिए स्त्री का स्त्री और पुरुष का पुरुष होना और साथ ही समय-समय पर अपनी भूमिका में बदलाव करते रहना ही बहुत है।
इस नज़र से ये कविताएँ अपने समय की स्त्री-स्वतंत्रता की रूढ़िगत और घिसी-पिटी सीमाओं के परे जाकर एक ईमानदार स्वर रचती हैं, जो पारंपरिक अर्थ में स्त्रीवादी न होते हुए भी उसे अनोखे अर्थ में प्रतिस्थापित करने के साथ; उसके दोहरे मापदंड की आँखों में आँखें मिलाने से बाज़ नहीं आतीं।
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बंबई में
समय बेरोज़गारी में भी बीत ही जाता है।
गर्मियों के बाद लगातार चलती बारिश का एकालाप
इन सबमें पेशेवर होने का आभास है
मैं उतनी ही बार रोज़गार में रही हूँ
जितनी बार बेरोज़गार
दुहराव इसे आसान नहीं बनाता।
शुरू में व्यक्ति घर छोड़ता है
सुबह के समय हमेशा की मानिंद
दिखावे बढ़ते हैं, काल्पनिक साक्षात्कारों की संख्या
वास्तविक साक्षात्कारों से कहीं ज़्यादा है
साक्षात्कारों की प्रतीक्षा करना
अपने आपमें एक परीक्षा है।
बेरोज़गारी में, हम बेरोजगारों को ही
मित्र बनाते हैं
उन रोज़गार कार्यालयों में
जहाँ चुप्पियाँ स्पष्ट हैं
बेरोज़गार आपा खोने की हिम्मत नहीं कर सकते।
दुपहरें नियत हैं प्रदर्शनियों,
पुस्तकालयों, किताबों की दुकानों के लिए।
फ़िल्में। आज दूसरी बार ‘अन्टिल द डार्क’ थी।
एक बाहरी व्यक्ति हूँ मैं कॉलेज के छात्रों से भरे
सिनेमा हॉल में।
लड़के मुलम्मे चढ़ी हाज़िरजवाबी और लड़कियाँ ‘चूजी चेरी’ होंठों और
महँगी आँखों के साथ ख़ुश गुड़ियाएँ हैं
मेरी कलई चढ़ी उपस्थिति उस चित्र को
बिगाड़ती है।
बेरोज़गार होने पर, ख़र्च करने की,
सब कुछ अधिकता में करने की ज़रूरत, ज़रूर ही बढ़ जाती है
कोसना आसान होता है जब सौ रुपए का नोट
खो जाता है या चुरा लिया जाता है
वह ईश्वर है जो ऐसा और वैसा है।
बेरोज़गार लोग सोने की कोशिश करते हैं
दिन के किसी भी समय।
औरत
औरत की ज़िंदगी एक चाबुक की मार का जवाब है।
जब वह उसके चारों तरफ़ सीटियाँ बजा रहा होता है, वह उसे
चकमा देना सीखती है
पर कभी-कभी वह उसकी गाढ़ी,
तोड़ी-मरोड़ी तुरपाई की हुई स्मृति पर भी पड़ता है
अतीत में सीखे हुए सबक़ की याद दिलाता
तब वह बग़ावत में अपना चेहरा
उन कोड़ों की तरफ़ कर लेती है
जब तक कि पीड़ा
प्रतिशोध की उमड़ती नदी में न बदल जाए
वह भाग खड़ी हुई है किसी भगोड़े अपराधी,
शरणार्थी
या योगी की तरह
सभ्यता के बीहड़ जंगलों में
अपनी गाढ़ी, तोड़ी-मरोड़ी, तुरपाई की हुई स्मृति के तल में
रहने के लिए
वह स्वप्न देखती है
किसी शिशु-सी कोमल त्वचा के चुंबनों से छुए जाने का।
कलंगूट बीच, गोवा
हॉवर्ड के लिए
दो दिन की छुट्टी के बाद
आँखों में हरा और नीला रंग लिए हुए
चीनी मिट्टी की गुड़िया जैसे चेहरे वाले जर्मन—
ड्रेस्डन के बदले एक अमेरिकी
मेरे दिमाग़ में यादगार तस्वीर-सा टँगा रहता है।
जब हम मिले तो उसकी ‘हेलो’ त्वरित थी
मेरी ज़रा धीमी
उसके शरीर का पके हुए नारियल के तेल-सा रंग।
दुपहर के खाने के बाद हम देर तक बतियाते रहे
पूरब और पश्चिम के बारे चर्चा करते हुए
मैंने उसका नाम पूछा
उसने मेरा नहीं
भारतीय समाचार पत्रों के वैवाहिक विज्ञापन
उसे मज़ेदार लगते हैं
नग्न तैराकी का उसका आमंत्रण
अस्वीकार कर दिया गया
एक लंबी भूरी निगाह, मेरे संकोच का अकेलापन
चिन्हित करती रही।
हम दोनों जानते थे
मनुहार का समय नहीं था
जिसकी मुझे ज़रूरत थी
मुझे उसके साथ सूरज की शराब का साझा करने जाना चाहिए था
ऐसे मर्द की बाँहों में दुपहर
हमेशा के लिए ठहर जाती होगी।
अलविदा एक आलिंगन हो सकता है और
‘औरतों की स्वतंत्रता भारत में सिर्फ़ ऊपरी सतह पर है, बेबी’
हफ़्तों तक मैं सोच में डूबी रही
वह एक बढ़ता हुआ अफ़सोस है
बुझती और जलती एक लाल बत्ती
मुझे उन मर्दों की याद दिलाती
जिनके ख़तरे उठाने को मैं तैयार नहीं।
कामकाजी महिलाओं के हॉस्टल में
एक
शाम ज्वार का एहसास है
मैं भागती हूँ। शहर से बारह माले ऊपर
छत मेरी बढ़िया खुली जगह है
तीन सौ पचास रुपए महीने ईश्वर से मिलने की क़ीमत हरगिज़ ज़्यादा नहीं।
कहीं दूर गगनचुंबी इमारतों की आकाशीय रेखा
मैं चहलक़दमी करती हूँ। एक बिना पेशे की तपस्विन!
क्या मैं अकेली हूँ? या मैं एकाकी हूँ? अंतर
जल्द ही समझना होगा अब
मेरा निजी संवाद देखा जा रहा है
ऊँची बालकनियों और छतों के ऊपर से।
सूरज ब्याह की अंतिम तैयारियों में, मेहँदी के रंग-सा रँगा क्षितिज
बिखरे आई शैडो से बादल
भड़कीले ढंग से सितारों से होड़ लेते रौशनी के पैबंद
उगता हुआ पूरा चाँद जानी-पहचानी कथा कहता है
हवा का झोंका घुरघुराता हुआ डर जगाता है, मैं लड़खडाती हूँ
रूपहले पंख फड़फड़ाते हैं उन्मादी ज़मीन पर
दूर समुद्र मेरे कानों में आर्त्तनाद करता है।
यहाँ ऊपर, उड़ान एक ख़तरनाक भ्रम है
रुदन शाश्वत तर्क। मैं
अपने कमरे में लौट आती हूँ।
दो
रात को जाग पड़ना बढ़ती उम्र की निशानी है
मैं अपने कंबल के गर्म मौसम को परे फेंक देती हूँ
अपनी जाँघों और वक्ष को छूना
एक शर्मिंदगी ही है
जाड़े की ठिठुरन में मैं याचना-भाव से गुड़ीमुड़ी हो जाती हूँ
ख़ुद को बेहतर ढंग से सुनने के लिए।
अपनी स्वीकारोक्तियाँ सुनना
घटिया क़िस्म का वक़्त गुज़ारने का साधन है
मैं अकेली औरत वाली अदालत की तरह काम करती हूँ
अपनी ज़िंदगी मैंने काले लिफ़ाफ़ों में बंद कर रखी है
जो किसी को संबोधित नहीं
‘गोपनीय। यह उस मर्द का अपूर्ण ख़ाका है
जिसे तुम आज रात और हर रात चाहती हो’
‘एक औरत ख़ुद को पाल सकती है, प्रेम की शुरुआत मर्द के साथ होती है’
आदि-इत्यादि। हड्डियों का रंग
मेरे बालों में है अब
और मैं एक ठहराव पर हूँ
हर बीतते हुए दिन में,
मृत्यु के बाद की छुअन है।
अनुरोध
कभी-कभी पुराने दिनों की ख़ातिर
तुम्हें मेरी तरफ़ झाँकना चाहिए
मेरे साथ खाना खाओ, भुगतान मैं करूँगी
तुम्हें मैं कितना कम जानती हूँ
हालाँकि मैं तुम्हें प्यार करती रही
लंबे समय तक
और अब भी करती हूँ पुराने दिनों की ख़ातिर।
तुम मुझे पूरी तरह भुला नहीं सकते।
मुझे थोड़ा याद करो और मिलो कभी मुझसे
कभी-कभार बढ़िया भोजन के लिए
अतीत को पूरी तरह नकार मत दो
मेरा मन रखो।
इसलिए नहीं कि मैं तुम्हें शर्मिंदा करना चाहती हूँ
तुम्हारे प्यार की कमी अब मुझे
दुःख नहीं देती
मैं अब उस अंधी भावना की ग़ुलाम नहीं
जो सब कुछ का और कुछ भी नहीं का वादा करती है
चिरयुवा होना पड़ता है,
ऐसा प्यार करने के लिए।
मैं तुम्हें उबाऊँगी नहीं उन तफ़सीलों से
कि तुम्हारे जाने के बाद महीनों मैं किस तरह रही
पर चूँकि मैं एक पुरानी ख़ुशी के लिए ललक रही हूँ
मेरे साथ खाना खाओ किसी एक दिन
मैं तुम्हें सबसे ज़्यादा याद करती हूँ अकेले खाते समय।
कभी-कभी आदमी को औरत की तरफ़ देखना चाहिए
पुराने दिनों की ख़ातिर
उन वजहों के लिए जो पुरानी पड़ चुकी वजहों से अलग हैं
मेरे साथ खाना खाओ
भुगतान मैं करूँगी।
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रंजना मिश्र हिंदी कवयित्री और अनुवादक हैं। वह पुणे में रहती हैं। उनसे ranjanamisra4@gmail.com पर बात की जा सकती है। इस प्रस्तुति से पूर्व वह ‘सदानीरा’ के लिए चार्ल्स बुकोवस्की की कविताओं और ई. ई. कमिंग्स के उद्धरणों के अनुवाद प्रस्तुत कर चुकी हैं। इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज़ : Matt Schwartz