कविताएँ ::
प्रफुल्ल शिलेदार
समुद्र
समुद्र बाज़ू में ही है
बहुत मोटी खाल चढ़ी है
उसके पूरे बदन पर
बड़ी मुश्किल से करवट बदल रहा है
उदास दिख रहा है
इमारतों की सलाख़ें मज़बूत पकड़ कर
घूर कर देख रहा है
दम घुट रहा है इसलिए
भाटे का हाथ थाम कर
भीतर भागने को देख रहा है
समुद्र बस उस पार है
अंधाधुंध दौड़ती
गाड़ियों के कोलाहल में
उसकी दुखभरी कराहें
कभी सुनाई ही नहीं दीं
गेटवे ऑफ़ इंडिया
आधी रात का शांत समुद्र
नीरव चकाचौंध
सीलन भरी गर्म हवा
मज़बूत पत्थर की दीवारों को
थपेड़े देता समुद्र
सुस्ताई सफ़ेद मोटर बोट्स
थकी-सी नावें
दूरी पर धीमी गति से सरकते जहाज़
काले घने समुद्र की छोटी-छोटी लहरों की छप-छप आवाज़
आँखों में रात का भारीपन
पूरे शरीर में घुला हुआ दीयों का ताम्बई रंग
हमेशा का भीना दृश्य निहारती
किनारे के रास्ते से सटी
ख़ानदानी इमारतें
और उनमे लगे हुसैन-रज़ा-गायतोंडे के चित्र
चमचमाते गेटवे से
इस भूमि पर पाँव रौंदते प्रवेश करता है
किंग जॉर्ज पंचम और
उसके पीछे से अपना चोग़ा सँभालती क्वीन मैरी
उपनिवेश के ख़लीते पर
अपने पाँव के जूते से
मुहर लगाता है
और मज़बूत पकड़ लेकर बैठ जाता है
दो सदियाँ बीत गई इसे यहाँ आते हुए
इसकी पूरी पलटन इसी गुम्बद के नीचे से लौटी गई
लेकिन ये तो यहाँ से हटने का
नाम तक नहीं ले रहा है
केक
देख लिया ना
देख ना
देख-देख
मुँह में पानी आया गया ना
बहुत टेस्टी है ये केक
वैसे हाथ मत लगाना इसे
मिलेगा ना
उसका एक टुकड़ा ज़रूर मिलेगा
लेकिन यूँ ही कैसे मिलेगा
कुछ तो करना पड़ेगा ना तुम्हें
देखो-देखो सोचो
टुकड़ा पाने के लिए क्या किया जा सकता है
लेकिन तुम्हें कुछ सूझेगा भी नहीं
हमें ही बताना पड़ेगा
कि तुम क्या कर सकते हो
हम देखते आए हैं तुम्हें कब से
चारों तरफ़ ध्यान रहता है हमारा
हम बताएँगे और तुम करोगे
फिर से बता रहे हैं हम
बताने के बाद
काम करना
और केक का टुकड़ा हक़ से लेना
और ये देखो
अगर हमने कोई काम बताया
तो मुझे केक ही नहीं चाहिए बोलकर
गाँडू जैसे भाग नहीं पाओगे
ध्यान में रखना
ट्यूबलाइट
उसने अचानक
पलकें फड़फड़ाकर
मेरी ओर देखा
मेरा ध्यान खींच लिया
मैं पास जाकर उसे देखने लगा
उसकी आँखों के किनारे लाल हो गए थे
दिन-रात जागकर थक गई थी
उसकी सफ़ेद त्वचा काली नीली हो गई थी
उसने संकेत दिया—दिन भर गए
अब आगे की तैयारी करनी पड़ेगी
आख़री दम साँस है
चलेगी तब तक चला लेंगे
सारा इंतज़ाम पहले ही करके रखना पड़ेगा
जीवन भर सफ़ेद रोशनी दी
पैसे भी पूरे वसूल हो गए है
जाने के बाद कूड़े में फेंक कर
तुरंत नई लगा देंगे
रुकावट नहीं आनी चाहिए
झुकना
मैं झुकता हूँ
तब मेरा अहंकार
वह अपने पथरीले हाथों से सहलाता है
मैंने उसे चढ़ाया भोग
वह बिना हाथ बढ़ाए ग्रहण करता है
मेरी लूटपाट का
दस परसेंट हिस्सा
मैं उसे हमेशा देते रहता हूँ
वह भी वह चुपचाप लेता है
किसी चीज़ को ना नहीं कहता
वह मुझसे ही नहीं तो
सबसे बड़ा
सबसे श्रेष्ठ सबका निर्माता है
मैं जय-जयकार करता हूँ
कहीं कोई मेरी बात काट तो नहीं रहा है
यह चारों ओर घूर कर देखता हूँ
वह कभी गुर्राता नहीं
उसकी नज़र हमेशा स्थिर और शांत
मैं किसी के तो आगे झुकता हूँ
इस बात को
मैं जिन्हें कुचलते रहता हूँ
वे बड़े सराहते रहते है
यह बात सच है कि मैं झुकता हूँ
लेकिन मैं जानता हूँ
मैं जब झुका रहता हूँ
तब वह मेरी पीठ पर वार नहीं करेगा
और उसके आगे
आँखों से आँखे मिलाकर खड़ा होता हूँ तब
आगे से गला दबोचकर
जवाब माँगे जाने की भी
कोई गुंजाइश नहीं
आदि और अंत
आदि और अंत
दिखाई नहीं देता
पर अविकल कुछ भी नहीं
सब कुछ बहते रहता है
लेकिन बहाव निरंतर नहीं
पावों तले बीतता रास्ता
कहाँ शुरू हुआ और कहाँ ख़त्म
हमें मालूम नहीं
लेकिन यह सीधी-सादी राह नहीं
वह कितनी जगह विखंडित हुई है
यह पैदल चलने वाले पाँव ही बता सकते हैं
यह समुद्र
कब से भीतर ही भीतर डोल रहा है
लेकिन शार्क को या व्हेल को ही नहीं
यहाँ की सुरमई को या बांगड़े को पूछकर देखो
अनगिनत दरारें दिखती है मछलियों को
उसकी लहरों के बीच
गहराई तक गई हुई
समंदर की दरारें
यहाँ की मछलियों और
समंदर के पानी को ही
भरनी पड़ेंगी
जैसे अपने ज़ख़्म
भरने के लिए
ख़ुद आगे आती हैं
अपनी ही मांसपेशियाँ
और कई दिनों तक लड़कर
भर देती हैं घाव
और इस बहते समय की दरारें
जीने की धारा में
नुकीले चाक़ू जैसी
चुभती रहती है
उन्हें भरने के लिए
कौन-सी सामग्री लगेगी
कौन-सा शस्त्र
कौन-से आयुध
कौन-सा रसायन लगेगा
किसी को तो आगे आना ही होगा
ढूँढ़ कर लाने होंगे
काल के सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण
शब्दों को घिसकर उजलाकर
चकाचौंध काल के प्रवाह की दरारें
भरनी पड़ेंगी
कौन है वास्तुविद्
कौन शल्याविद्
कौन है शास्त्रज्ञ
कौन विधिज्ञ
दर्शनी अभियंता
कुशल कारागीर
अवकाश के दरमियान
काल को गढ़ने वाला?
प्रफुल्ल शिलेदार (जन्म : 1962) मराठी के सुचर्चित कवि-लेखक और अनुवादक हैं। उनके मराठी में तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हैं। उनकी कविताओं का एक चयन हिंदी अनुवाद में ‘पैदल चलूँगा’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। वह नागपुर में रहते हैं। उनसे shiledarprafull@gmail।com पर बात की जा सकती है।
प्रफुल्ल शिलेदार की ये कविताएँ भारतीय कविता को समृद्ध करती हैं। वे बहुत मद्धिम आवाज़ में गंभीर बात कहने वाले कवि हैं। समुद्र कविता में पहली बार मैंने समुद्र की उदासी देखी। ‘केक’ में भी अवसरवाद को एक नए अंदाज में रखा है। इन कविताओं के लिए प्रफुल्ल जी को बधाई। सदानीरा के प्रति आभार