ख़ालिद जावेद की नज़्में ::
उर्दू से लिप्यंतरण : मुमताज़ इक़बाल
ड्रैकुला की तलाश में
तुम अब कहाँ होगे?
अपने बेहद सफ़ेद और नुकीले मुड़े हुए
दो दाँतों के साथ
ख़ून होंटों, मुर्दा रुख़सारों और
सफ़ेद जिस्म के साथ
तुम अब किस सफ़र पर निकल गए हो?
शायद गरजते हुए अँधेरे पानियों के ऊपर
बहते हुए ताबूत और चरमराते हुए
तख़्तों के साथ
तुम कहीं चले जा रहे होगे
बुलंद-ओ-वीरान काई लगी दीवारों से
उतरा करती हैं अब भी उदास छिपकलियाँ
तारीक रातों में
किसी रौशनदान के शीशे पर
अपने पर मारा करती है एक तन्हा चमगादड़
तो तुम अब वाक़िअ’तन बूढ़े हो गए होगे
तुम्हारी हथेलियों के बाल झड़ गए होंगे
क्या तुम अब भी डरते होगे?
ता’वीज़ों से, दुआ’ओं से
लहसुन के फूलों से और मुक़द्दस रोटियों से
अब बिखरी हुई शकर पर मक्खियों के झुंड नहीं आते
तुम्हारे ग़मगुसार भेड़िये भी न जाने
जंगल की किस पगडंडी में खो गए हैं
लेकिन मुझे यक़ीन है
तुम जहाँ भी होगे
ज़िंदा ही होगे
हज़ारों साल पुरानी मकड़ियों की तरह
अपनी मज़्लूम नस्ल का सारा बोझ
अपने काँधे पर लिए
सदियों पुरानी ला’नत का तौक़ गले में डाले
घने दरख़्तों पर उल्टे लटके चमगादड़ों की तरह
मेरी दुआ है
अब तो कोई मेहरबान आए तुम पर रहम खाए
तुम्हारे दुखों का ख़ात्मा कर दे
ब्लैक होल
वो लहू भरा, काई भरा
मज़बह का पुराना तालाब
चाँद के सफ़र से बे-गाना था
बे-वुसअ’त तालाबों में पोखरों में
वैसे भी ज्वार-भाटे नहीं आया करते
फिर वो तो
मज़बह का बिसाँध भरा मुर्दा तालाब था
मगर चाँद की अपनी अख़लाक़ी ज़िम्मेदारी थी
चाँद को उसे बचाना था
बोसीदा खड़िया
फ़ुज़्ले के ढेर की शक्ल में बदल जाने से
वो गाढ़े सियाह कीचड़ से
बिल्कुल ही ढक भी सकता था
चाँद को ये सूरत-ए-हाल क़तई’ भी गवारा न थी
वो मुक़र्ररा औक़ात में
सियाह रात में
गधों और चीलों की ग़ैरहाज़िरी में
तालाब की
बे-अंत लहू-ज़दा सीढ़ियाँ
एक-एक करके उतरा करता
काले सड़ते हुए पानी में
उतरते वक़्त
चाँद
अपने दोनों हाथ उठा कर
दुआ माँगता
उसे किसी मद्द-ओ-जज़्र से आश्ना कर दे
मगर न जाने क्या होता कि
वहाँ पैर रखते ही
चाँद ख़ुद
ग़र्क़ हो जाता
उसे चंद्रशेखर ने बताया ही न था
कि काले पानी में कोई अक्स हलकोरे नहीं मारता
सब कुछ ग़र्क़ हो जाता है
रौशनी भी
तीरगी भी
हारी हुई बाज़ी
तुम तब बीमार थीं, तुमने
चीख़ कर मुझे सीने से लगा लिया
और तेज़ गर्म साँसों के दरमियान
मेरे कान में कहा—
‘तुम मेरे गुड्डे हो’
अँधेरी सियाह रात में
तुम्हारी हथेली पर
एक मोमबत्ती पिघलती रही
रात बहती रही
फिर तुम्हारी चूड़ियाँ ज़ोर से खनकीं
और मेरे माथे पर एक गर्म आँसू जलने लगा
अब तुम सेहतयाब हो गई हो
और वो मिट्टी का छोटा-सा सफ़ेद ख़रगोश
टूट गया है
जो मैं एक मेले से लाया था
और एक बंदर भी तो था
वो भी टूट ही गया होगा
अब तुम उन टूटे खिलौनों को कहीं डाल दो
क्यों उन्हें संदूक़ में बंद रखती हो
गुड्डे, ख़रगोश और बंदर से खेलने की उम्र गई
चलो ताश की एक गड्डी ख़रीद लाएँ
और सजे हुए कमरे में
एक-दूसरे के साथ तुरुप चाल खेलें
लोग तुम पर हँसेंगे तो फिर क्या
बड़े बुज़दिल हो
क्या तुमने देखा नहीं कि
ज़ब्ह के लिए
ले जाए जाने वाले जानवरों के
सिर पर भी कभी-कभी
हमदर्दी से हाथ फेर दिया जाता है
या उनके कान या पीठ को यूँ ही बे-वज्ह
थपथपा देते हैं
गो उनसे उनकी जाने वाली जानों को
किसी क़िस्म का फ़ाइदा पहुँचने का
क्या तुम्हें कभी तौफ़ीक़ हुई कि
किसी शाहराह से गुज़रते वक़्त
तुम अपना स्कूटर रोकते और
कीचड़ में फँसे ख़ारिशी टट्टू
या नाल ठुकवाते घोड़े या बैल के
सिर पर हाथ फेरते?
ये मंज़र ज़ब्ह के मंज़र से ज़ियादा हौलनाक हैं
मगर तुम मज़हका-ख़ेज़ बन जाने से डरते हो
तुम सोचते हो लोग हँसेंगे
मगर सुनो
ऐसी भी बुज़दिली और नामर्दी क्या
ज़वाल की भी कोई हद है
ये किसने कहा था
मज़हका-ख़ेज़ी का डर है
वहाँ नेकी नहीं है
अब भी वक़्त है
बुज़दिली छोड़ दो
मज़हका-ख़ेज़ बन जाओ
मर्दाना संजीदगी
जी हाँ
मैंने अपने चेहरे से
मूँछें साफ़ कर दी हैं
मुझे इल्म है कि
मेरा ऊपरी होंट बेहद पतला है
इस सूरत में
अगर मैं पान भी खा लूँ
तो मेरा चेहरा शोहदों से मिलने लगेगा
मगर मैं वाक़िफ़ हूँ
अपने होंटों की इस क़दर चालाकी से
वो कुछ इस तरह दाइरे में सिमट जाएँगे
कि लोगों को मेरे बारे में
एक संजीदा आदमी होने का गुमान गुज़र सकता है
संजीदा नज़र आना कितना ज़रूरी है
अपनी ज़ात के फक्कड़पन और ना-हमदर्दी को
ज़िंदा रखने के लिए
नज़्म
जाने क्या हो गया था
कैसी बदशगुनी थी
ऐसा लगता था
जैसे नंगा घूमते रहना
बाइस-ए-शर्म न रहा हो
बुज़ुर्गों, बच्चों
बहन और बेटी
सबके सामने मैं
उदास, ठुकराया हुआ उर्यां खड़ा था लेकिन
दो गुदाज़, सफ़ेद, बेबाक
और मेहरबान बाँहें
दो तुलू’ होते हुए
धड़कते हुए अंगारों जैसे गर्म-गर्म
सूरजनुमा चाँद
मेरे दानों भरे
उर्यां जिस्म को भींच लेते हैं
‘इधर आओ, तुम
देखने दो सबको’
मेरे रतूबत भरे
बहते हुए बदबूदार कान पर
एक गर्म जलता हुआ बोसा
‘कितने प्यारे हो’
बाँहों की गिरिफ़्त कुछ और मज़बूत हो जाती है
आज न जाने दूँगी तुमको
बहुत भटक लिए,
बहुत दुख सह लिए
देखने दो… मुझे कोई डर नहीं’
आँख से बाहर
कशिश-ए-सक़्ल से महरूम आँसू
ख़ला में अटके रह गए हैं
तमाम ज़िंदगी का हासिल
वो एक मंज़र,
वो एक सरगोशी
वो बे-चेहरा जिस्म
अब बिल्कुल ही सय्याल हुआ जाता है
सब कुछ धुआँ-धुआँ हुआ जाता है
बाक़ी अब कुछ नहीं बचा है
बाक़ी सब कुछ नहीं बचा है
सीने में उगती काई चेहरे पर चली आई है
आँखों के बद-रौनक़ गोशों में
मकड़ियाँ लटक रही हैं
जिस्म के अंदर गहरे लहू समुंदर में कहीं
कोई इस तरह खेलता है
जैसे बच्चे पानी उछालते हैं
ख़ून का ये उछाल भयानक है कि
रगों में जमे हुए लहू की बे-जान
सर्द शाहराहें बनती जाती हैं
बाक़ी अब कुछ नहीं बचा है
जिस्म के अंदर अब
और उम्र आने से क्या फ़ाइदा?
कानों में अब सिर्फ़ मक्खियाँ भनभनाती हैं
साँसों के दोश पर हिचकियाँ आती हैं
मुँह में तअ’फ़्फ़ुन से भरी राल और लुक्नत के सिवा
कुछ भी नहीं
पैरों में सन्नाटा लोटता है, गूँजता है
बाक़ी अब कुछ नहीं बचा है
हाफ़िज़े की कोई कड़ी
जलते-बुझते जुगनुओं से मद्धम-सी रौशन है
ज़िंदगी मौत से इस तरह गले मिलती है
जैसे नियॉन लाइट से लिखे इश्तिहार जलते हैं
बुझते हैं
और दुनिया के सबसे दहशतनाक मंज़र
भरे बाज़ार में किस तरह पुर-कशिश बनते हैं
बाक़ी अब कुछ नहीं बचा है
दिल के अंदर मितलियाँ मचलती हैं
पित भड़क जाए तो बुरा होता है
अब अपना बोसीदा काई-ज़दा चेहरा
टेढ़ा और फटा चेहरा
फ़र्श पर पड़ी
ज़र्द उल्टियों में देखने से क्या हासिल?
बाक़ी अब कुछ नहीं बचा है
बाक़ी अब क्या रहा है?
बाक़ी कब क्या रहा था?
तलाश
मैं पुर-असरार और
घने जंगलों में
और चटियल मैदानों में
एक क़ब्र की तलाश में हूँ
मुझे यक़ीन है कि वो क़ब्र
कहीं न कहीं ज़रूर मौजूद है
किसी बूढ़े पेड़ तले
काई उग आई होगी उस पर
और धँस भी गई होगी वो ज़मीन में
मेरे हाथ में अगरबत्ती है न चराग़
मैं क़ब्र पर रौशनी करने नहीं जा रहा
मैं तो उस मिट्टी को देखना चाहता हूँ और
उस अँधेरे वीराने को महसूस करना चाहता हूँ
जिसमें वो महबूस है
मुझे यक़ीन है कि वहाँ भी कोई आसमान तो होगा
और जाते होंगे दूर-दराज़ मुल्कों को
हवाई जहाज़ ऊपर से
परिंदे आते होंगे वापस अपने आशियानों को
शाम ढलती होगी सुरमयी अँधेरों में
और साँप सरसराते हुए गुज़रते हों क़रीब से
मैं सोचता हूँ
मेरी ज़िंदगी उस क़ब्र से शुरू हुई थी
मेरी आँखों की तलाश उस क़ब्र के लिए है
लोग अक्सर मुझसे मेरी उदासी का सबब
पूछते हैं
उन्हें कैसे बताऊँ कि ये उदासी नहीं है,
तलाश है
उस क़ब्र की जो मेरी माँ है
जो मेरे अंदर कहीं मौजूद है
जनाज़ा
रात तारा-तारा बह रही थी
लालटेन की रौशनी मद्धम होने को थी
डरता था कोई बदशगुनी न हो गई हो
हवा के शानों पर
बैन उभरते, फिर डूब-डूब जाते थे
फिर कहीं दूर अज़ान की आवाज़ गूँजी
सपीदा-ए-सहर नुमूदार हुआ
बस इसी एक पल में
मेरी सूजी हुई आँखों ने देखा
सामने सफ़ेद, बे-दाग़ चादर से ढका
एक जनाज़ा है
बस सुब्ह की सफ़ेदी में देखा
रात कोई मर गया था
सफ़ेदी इतनी भयानक होती है
मैंने कभी सोचा नहीं था
धूप दबे पाँव
मुँडेर से उतर कर दालान में आ गई
गली क़दमों की चाप से गूँज उठी
और फिर जैसे सब-कुछ जम-सा गया
आँसू ख़ुश्क, बैन ख़ामोश
चिड़ियाँ चुप और धूप साकित
फिर उसके बाद
जनाज़ा, जनाज़ा नहीं था!
वादा
मैं तुम्हारे पास आऊँगा
तब शदीद बारिश हो रही होगी
तुम्हारे घर के दरवाज़े के नीचे दलदल होगी
वहाँ कुछ मवेशियों के खुरों के निशान भी होंगे
उन खुरों के निशानों पर
मेरे क़दम शायद तुम तलाश न कर पाओ
जब काई लगे सियाह तालाब में
किनारे उगे उदास दरख़्त के
सारे जंगली फूल गिर चुके होंगे
तब मैं आऊँगा
~~~
पता नहीं मेरे बदन की बू कैसी होगी
कीचड़ में लिथड़े फूल जैसी
मिट्टी जैसी
या मछलियों जैसी
मुझे नहीं मालूम मैं तुम्हारे पास क्यों आऊँगा
लेकिन मैंने आने का वादा किया था कभी
इसलिए मैं आऊँगा
और फिर तारीक सन्नाटे में
दूर होती हुई राह-रौ की चाप की तरह
मा’दूम हो जाऊँगा
ख़ालिद जावेद (जन्म : 1960) उर्दू के अप्रतिम कथाकार हैं। उन्होंने ‘नेमतख़ाना’ और ‘मौत की किताब’ जैसे उपन्यास रचे हैं, जिनकी गणना श्रेष्ठ भारतीय उपन्यासों में की जा सकती है। उनकी कहानियों और उपन्यासों का हिंदी में पर्याप्त अनुवाद हुआ और हो रहा है। गए दिनों ‘समास’ (अंक : 25) में प्रकाशित उदयन वाजपेयी से उनकी बातचीत काफ़ी सराही गई है। उन्होंने गाब्रिएल गार्सीया मार्केस और मिलान कुंदेरा पर उर्दू में किताबें लिखी हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत नज़्में उनकी अनुमति से उर्दू से हिंदी में लिप्यंतरित की गई हैं। मुमताज़ इक़बाल से परिचय के लिए यहाँ देखिए : नज़्म वेटिंग लाउंज में बैठी मुसाफ़िर लड़कियों के हाथ का सामान है
प्रस्तुत नज़्में पढ़ते हुए मुश्किल लग रहे शब्दों के अर्थ जानने के लिए यहाँ देखें : शब्दकोश