ज़ेवियर विलोरूशिया की कविताएँ ::
अँग्रेज़ी से अनुवाद और प्रस्तुति : अनिल गंगल
ज़ेवियर विलोरूशिया (1903-1950) एक कवि, नाट्यकार और उपन्यासकार हैं। उनका जन्म और निधन मैक्सिको में हुआ। सल्वाडोर नोवो के सहयोगी के रूप में उन्होंने एक पत्रिका Ulises (1927-1928) की शुरुआत की। वह लेखकों के एक संगठन के सदस्य थे जो Contemporaneos (1928-1931) नामक पत्रिका से जुड़े थे। इस संगठन के वह कला-साहित्य से संबंधित सर्वाधिक मान्य एवं सुयोग्य आलोचक माने जाते थे। उनके काव्य-संकलन हैं—Reflejos (1926), Nocturnos (1933), Nostalgia de la muerte (1938) दूसरे अन्य लेखकों के साथ उन्होंने चेख़ोव, विलियम ब्लेक और जीड की रचनाओं के अनुवाद भी किए। सुर्रियलिज़्म के निकट उनकी कविताओं में एक निर्जन परिदृश्य उभर कर आता है, जिसमें मृत्यु की सुस्पष्ट उपस्थिति के बग़ैर अतिसूक्ष्म रूप में वजूद बना रहता है। ऑक्टोवियो पॉज़ ने उनके बारे में कहा है : ‘‘विलोरूशिया की कविता किसी अन्य देश में लिखी गई जान पड़ती है; लेकिन ऐसी जगह जो किसी भूगोल और इतिहास, किसी मिथक और उपाख्यान के बाहर पाई जाती हैं, ऐसी जगह जो अंतरिक्ष में कहीं नहीं पाई जाती और जहाँ वक़्त की सुइयाँ रुक गई हैं।’’ यहाँ प्रस्तुत कविताएँ माइकेल स्मिथ के अँग्रेज़ी अनुवादों पर आधारित हैं।
— अनिल गंगल
रात
अपने छायादार हाथ से उकेरती है रात सभी कुछ
उघाड़ कर रख देती है ख़ुशी
बुराइयों को छोड़ देती है पीछे
अपनी चुप्पी के कठोर प्रहार से छाया
सब कुछ को सुना जाने के लिए करती है विवश
प्रज्वलित करती है यह संयोगवश अनपेक्षित आवाज़ों को
रक्त की चीख़ और
खोए जा चुके पदचिह्नों की ध्वनियों को
चुप्पी सब कुछ को
चीज़ों से करती है फ़रार
इच्छा की वाष्प
धरती का पसीना
और त्वचा की अपरिभाषित गंध को
मेरे होंठों पर छोड़ जाती है इच्छा
हर चीज़ का धब्बा
एक स्पर्श की स्वप्निल मिठास
लार का पहचाना हुआ स्वाद
हर चीज़ को नींद करती है दृश्यमान
एक घाव का मुख
एक अंतड़ी की शक्ल
तीमारदारी करने वाले हाथ का बुख़ार
हर चीज़
घूमती-फिरती है मेरी शिराओं की प्रत्येक शाखा में
मेरी जंघाओं को सहलाती
हाहाकार से भरती मेरे कान
मेरी मृत हो चुकी आँखों में जीवित रहती है
मेरे कड़े हो चुके होंठों पर मर जाती है।
भयानक रात
रात में हर चीज़ जीती है एक गुप्त संशय,
चुप्पी और शोर,
वक़्त और जगह,
निश्चल सुअक्कड़ या फिर देर तक जागते निद्राचारी
छिपी हुई व्यग्रता के विरुद्ध हम एकदम असहाय हैं
नहीं है काफ़ी अँधेरे में अपनी आँखें बंद कर लेना
या फिर ज़्यादा कुछ न देखने के लिए उन्हें नींद में डुबो देना
क्योंकि गहन अंधकार तथा नींद की कंदरा में
वही रात की रोशनी ही तो हमें जगाए रखती है
तब एक जागते हुए सोने वाले का अनुसरण करते हुए
निरुद्देश्य और लक्ष्यहीन चलने की शुरुआत करते हैं हम
रात अपने रहस्य हमारे ऊपर उड़ेलती है
और बताती है हमें कि मौत को गले लगाना दरअसल जागना है
एक सुनसान सड़क की छायाओं में से कौन है,
दीवार में,
एकांत के नीले दर्पण में
जिसने ख़ुद को मुठभेड़ की जानिब आते और जाते हुए न देखा हो
और स्वयं को भय, दर्द और नश्वर संशय के बीच न पाया हो
एक ख़ाली देह के सिवाय कुछ न होने का भय
जो किसी के भी भीतर, वह मैं ही होऊँ या अन्य कोई,
जड़ें जमा सकता है
और ख़ुद के बाहर स्वयं के जीवित होने का दर्द
और होने या न होने का संदेह बन सकते हैं हक़ीक़त।
चीख़ती हुई रात
अपनी आवाज़ से भयभीत हूँ मैं
व्यर्थ ही मैं अपनी छाया को ढूँढ़ता फिरता हूँ
क्या यह होगा बुद्धिसंगत
कि गुज़र जाए एक देहविहीन छाया?
और मेरी खोई हुई आवाज़
करती जाए सड़क को आग के हवाले?
ऐसी कौन-सी आवाज़, कौन-सी छाया और कौन-सा स्वप्न है
जागते हुए स्वप्न में जिन्हें मैंने देखा नहीं
क्या ये वही आवाज़, वही छाया और वही स्वप्न होंगे
जिन्होंने मुझे लूट लिया है?
अपने धारीदार दिल से उछलते ख़ून की आवाज़ को सुनने के लिए
क्या मुझे अपने कानों को सीने पर रखना होगा
जैसे नब्ज़ पर रखता हूँ मैं अपना हाथ?
मेरी छाती ख़ाली होगी
और मैं बिल्कुल निराश
और मेरे हाथ जमे हुए संगमरमर के
कड़े टुकड़े भर होंगे।
मूर्ति की रात
अगुस्टिन लाज़ो के लिए
स्वप्न देखना, रात, सड़क, सीढ़ियाँ
और कोनों को दृढ़ बनती मूर्ति की आर्त्त पुकार का स्वप्न देखना
मूर्ति की ओर दौड़ना और पाना सिर्फ़ एक चीख़
चीख़ का स्पर्श करने की इच्छा होना और पाना सिर्फ़ इसकी प्रतिध्वनि
प्रतिध्वनि को पकड़ लेने की इच्छा होना और पाना सिर्फ़ दीवार
और दीवार की जानिब दौड़ना और छू लेना सिर्फ़ एक दर्पण
दर्पण में खोजना वह मूर्ति जिसका क़त्ल कर दिया गया
इसे इसकी छाया के रक्त से बाहर खींच निकालना
आँखों की एक झपक के भीतर ही इसकी शुश्रूषा करना
एक अनपेक्षित बहन की मानिंद इसे दुलारना
और इसकी उँगलियों के टुकड़ों के साथ खेलना
और सैकड़ों बार इसके कानों में गिनना
जब तक कि तुम इसे यह कहते हुए सुनो :
स्वप्न देखते हुए मैं मर चुकी हूँ।
रात जिसमें कुछ भी सुनाई नहीं देता
गुनाह से ठीक पहले
एक सड़क की मानिंद सुनसान चुप्पी के बीचोंबीच
यहाँ तक कि साँस भी न लेते हुए
ताकि दीवारों से रहित एकांत में
मेरी मृत्यु में कोई विघ्न न पड़े
इस वक़्त जबकि देवदूत फ़रार हो चुके हैं
इतने धीमे से एक अथाह गहराई में जाने के लिए
बाँहें फैलाए बग़ैर
मैं अपनी रक्तहीन मूर्ति अपने बिस्तर की क़ब्र पर छोड़ देता हूँ
और यही चीज़ मुझे पुनर्जीवित करती है
जो कभी था ही नहीं
यह एक अनपेक्षित दर्द है बेहद ठंडा और ज़्यादा तीक्ष्ण
न होता यह किंतु वह मूर्ति जगाती है मुझे दुनिया के शयनकक्ष में
जहाँ हर चीज़ निर्जीव हो चुकी है।
अकेली रात
अकेलापन, नीरसता
एक निरर्थक दीर्घ चुप्पी
द्रवीय छाया जिसमें मैं डूबता हूँ
विचारों का ख़ालीपन
यहाँ तक कि एक अपरिभाषेय आवाज़ का उच्चारण तक नहीं
जो एक अनंत सागर के असंभव कोने तक पहुँच सके
जहाज़ के इस अदृश्य रूप से नष्ट हो जाने को
अपनी चीख़ से प्रकाशित करने के लिए।
शाश्वत रात
जब लोग अपने कंधो को सीधा करते हैं
और सरेराह गुज़र जाते हैं
या फिर जब वे अपने नामों को दूर गिरने देते हैं
जब तक कि छाया चकित न कर दे
जब धुएँ से कहीं ज़्यादा महीन धूल
आवाज़ के रवों और चेहरे और चीज़ों की त्वचा से चिपक जाती है
जब आँखें विपुल सूरज की किरणों को रोकने के लिए
अपनी खिड़कियाँ बंद कर लेती हैं
और वे क्षमा पर अंधेपन को
और अकेलेपन पर मौन को तरजीह देती हैं
जब ज़िंदगी
या जिसे हम व्यर्थ ही ज़िंदगी के नाम से पुकारते हैं
एक अनामित नाम को छोड़ ख़ाली हाथ आती है
बिस्तर पर कूद पड़ने के लिए कपड़े उतारती है
और अल्कोहल में डूब जाती है
या फिर बर्फ़ में जल जाती है
जब मैं इसे देखता हूँ शराब को भीतर उड़ेलते हुए
जब ज़िंदगी कायरतापूर्वक अँधेरे के आगे समर्पण की इच्छा करती है
इसके नाम की क़ीमत तक बताए बग़ैर :
अगर होता मैं इसका मालिक
तो मैंने कर दिया होता इसे अब तक मुक्त।
अनिल गंगल (जन्म : 1954) सुपरिचित कवि-अनुवादक हैं। उनकी एकाधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनसे gangalanil@yahoo.co.in पर बात की जा सकती है।