अरुण कोलटकर की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : प्रतिभा

अरुण कोलटकर | तस्वीर सौजन्य : DALL·E 2

सर्पसत्र

जनमेजय

मुझे बिल्कुल नहीं पता
कि मेरा बाप कैसे मरा,
इस बारे अब तक मुझे
कोई जानकारी नहीं थी।

मैं बहुत छोटा था उस समय,
पर कहते है एक साँप ने मारा था उन्हें
अपना बदला पूरा करने के लिए

और कहते है उस साँप का प्रत्येक विष-बिंदु
इतना शक्तिशाली था,
कि उसके दंश मारते ही महाकाय वटवृक्ष
भी क्षणार्ध में भस्म हो जाता था।

क्या होने वाला है
यह मेरे बाप को पहले से पता था।
इस हमले की जानकारी
उसे अपने गुप्तचरों से मिल चुकी थी

पर मेरे बाप ने भी
जोरदार बंदोबस्त किया था
अपनी सुरक्षा का।

उसने तालाब के बीचोबीच
एक राजमहल बनवा लिया था।
जो एक खंबे पर ऐसे खड़ा था
जैसे फ़ौलादी डंठल पर
कोई स्फटिक का कमल खिला हो

और उसके आस-पास, दिन-रात
ख़ूँख़ार मगरमच्छों का एक दस्ता
पहरा देता था।

उसे विश्वास हो गया था
कि अब वह पूर्णतया सुरक्षित है।
और उसका यह सोचना कितना ग़लत था
सिद्ध करके दिखाया तक्षक ने
सारी सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगाकर।

उसने एक इल्ली का सूक्ष्म रूप धरकर
राजमहल में प्रवेश किया
ख़ास राजा के लिए भिजवाए गए
फलों की एक टोकरी में छुपकर।

मेरे बाप ने जैसे ही टोकरी में से
एक फल उठाया
तक्षक देखते ही देखते अपने
असली रूप में आ गया

और मेरे बाप के आस-पास धरना देकर बैठे
समस्त मंत्रियों, संतरियों और राजपत्नियों की
आँखों के सामने उसने मेरे पिता को
लपेट लिया अपने गुँजलक में
उन्हें डस कर वह
किसी जलती हुई तीली की तरह
आसमान की तरफ़ गया

विजेता भाव की तरह
आकाश से देखा
मेरे बाप को
अपने राजमहल के साथ
भस्म होते हुए

वह आकाश में नाचने लगा
एक बौखलाई हुई रंगोली-सा
तारों की बिंदियों को मिटाता हुआ।

कहते है उस दिन उत्सव मनाया गया
भोगवती में नागों के द्वारा,
एक दूसरे को पेड़े बाँटे गए।
लेकिन गाँठ जनमेजय से है
यह कोई बता दे उन्हें।

इस एक कृत्य की
कितनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी
इसकी उन्हें कल्पना भी नहीं है।

जरत्कारु

एक

साँप ने काटा और मेरा बाप
मर गया
पूछो कब?

तो कहता है
मैं छोटा था तब,
मुझे कुछ भी याद नहीं
पर उसका बदला लेने के लिए

दुनिया के सारे साँपों का
समूल नाश करने का संकल्प
लिया है मैंने।

‘एक को भी जीवित मत छोड़ना’
ऐसा यदि कोई आकर कहे
कोई क्या, इंसान ही कहेगा
क्योंकि इंसान के अलावा
ऐसा विचार और किसके
दिमाग़ में आ सकता है?

पर यदि कोई ऐसा कहे
तो क्या करेंगे हम,
क्या प्रतिक्रिया होगी हमारी?

यह मज़ाक़ कर रहा है
पहले तो ऐसा ही लगेगा सबको
फिर चकरा जाएँगे हम।

या पागल हो गया है
इससे क्या बहस करना
यह सोचकर छोड़ देंगे।

या उसके इस मज़ाक़ में सहभागी
होते हुए कहेंगे
वाह तब छनेगी अपनी!
मेरी माँ को भी एक चींटी ने काट लिया था

इसलिए दिखने वाली हर चींटी को
मसल डालने का संकल्प लिया है मैंने
जब तक कि यह पृथ्वी
चींटीविहीन नहीं हो जाती।

या ध्यान से देखेंगे उसकी तरफ़
किसी मनोचिकित्सक का नाम
याद करने की कोशिश करते हुए।

या उसका विचार कितना
अव्यावहारिक है
नैतिक दृष्टि से कितना असमर्थनीय,
और तार्किक दृष्टि से भी
यह उसे समझाने की कोशिश करेंगे

या हममें से कोई उस मूर्ख को
उसके इस संकल्प से
परावृत करने का प्रयत्न करेगा।
लेकिन यदि ऐसे विचार रखने वाला
व्यक्ति किसी बड़े से देश का राजा-वाजा हुआ तो?

तो सुनने वाले को सचमुच
उस देश के भविष्य की चिंता
सताने लगेगी

पर ऐसा विचार राजा के दिमाग़ में
जड़े जमाए
उसके पहले ही कुछ आवश्यक क़दम
उठाने पड़ेंगे।

जैसे उदाहरण के लिए
उसे भूखे पेट किसी सूखे अंधे कुएँ में
रखना होगा कुछ दिन
और कुएँ की मुँडेर पर ब्राह्मणों को बिठाकर
दिन-रात शांतिपाठ करवाना पड़ेगा।

उसे पदच्युत करना होगा,
या फिर स्वतः ही देश-त्याग करना पड़ेगा।

और इन सबमें से कुछ भी करने के बजाय
क्या कर रहे है जनमेजय के आस-पास जमा,
उसके मित्र, सलाहकार, सभी पितृवत लोग?
सब उसे प्रोत्साहन दे रहे है।

(मैं उत्तंक के बारे में नहीं कह रही हूँ,
तक्षक और उसकी दुश्मनी काफ़ी पुरानी है
उसे तो मौक़ा चाहिए ही था
तक्षक से बदला लेने का,
और अग्निरूपी घोड़े के अपानद्वार में
फूँकनी डाल कर
फूँक मारने के लिए जैसे वह
पहले तैयार था, वैसा ही आज भी है
इस आग में घी डालने के लिए)

देश के अच्छे से अच्छे
विचारवान् लोग भी
उसे भड़काने का काम कर रहे हैं

और ‘सर्पसत्र’ नाम का एक नया ही
यज्ञ ढूँढ लाए हैं उसकी
सुविधा के लिए।

कल को यदि किसी जँगली सूअर को
अपने बच्चे की जनेऊ करानी हुई
तो यह लोग उसके लिए भी
कोई न कोई शास्त्र का आधार
खोज ही लाएँगे।
नो प्रॉब्लम।

और सर्पसत्र
(माने हद है! क्या खाते हैं ये लोग?
इसके पहले कभी किया था क्या
किसी के बाप-दादाओं ने?

सुना है कभी?
इतिहास में कही दर्ज़ है?)
पर इसे करना है,
इतना सुनते ही

यज्ञ-मंडप का कॉन्ट्रेक्ट किसे मिलेगा?
यही विषय इधर-उधर
देश भर में,
नाके नाके पर,
गाँव-गाँव में
सामान्य लोगों की चर्चा का
विषय बन जाता है।

बड़े बड़े ऋषि-महर्षि
योग्य से योग्य अनुभवी आचार्य
जिन्हें अच्छे-बुरे,
सही ग़लत की समझ है
या कम से कम
अब तक तो हमें यही लगता था;

ऐसे लोग, देश के सद्विवेक
जागृत रखने वाले
साक्षात् ज्वालामुखी के समान दिव्य

ये लोग भी इस समय,
इस यज्ञ में पुरोहित पद प्राप्त करने की
या इसका सदस्य बनने की
जोड़-तोड़ के अलावा
कुछ और सोच नहीं पा रहे हैं।

यहाँ तक कि आत्रेय, उद्दालक, श्वेतकेतु,
मुद्गल जैसे लोग भी।

मैंने सुना है कि
चंडभार्गव पुरोहित बनने वाला है
और जैमिनी मंत्र गाने वाला
अच्छा?
और यज्ञ का संपादन पिंगल करने वाला है।

इस सब हड़बड़ी में वह बेचारा राजा
लोहिताक्ष, क्या कह रहा है
उस तरफ किसी का ध्यान ही नहीं।

और पुरोहित बनना भी इस बेसिस पर
कि जो भी दक्षिणा मिल जाए चलेगी!

अर्थात् व्यावसायिक यश के
सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाने की
उम्मीद भर से सोमश्रवस जैसा
कामनाओं से मुक्त,
ख्यातिप्राप्त महातपस्वी भी
ख़ुश हो जाता है।

कौन?
सोमश्रवस?
पर वह तो स्वयं
एक नागकन्या के पेट से जन्मा है
ऐसा सुना था हमने।

हाँ, सही है पर अपनी माँ
नागवंश की है,
यह विचार भी वह अपने
करियर की आड़ में नहीं आने दे रहा।

इतना अच्छा श्रोता-समुदाय
वह भी इस वर्ग का
इतनी लंबी अवधि के लिए
और सबसे ख़ास बात है कि
एक साथ
फिर कहीं मिलने वाला नहीं,
कम से कम इस जन्म में तो नहीं
शायद वे यह जानते हैं इसलिए,

लेकिन इसे अपना महाकाव्य
दुनिया को सुनाने के लिए
चलकर आई हुई
स्वर्णसंधि की तरह देखते हुए

व्यास के जैसा अलौकिक कवि भी
ललचाई हुई दृष्टि से
इस प्रसंग की ओर देख रहा है,
यह जब समझ में आता है
तो आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है।

अपने ही लोग
अपना, एक दूसरे का,
और अपने साथ-साथ
सारे देश का भी नाश करने को
उद्धत होते हुए भी देखने पर भी
जो व्यक्ति उन्हें न रोक पाए

या उन्हें उनके इस पागलपन
से परावृत करने की ज़रा भी कोशिश
न करे, और केवल तमाशाई बनकर
सब देखता रहे,
और वह सारा लज्जास्पद इतिहास
जल्दी से जल्दी भूल जाने के बजाय
या प्राण-त्याग देने के बजाय,
उसे श्लोकबद्ध करने में
अपने आपको धन्य समझने लगे

ऐसा करने में अपने
बचे-खुचे जीवन के
तीन बहुमूल्य वर्ष ख़र्च कर दे,
उससे आज, सारे नागकुल का
संहार होते समय
दूसरी और क्या अपेक्षा
कर सकते हैं हम?

दो

मैं तक्षक को उसके
इस अतिरेकी स्वभाव के लिए
आज तक क्षमा नहीं कर पाई हूँ।

उसके कर्मों के बदले उसे
कड़ी से कड़ी शिक्षा मिले
उस पर किसी को एतराज़ नहीं है।

उसका इस तरह
इंद्र के सिंहासन के पीछे
दुबकना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आया है।

पर सच कहूँ?
खांडववन में हुए अग्निकांड में
उसकी पत्नी बेचारी
कोई कारण न होते हुए मारी गई
तब उसकी मानसिक अवस्था ठीक नहीं थी,
ये सारी पुरानी बातें
तुम्हें कैसे पता होंगी?

सच कहूँ तो हम भी उसे
भूल जाने का प्रयत्न कर रहे थे
और आज भी प्रसंगवश ही
तुम्हें बता रही हूँ,
पर इससे पहले की व्यास
सारे इतिहास को जूठा कर दे
तुम्हें यह पता होना चाहिए।

इसका परपोता बड़ा पराक्रमी—
अर्जुन।
नाम सुना ही होगा तूने

यदि एक कर्ण को छोड़
दिया जाए तो धनुर्विद्या में
उसका कोई सानी नहीं था।

उसे दिव्य अस्त्र मिले
एक दिव्य धनुष,
दो अक्षय तूणीर
और एक रथ

यह दिव्य अस्त्र हाथ में आते ही
पता नहीं उसे क्या हुआ कि सबसे
पहला पराक्रम उसने यही किया
कि खांडववन जला डाला।

पूरा कोयला
और राख कर डाला उसे।
और यह सब करते समय वह
अकेला नहीं था।

उसके ममेरे भाई का साथ
प्राप्त था उसे
दोनों की जोड़ी ही थी
हर काम दोनों साथ मिलकर करते थे।

ममेरे भाई के हाथ में भी
सुदर्शन नाम का एक
चक्र आ गया था।

दोनों ने मिलकर क्या किया?
खांडववन जला दिया।
और ऐसा जलाया कि
एक शाखा, एक भी हरी पत्ती
या घास का एक तिनका तक
नहीं बचा।

अनादिकाल से इंद्र से वरदहस्त
प्राप्त इस वन में पीढ़ी दर पीढ़ी
निर्भय होकर रहने वाले लोग
वहाँ के सारे प्राणी

पशु, पक्षी, कीटक
समूह के समूह हिरणों के,
हाथियों के, झुंड के झुंड पक्षियों के
वहाँ का सारा जीवन
नष्ट कर दिया इन दोनों ने।

हज़ारों-हज़ार सालों से वहाँ
फलते-फूलते हुए महावृक्ष,
और दुनिया में कहीं और न मिलने वाली
दिव्य वनौषधियाँ भी नष्ट हो गईं।

पाँच हज़ार तरह की तो
केवल तितलियाँ थी उस वन में,
और केवल वहीं मिलने वाली
गिलहरी की एक दुर्लभ क़िस्म भी,

किसी को न समझ आए
ऐसी खांडवी भाषा बोलने वाले
आदिवासियों की एक प्रजाति
अपनी भाषा और उस भाषा के
सारे लोकगीतों के साथ
हमेशा के लिए नष्ट हो गई उसमें।

कहते है राजहंस के पंख की एक
विशिष्ट हड्डी से तैयार होने वाला
पावा (वाद्ययंत्र) बजाकर
किसी भी रोग को ठीक करने की
अजब कला थी उनके पास
जो उनके साथ ही ख़त्म हो गई।

उबलते हुए तालाब में से
बाहर आने वाले
अधकच्चे कछुओं को रौंदते,
चिंघाड़ते हुए उसी जलाशय की ओर
दौड़ते बदहवास हाथी

उसी जलाशय की और छलाँगें
मार कर भागते हुए किसी
हिरन का पैर टूट जाता है

शहद के स्वाद ज़बान पर
महसूस करते हुए भालू अचानक
नखशिखांत जल उठता है
और बेहड़े के ऊँचे वृक्ष से
टहनी समेत नीचे आ गिरता है
जलती हुई घास में लोटने के लिए

चिंगारियों जैसी भिनभिनाती हुई
हज़ारों मधुमक्खियों को
ख़त्म करके क्षणार्ध में
वापस लौटता है सुदर्शन चक्र
कृष्ण के पास
फिर दूसरे काम पर रवाना होने के लिए।

एक ही बार में छोड़े गए सौ बाणों से
यदि किसी उड़ते हुए झुंड के
सौ के सौ क्रौंच पक्षी नहीं मारे
और बाक़ी न रह जाए केवल
एक नीला शून्य
तो काहे का अर्जुन?
मान गए तुम्हें!

अब वो देखो, वो देखो
अपने जलते हुए अयालों के साथ
कैसी छलाँगें मार रही है वह सिंहनी
उसे मत मारना क्योंकि
उसके मुँह में एक छावा है
शाबास!
एक तीर, दो प्राण…

अकारण!
या होगा कोई कारण
जो केवल उन दोनों को ही पता होगा।

अपने हाथ में आए हुए
दिव्य अस्त्रों की ताक़त आज़माकर
देखनी होगी उन्हें।

या खुला मैदान चाहिए होगा
निर्विघ्न रूप से राज करने के लिए।
कीड़े और झींगुर जैसा भी कोई
प्रतिस्पर्धी नहीं चाहिए होगा उन्हें।

उस आग में से किसी को भी
ज़िंदा निकलने नहीं देना है
यह तय कर रखा था उनकी जोड़ी ने।

जलते-जलते यदि कोई बाहर आ जाए
तो उसे खाई में धकेलना
या ख़त्म कर देने का सिलसिला ही
चल रहा था,
यही पुरुषार्थ किया दोनों ने मिलकर।

तक्षक का पुत्र किसी तरह बच निकला
पर उसकी पत्नी उतनी भाग्यशाली नहीं थी,
वह सव्यसाची के अक्षय तूणीर से निकले
एक अमोघ बाण की शिकार हो गई।

और जब यह सारा हत्याकांड हो रहा था
तब तक्षक भाई कहाँ था?
पता चला की वह कुरुक्षेत्र गया हुआ था।
क्यों?
नागतीर्थ में स्नान करने?

या पक्षियों की आवाज़ सुनकर
भविष्यवाणी करने वाली
उस पुलुवन कन्या के प्रेम में
जी भर के
डुबकी लगाने?

कौन जाने?
लेकिन जिस खांडववन के
संरक्षण की ज़िम्मेदारी
इंद्र ने सौंपी थी उसे
उस खांडववन के आस-पास भी
वह नहीं था,
यह बात एकदम सच है।

परीक्षित वध के बाद जब वह
मुझसे मिलने आया
तभी मैंने उससे कहा था
कि आज मेरे सामने इतनी डींगें हाँक रहे हो
लेकिन एक बात तो बताओ

इतने दिन क्या कर रहे थे तुम?
जिस व्यक्ति से तुम्हारा बैर था
और जो तुम्हारे प्रतिशोध का
एकमात्र अधिकारी था
उस अर्जुन को पहले ही क्यों नहीं
अपनी शक्ति दिखाई तुमने?

एक सौ छह वर्ष तक जिया वह,
धनुष्य भी उठाया न जाए
ऐसी अवस्था हो गई थी
अंत में उसकी

और इतनी लंबी कालावधि में
एक भी मौक़ा नहीं मिला तुम्हें
अपना रौद्र रूप दिखाने का?

इतने वर्ष केवल विष मुँह में धरकर
उसके पोते के बूढ़े होने की राह देखते
क्यों बैठे रहे तुम?

बदला लेना,
पवित्र कर्तव्य है हर नाग का।
नागधर्म ही है यह।

पर जिसने कष्ट दिया हो
उसी से बदला लिया जा सकता है
हर किसी से नहीं।

और आज तुम्हें यह याद दिलाने की
नौबत मुझ पर आई है
इससे बड़ा दुःख और क्या होगा तक्षक।

अगर हर किसी को काटते रहे तो
नाग और पागल कुत्ते में क्या
फ़र्क़ रह गया?

यज्ञ में बलि चढ़ाने के लिए
एक बार आटे का बनाया पशु चलेगा
शुनःशेप चलेगा
पर बदला लेने के लिए
कोई दूसरा, पर्यायी व्यक्ति नहीं।

एक व्यक्ति से लिए जाने वाले प्रतिकार को,
उसके बच्चों, रिश्तेदारों या
अन्य किसी के नाम पर
ट्रांसफ़र नहीं किया जा सकता।

प्रतिकार एकाग्र होता है
यह पहला सूत्र है कालदंत की
प्रतिकार-व्यवस्था का।
और प्रतिकार में व्यभिचार निषिद्ध है
यह दूसरा।
निषिद्ध के बजाय अक्षम्य भी
कहा गया है कहीं-कहीं।

लेकिन एक के द्वारा किए गए गुनाह के
बदले हज़ारों की हत्या करना
कहा तक क्षम्य है
इस पर कालदंत कुछ नहीं कहते।
ऐसा भी कभी कोई करेगा
शायद इसकी कल्पना
उन्होंने स्वप्न में भी नहीं की होगी।

यह सर्वथा नवीन कल्पना
जनमेजय जैसे
किसी आदमी को ही सूझ सकती है।

इसके पहले भी मरुत्त ने
सारे सर्पों का संहार करने का
प्रण लिया था।

लेकिन इसके लिए
उसने ‘यज्ञ’ जैसे मीठे नाम का
सहारा नहीं लिया।

पुरोहित झूले पर बैठकर
शास्त्र गा रहा है,
उद्गाता मंच पर बैठकर
सामगान कर रहा है

वहाँ उस तरफ़
जुआ खेला जा रहा है,
दासियाँ नृत्य कर रही हैं,
कहीं वीणा-वादन चल रहा है,
कोई कपड़े से सोमरस छान रहा है,

एक तरफ़ वैशम्पायन
‘महाभारत’ पढ़कर सुना रहा है
अपनी जेब से मिर्च-मसाला लगाकर,

और एक तरफ़ साँप अपने आप
बिलों से बाहर खींचे चले आ रहे है,
ऐसा कुछ नहीं देखने में आया था वहाँ।

कितना अच्छा है न यह यज्ञ!
न पशु को बाँधने के लिए खंबा चाहिए
न रस्सी और न ही वध करने वाला,
कोई झंझट ही नहीं।

यजमान पत्नी को भी कोई तकलीफ़ नहीं।
यज्ञ अग्नि की ओर पशु को
ले जाने की ज़रूरत नहीं,
और न गला घोंटकर या किसी
अन्य तरीक़े से उसे मारने की ज़रूरत।

सारे अंगों को अलग-अलग करके
जलाने की ज़रूरत नहीं,
न पशु का हृदय भूनने की ज़रूरत है।

अपने आप ही आकर गिर रहे हैं
सारे यज्ञ कुंड में
और अपने आप भूने जा रहे हैं।

अरे, यह यज्ञ है की खेल
किसी अघोरी मदारी का?

देवता प्रसन्न हो इसलिए,
अपनी और उनकी मनपसंद वस्तुओं को
उन तक पहुँचाने के लिए
अग्नि को एक पवित्र माध्यम की तरह
बरतने के बजाय

किसी के अपराध का बदला
किसी और से लेने की ज़िद में
योजनाबद्ध तरीक़े से
निःशस्त्र लोगों के एक समुदाय का नामोनिशान
इस पृथ्वी से पूरी तरह मिटा देने जैसा
गंदा और घृणित काम
उस पवित्र वाहन अग्नि
और देवताओं के पुरोहित से करवाना

और वह भी देवताओं को
सूचित किए बिना!
उन्हें पूरी तरह अंधकार में रखते हुए!

इससे बड़ा अग्नि का अपमान,
और यज्ञ-संस्था की विडंबना
दूसरी कौन-सी होगी?

इस यज्ञ के लिए देवताओं को
निमंत्रण भी नहीं भेजा गया
यह नज़रअंदाज़ी नहीं है!

स्वर्ग, साम्राज्य, बारिश, कीर्ति,
पुत्र, पौत्र, धन-धान्य, धेनु, शांति
इन सबमें से किसी भी फल की
प्राप्ति,
ऐहिक या पारलौकिक,
अपेक्षित नहीं है इस यज्ञ से,

प्रतिशोध
इस एकमात्र आसुरी देवता को
संतुष्ट करने के लिए जिसका
निर्माण किया गया है,
ऐसा यह सर्वथा सिनिकल यज्ञ,
यह सर्पसत्र,
यह वीभत्स विडंबना यज्ञ-संस्था की

तुरंत ही बंद होना चाहिए
किसी भी परिस्थिति में,
कुछ भी करके।

पर जिन्हें यह बात समझ जानी
चाहिए थी
वेदी की पहली ईंट गर्म होने
होने के पहले ही।
वे तो सारे के सारे कायर और
जनमेजय के एहसानों तले दबे हुए है,
सोने का निवाला मुँह में डाले
चुप बैठे हैं।

यह सब देखकर जिनकी गर्दनें
शर्म से झुक जानी चाहिए थीं
वे सब इस घृणास्पद नाटक में
अपने-अपने हिस्से आई
भूमिका का आनंद से निर्वाह कर रहे हैं
और काले कपड़े पहन कर
गर्व से यज्ञशाला में घूम रहे है
(काली धोती, काला उत्तरीय और
वराह चर्म के काले जूते)

और इन सबके बीच
सर्पों के मांस और वसा की नदी
लगातार बह रही है।

टरपेंटाइल में पूरियाँ तलने
जैसी दुर्गंध,
धीरे-धीरे देश भर में फ़ैल रही है।
एक तरह की असह्य
दमघोंटू मिठास है उसमें।

सब लोग अब इसके इतने
आदी हो गए हैं कि
किसी को कुछ महसूस ही नहीं हो रहा।

यह गंध हमारे
राष्ट्रीय पर्यावरण का
एक अभिन्न हिस्सा हो गई है।

घरों में, बाज़ारों में, चौराहों पर,
शराब के अड्डों पर, वेश्यागृहों में,
जुआघरों में…

केवल तक्षशिला ही नहीं
बल्कि गाँव-गाँव में;
हस्तिनापुर, अयोध्या, मगध, अवंती

जहाँ देखो वहाँ,
लोग इसी एक विषय पर
चर्चा करने में मग्न है आज।

किस वंश के कितने नागों को
ज़िंदा जलाया गया,
इसी का हिसाब-किताब कर रहे हैं,

और हम इंसान है
यह सोचकर मन ही मन
चैन की साँस ले रहे हैं।

यह न सोचते हुए कि
‘मनुष्य’ इस संज्ञा को निबाहने में
हम अक्षरशः अयोग्य साबित हो गए हैं।

क्या सब लोग भूल गए है
कि आख़िर यह पृथ्वी भी
एक नाग के फन पर ही खड़ी है?

(आज तक हर वर्ष मुझे भाई दूज का
शगुन बिना भूले भेजता है शेषनाग)

उस तक यह आँच किसी भी
परिस्थिति में नहीं पहुँचनी चाहिए।

उसे भनक भी नहीं लगनी चाहिए
इन सब बातों की
नहीं तो सब ख़त्म समझो!

यदि उसने भड़ककर
अपनी गर्दन को एक
झटका भी दिया तो
अनर्थ है!

जब पृथ्वी का आधार ही नहीं बचा
पृथ्वी ही नहीं बची
तो किस ढेले पर
राज करने वाला है यह?
किसी को पूछना चाहिए जाकर

स्वतः को अधिपति कहलवाने वाले
इस परीक्षित के लड़के से,
मस्ताए हुए इस भरत कुलोत्पन्न बैल से।

और यह काम तेरा है, आस्तीक।
कोई और है ही नहीं यह करने वाला!

यह ज़िम्मेदारी जिससे देवताओं के
साथ-साथ सभी ने पल्ला झाड़ लिया है,
अपने आप ही तुझ पर आ गिरी है,
और इसे निबाहने की सामर्थ्य तुझमें है,
व्यर्थ ही ऐसा लगने लगा है मुझे भी।

यह सच है कि
तू अभी बच्चा है।
पर यही तो सबसे बड़ी
ताक़त है तेरी।

तू अभी बच्चा है इसलिए
दृष्टि भी निर्दोष है तेरी।
आँखों पर अभी
किसी तरह का धुआँ नहीं चढ़ा।
चाहे वह यज्ञ का हो,
सत्ता का हो,
संपत्ति का हो,
या ज्ञान का हो।

तू अभी बच्चा है इसलिए
तेरी कल्पनाशीलता में कोई
बाधा नहीं आई अब तक।
न ही दिमाग़ में कीड़े पड़े है।

कभी ठीक न होने वाली किसी
ऐतिहासिक भूल या काल्पनिक
ज़ख़्म के शीशे से दुनिया को
देखना अभी नहीं सीखा तूने।
क्योंकि अभी बच्चा है तू
और घाव भी जल्दी भर जाते है तेरे।

पर केवल मैं कह रही हूँ
इसलिए मत जाना वहाँ।

यदि तुझे ऐसा लगता है
कि माँ मूर्ख है और मुझे भी
मूर्खता करने को कह रही है,
तो स्पष्ट बताना मुझे।
मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगेगा।
तू कह रहा है तो सच ही होगा,
जानती हूँ मैं।
संभव है कि
यह जो भी चल रहा है दुनिया में
उसका असर मेरे दिमाग़ पर भी
पड़ गया हो,
तो कोई अनोखी बात नहीं।

वैसे भी तू अकेला
वहाँ जाकर क्या कर लेगा!
ये सीधी-सी बात भी मेरे दिमाग़ में
कैसे नहीं आई, क्या पता।
कितनी पागल हूँ मैं!

किसी आगंतुक की तरह तू
यज्ञ स्थान पर पहुँच भी गया,
तब भी कौन प्रवेश करने देगा तुझे वहाँ?
और क्यों?

उस गहमागहमी में कोई ध्यान भी
नहीं देगा तेरी तरफ़।
कदाचित जगहँसाई ही होगी तेरी वहाँ
या अपमानित भी किया जायेगा।

हो सकता है कि धक्के देकर
तुझे वहाँ से बाहर निकाल दिया जाए।

जैसे जनमेजय के भाइयों ने एक बार
सरमा के पुत्र सारमेय को बिना किसी
कारण के लात मार-मारकर भगा दिया था।

पर दूसरा कोई
रास्ता भी कहाँ है अपने पास,
पृथ्वी पर उपस्थित आख़िरी सर्प के
ख़त्म होने तक इस हत्याकांड को
देखते रहने के अलावा?

कल ही की बात है
जब हम सब छत पर इसी विषय की
बात कर रहे थे
(दुनिया में कोई और विषय ही नहीं है
इस समय)
तभी तेरे ममेरे भाई कक्षक और पिंगल
जिनके साथ खेलते हुए तू बड़ा हुआ
ऐसे उठाए गए,
मानों किसी अदृश्य बाज़ ने
झपट्टा मार कर उठाया हो,

और उस समय क्या कर पाए हम!
केवल देखते ही रह गए,
दोनों को ओझल होने तक।
एक दूसरे से लिपटते,
हवा पर तैरते,
क्षितिज के पार तक्षशिला की
ओर जाते हुए।

(जिस शहर का आसमान आजकल
हमेशा ही धुएँ से भरा रहता है
या रात में सुर्ख़ लाल दिखता है,
तीनों काल सोम पीकर
और यज्ञ कुंड के सामने बैठकर
लाल हो चुकी पुरोहित की आँखों समान)

हिरण्यवाह, प्रद्धोत, चक्र
आदि की आहुति जिस यज्ञ कुंड में
पहले ही दी जा चुकी,
और जिसमें कल को निश्चित रूप से
तुम्हारे वासुकि मामा और मेरी भी
आहुति दी जाने वाली है।

ज़रा ऊपर देख आस्तीक
आकाश में, दिख रहा है तुझे?
इस समय भी एक नाग-कुटुंब
एक दूसरे से लिपटा हुआ
जा रहा है,
किसी सुसाइडल हंस के समान
उसी रास्ते पर,
उसी बदले की आग का
आहार होने।

ये सारा अमंगल देशव्यापी धुआँ
आ कहा से रहा है यह देखने।

संपूर्ण देश की हवा दूषित करने वाले
इस उर्ध्वगामी धुएँ का उद्गम
ढूँढ़ निकालने के लिए।

क्या वह मानस था?
हाँ, मुझे लगता है मानस ही था
मानस, और उसकी पत्नी,
क्या नाम था उसका?
पिंगलाक्षी?
नहीं, भूल गई हूँ मैं
और दो बच्चे उनके।

अंत तक एक दूसरे का साथ
न छूटे ऐसा तय किया था
उन्होंने कदाचित,
पर क्या तुझे भी लगता है?
धीरे-धीरे पकड़ ढीली होने लगी थी
एक दूसरे पर।

वासुकि से पहले मेरी
बारी आए
भगवान् से यही प्रार्थना है।

जिसने देव-दानवों के लिए
मंदार पर्वत की मथनी बनाकर
समुद्र मंथन किया,
उसे यंत्रणा में नहीं देख पाऊँगी मैं।
पर शायद भाग्य में यही लिखा है।

देख कैसा दिग्भ्रमित हो रहा है वह।
शरीर कितना जल रहा है उसका!
हाथों को चटका लग रहा है
मन घबरा रहा है,
करवट बदल रहा है बार-बार।

मुझे कुछ ठीक नहीं जान पड़ता
उसे देखकर।
स्वयं के बच्चों से अधिक प्रेम किया है
उसने तुझ पर,
अपने लाड़ले भाँजे पर,
याद है तुझे?

तुझे पीठ पर बिठा कर
दुनिया में कहीं भी घुमा लाने को
सदैव तैयार!
फिर चाहे वह गंधमादन पर्वत हो
या जहाँ तू कह दे वहाँ।

इन सबमें एक बात अच्छी है
कम से कम,
कि हमारा चाहे जो हो
तुम्हें किसी तरह का
ज़रा-सा भी भय नहीं है।

क्योंकि मेरी कोख से जन्म
लेकर भी तू मनुष्य है।
मनुष्य का बच्चा है तू
यह बात कभी मत भूलना।

और इसलिए इस सत्र को रोकना
तुम्हारे ज़िम्मे है, आस्तीक
मेरे लाल।

मेरे लिए नहीं,
न अपने मामा के लिए
और न किसी अन्य के लिए।
लेकिन जिस मनुष्यता का तू वारिस है
उसी के लिए,
वह मनुष्यता इस यज्ञ की
पूर्णाहुति होकर
जलकर भस्म हो जाए
उसके पहले।

अवभृथस्नान

सत्र (यज्ञ) समाप्त होते हैं
और अपार धन
सुनहरे सींगों वाली गायें,
गहनों से लदी-फदी दासियाँ
साथ में लेकर
पंडे, पुरोहित निकल जाते हैं
अपने-अपने आश्रम या गाँव।

यज्ञ मंडप में सजे तोरण,
बर्तन, कुंड, खंबे, ईंटें
या जो भी मिल जाए
वह लूटकर
कारोबारी ब्राह्मण
घी का कीचड़ उड़ाते हुए
अपने-अपने घर लौट जाते हैं।

अवभृथस्नान करके राजा
लौट आते हैं राजधानी में
स्वयं से यह कहते हुए कि
कुछ राज्य के कार्य-कलाप भी
देखने हैं या नहीं

और सारे ख़र्च की भरपाई करने के लिए
अब क्या किया जाए
प्रजा पर कौन-सा नया कर लगाया जाए
इस पर सोच-विचार करने के बाद
अपने अमात्य से
इस विषय पर सूचनाएँ मँगवाते हैं।

सत्र (यज्ञ) समाप्त होते हैं
और लोगों को जी बहलाने के लिए
अन्य विषय ढूँढ़ने पड़ते हैं।

सत्र समाप्त हो जाते हैं पर
सत्र के लिए जानबूझकर
उत्पन्न की गई अग्नि
कभी बुझती नहीं।
जिस समय भृगु कुल का संहार हुआ
उस समय प्रतिघात के लिए
प्रज्वलित क्रोधाग्नि को
पितरों के कहने पर,
और्व ने ले जाकर महासागर में डाल दिया था
क्योंकि कोई और इलाज नहीं था।

पर कहते हैं कि
वह अब भी जल रही है
समुद्र के पेट में।

और पुलस्त्य के कहने पर
पाराशर ने अपना राक्षस सत्र बंद किया था,
उसके लिए तैयार की गई अग्नि को
हिमालय के उत्तर में एक विशाल
अरण्य में ले जाकर डाल दिया गया था;
कहते हैं वहाँ अभी भी
राक्षस, वृक्ष और शिलाओं का
भक्षण करते हुए दिखाई पड़ती है
वह पुण्यकाल में।


अरुण कोलटकर और प्रतिभा से परिचय के लिए यहाँ देखिए : या तुम ही हो यह अरण्य रोता हुआ

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