नज़्में ::
शारिक़ कैफ़ी

शारिक़ कैफ़ी

खिलौना मौत भी है

मेरे जिस्म के पैंतरों से परेशाँ थी वो
मैंने समझाना चाहा उसे
ख़ुदा जानता है
कि रत्ती बराबर मुझे और जीने की ख़्वाहिश नहीं
सच तो ये है
ऐसे मेहमान से मुँह छुपाना
कि जो सिर्फ़ मेरे लिए आसमानों से आया हो
शर्मिंदा करता है मुझको
भला एक इंसान के बस में कहाँ मौत को छेड़ना
मै तो डरता हूँ तुमसे
ये कोई और है जो
मेरे सर्द पैरों को फिर गर्म करके
तुम्हें छेड़ता है
मेरे घर के चक्कर लगाने पे मजबूर करता है
मगर वो सिसकती रही
अपने पैरों के छालों को रोती रही
और मैं हैरतज़दा
सोचने पर ये मजबूर था
क्या मेरी मौत भी
मेरे मरने के दिन
मेरी साँसों की गिनती के बारे में उतनी ही अनजान है
जितना मैं?

जिस्म के साथ आख़िरी लम्हे

चलो छुट्टी मिली आख़िर
सुबुकदोश1कार्यमुक्त। राहत पाया हुआ। हो गई मैं पहरेदारी से
इक ऐसे जिस्म की जो इतना नाज़ुक था
कि जिसकी उँगलियाँ
फल काटने वाला कोई चाक़ू भी घायल करता रहता था
हवा काम हो तो जिसकी नाक से ख़ूँ बहने लगता था
वो जिसके पैर
थोड़ी-सी थकन से सूज जाते थे
ये मेरे आख़िरी लम्हे हैं अपने जिस्म के साथ
बस इक तख़्ता
और उसके बाद मै आज़ाद हूँ सैरे-फ़लक को
सुकूँ दिल में लिए इस बात का
कि मेरे जिस्म को अपनी ही मौत आई
वो हारा भी तो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी उम्र से
और रूह यूँ भी
उम्र को गिनती नहीं है दुश्मनों में जिस्म के!

सिपाही और मेरी मौत में फ़र्क़

उसके पेशे को मेरा सलाम
मौत भी क़ाबिले-एहतिराम
फिर भी ये तो कहूँगा
इक सिपाही की मौत
और मेरी मौत में फ़र्क़ है
मैं ज़्यादा बहादुर हूँ उससे
मेरी मौत पूरी तरह मौत होगी
जबकि वो
मौत की सिर्फ़ परछाईं ही देख पाएगा और कुछ नहीं
जंग में जान देना अलग बात है
और तारीक़ कमरे की तन्हाई में
ख़ूँ को बलग़म के साथ
फ़र्श पर थूक कर जान देना अलग
मै कहाँ वो कहाँ
उसको मरने में आसानियाँ जो मुहैय्या हैं मुझको कहाँ
ख़ून से तर-ब-तर ही सही
इक खुले सब्ज़ मैदान में जान देना फिर आसान है
मौत जैसे वहाँ खेल का कोई सामान है
जिसमें गोली निशाने पे लगने का मतलब
बस इतना है जैसे कोई गोल कर दे
ये तसल्ली भी है
मरने वाला वहाँ वो अकेला नहीं
सब ही उसकी तरह अपने सर से कफ़न बाँधकर आए हैं
और फिर आँकड़े भी तो हैं
उसे ढारस बँधाने को
कारतूसों के खोलो की गिनती
कहीं बढ़ के होती है लाशों से
ये बात वो जानता है
मौत उसके लिए इक छलावा ही है आख़िर तलक
जिसे दाँव देकर निकलना कोई ऐसा मुश्किल नहीं
और मैं
मुझको ऐसी कोई भी सहूलत नहीं
मेरी मौत पर दस्तख़त हो चुके डॉक्टर के
और वो रख दी गई है सिरहाने मेरे
फ़ाइल की शक्ल में
जिसकी परछाइयाँ
मेरे आसाब पर पड़ रही है—
किसी ठोस शै की तरह
साफ़
सच्ची
मुकम्मल!

नहीं लौटना

मैं बहुत दूर था
जब पुकारा गया हाज़िरी के लिए
डॉक्टर
एक ठंडा बदन
तेज़ बिजली के झटके
अब मगर
मुझमें उस जिस्म को गर्म करने की कोई भी ख़्वाहिश न थी
ज़िंदगी कट गई
ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वो रजिस्टर
कि जिसमें मेरा नाम मौजूद हो
और मेरी हाज़िरी लग सके
पर किसी ने पुकारा नहीं मेरा नाम
नहीं लौटना
अब मुझे इस ज़मीं पर नहीं लौटना
हाज़िरी के बग़ैर
इस ज़मीं से मेरा लौटना ही ये साबित करेगा
कि मैं इक फ़रिश्ता था
और इस जहाँ में ग़लत आ गया था।

शारिक़ कैफ़ी (जन्म : 1961) उर्दू के आधुनिक शाइरों में से एक हैं। यहाँ प्रस्तुत नज़्में उर्दू से हिंदी में उन्होंने ख़ुद लिप्यंतरित की हैं। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 23वें अंक में पूर्व-प्रकाशित। शारिक़ कैफ़ी से और परिचय के लिए यहाँ देखें : सबसे बड़ा ख़ौफ़ सच हो गया

1 Comments

  1. Nimisha singhal मई 7, 2020 at 2:26 पूर्वाह्न

    वाह! शानदार रचनाएं
    साहित्य पिपासु लोगों के लिए साहित्य सागर है ये
    निमिषा सिंघल

    Reply

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