जसविंदर सीरत की कविताएँ ::
पंजाबी से अनुवाद : रुस्तम

जसविंदर सीरत

डिबियों वाली चद्दर

हर रोज़
डिबियों वाली चद्दर में
तलाशती हूँ उसे

कभी आँखों से
कभी हाथों से
टटोलती-टटोलती
सो जाती हूँ

बीते पहर
जिस्म पर
अपने ही हाथ
रेंगते महसूस होते हैं

जैसे
जकड़ रहा हो कोई मुझे
मेरे अस्तित्व से परे

उस रात

कितनी अकेली थी वह रात
अपना अँधेरा मेरे शब्दों में तलाशती

उस रात
मैंने अंत तक अपना पीछा किया
हर बार लगा
तू छिप जाता है मेरे ही अंदर
किसी अज्ञात जगह पर

उस रात
अंत तक ढूँढ़ती रही वह अज्ञात स्थान

वह रात
तेरे होते हुए भी
अकेला कर रही थी मुझे

उस रात
मैंने फूलों वाली रज़ाई के साथ
दग़ा किया

शेष

बहुत देर बाद
बदली है
पुरानी चद्दर

आड़े कोण से
देखती हूँ उसे
फिर मुँह
मोड़ लेती हूँ

आँखे बंद कर
होंठ काटती हूँ

महसूस होता है
अभी भी कुछ शेष है

देख

खिड़की खोलकर
देख

काँच पर पड़ रही है
पीले पत्ते की
चमक

चमक रही हो
जैसे
पारदर्शी पानी में

तेरी आवाज़

एक बार सोचना

छूने से पहले
सोचना—

तू तू है
मैं मैं

तेरी रगों का लहू
मेरे जिस्म में आत्मा

सच से परे न हटना

एक बार सोचना—
छूने के बाद

कुम्हार

आज शब्दों को
नए आकार में ढालने को मन किया

फिर पता नहीं क्यों
कच्ची हो गई मैं
उस मिट्टी की तरह
जो कुम्हार के चाक पर
चढ़ने से
इनकार कर देती है

सोचती हूँ
क्यों सृजित करूँ वह संसार
जो पीछे छोड़ आई हूँ

संसार
जो फूल के मौन की तरह
पवित्र और सुंदर है

मैं सिमट जाना चाहती हूँ
काँटों की सुखद पीड़ा में

लेकिन
शब्दों को अब
ढालते हुए
जल जाते हैं हाथ
और मैं चाक पर चढ़ने से
इनकार कर देती हूँ

ग़ैर-मौजूदगी

तू नहीं था
तेरी ग़ैर-मौजूदगी थी

जिसमें मेरे पंख निकल रहे थे

रसोई से देख रही थी
चाँद का चकला

बादलों की कच्ची रोटी
बेल रही थी हवा

रोशनी का सूखा आटा
यहाँ-वहाँ बिखरा पड़ा था

घर में
हर चीज़
भरी हुई थी
तेरी ग़ैर-मौजूदगी से

सोचती थी
रात सिर्फ़ अँधेरे से ही बनती है
पर वह तो बन रही थी
तेरी ग़ैर-मौजूदगी की साँय-साँय से

जिसमें मैं एक
समुद्र को खींच रही थी
और मेरे पंख निकल आए थे

काँच की दीवार

वह
बार-बार टूटता

अपनी किरिचें ले
आ बैठता
मेरी अधूरी काँच की दीवार के पास

मैं टुकड़े इकट्ठे कर
जोड़ती उसका चेहरा

वह
मेरे हाथ में
कटी-फटी, लहूलुहान रेखाओं को
देखता
फिर चला जाता

काँच की दीवार
हो सकती थी पूरी
सिर्फ़ उसके
अक्स के साथ

पाँव

भरी दुपहर
जब आवाज़ आती है तेरे गुज़रने की
दौड़ती हूँ
नंगे पाँव

तपती हुई ज़मीन पर
पाँव रखते ही
भीग जाती हूँ
तेरे न होने के एहसास में

लौट पड़ती हूँ
यह सोचते हुए
कहीं ठहर गई होगी
सरसराती धूप

फिर देखती हूँ
तू तो मेरे पास ही है
पीली पत्ती की
बची हुई हरियाली में

दरवाज़ा

घर के अंदर
हर साँस
चढ़ती है, उतरती है

दरवाज़े अनेक हैं
रास्ता कोई नहीं

ख़ुद को इकट्ठा कर
पसीने में भीगी
हथेलियों को
इक-दूजे से रगड़ती हूँ
गली में आ जाती हूँ

जहाँ रास्ते तो बहुत हैं
पर दरवाज़ा कोई नहीं

बेचैनी

मेरी नसों को
खींचती हुई

एक टीस
रीढ़ में जाकर ठहर जाती है

हल्के कम्पन के साथ
उठती हैं तरंगें

पृथ्वी
निचुड़ रही है

हिसाब

वह
दो क़दम चलती है

चार क़दम
पीछे खींच लेती है

पता नहीं
किस हिसाब से
अपनी राहें
टटोल रही है

जसविंदर सीरत (जन्म : 1974) सुपरिचित पंजाबी कवयित्री हैं। ‘कोयला’ शीर्षक से उनका एक कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुका है। रुस्तम से परिचय के लिए यहाँ देखिए : राजस्थानअविचल छितराया हुआ मौन

4 Comments

  1. Arvinder अप्रैल 2, 2021 at 9:36 पूर्वाह्न

    Bahut khoob

    Reply
  2. Gurwinder singh अप्रैल 2, 2021 at 6:41 अपराह्न

    Bhut acha, ek ek cheej behtar

    Reply
  3. AK अप्रैल 3, 2021 at 3:38 पूर्वाह्न

    Amazing

    Reply
  4. Avneesh kumar अप्रैल 4, 2021 at 6:30 पूर्वाह्न

    बहुत सुंदर कविताएँ।

    Reply

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