गद्य ::
आशुतोष दुबे

आशुतोष दुबे

आलोचना का अकाल

चेक कवि मिरोस्लाव होलुब ने लिखा है : ‘‘कविता नाम वापिस लेने की प्रक्रिया में संभव होती है।’’ अगर इसी का विस्तार करें तो आलोचना शायद नाम देने की प्रक्रिया में संभव होती है। यह रचना और आलोचना की संभवतः परस्पर अंतर्क्रिया है जिसमें रचना यह नाम तज देने की कोशिश में फिर आकार लेती है और आलोचना रचना का नया नाम ढूँढ़ने की कोशिश में। लेकिन यह तो तब होगा जब रचना, स्वीकृति के बने-बनाए कठघरों से कतराए और आलोचना, रचना की लगाम थाम कर उसे मनचाहे रास्तों पर ले जाने से। व्यवहार में हम आलोचना को रचना के अनुकूलन और अधिग्रहण के उपकरण के रूप में पाते हैं। हमारे समय में आलोचना का प्रधान उद्यम मुख्यतः कृति के साथ संबंध बनाने की बजाय किसी प्रकार अपनी वैचारिकी का रक़बा बढाना है। इसी कोशिश में उसका सुर कुछ अधिनायकवादी हो जाता है। किसी सृजनात्मक अनुभव के समक्ष विनम्रता से प्रस्तुत होने की बजाय वह अपनी माँगें रखने लगती है और निर्देशित करने लगती है। उसके फ़र्मे में न अँटने वाली हर रचना ख़ारिज होती है और अँटने वाली अधिमूल्यित। इससे रचना का तो कुछ ख़ास बनता-बिगड़ता नहीं, लेकिन आलोचना के दुर्भिक्ष की स्थिति बन गई है।

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आलोचना पंक्तियों के बीच में ही नहीं, शब्दों के पीछे भी देखती है। इस अर्थ में वह अवचेतन के कारोबार की पड़ताल करने वाली एक चेतस कार्रवाई भी है। वह रचना में प्रयुक्त शब्दों, वाक्य-विन्यास, अंतराल और यहाँ तक कि विराम-चिह्नों में भी स्वयं रचनाकार से छुपे रहे आए सूत्रों के एक नए आलोक में देखने-दिखाने की हिकमत है। एक अच्छी रचना सिर्फ़ कथ्य तक सीमित नहीं होती, कहन के ढब से भी अपने अर्थों को व्यंजित करती है। आलोचना की नज़र उस कहे और अनकहे, उसमें बाधक या सहायक तत्त्वों पर भी जाती है। देवीशंकर अवस्थी ने आलोचना को विवेक का रंग ठीक ही कहा है। किसी आलोचना को पढ़ते हुए जितना रचना सामने आती है, उससे कहीं ज़्यादा वह आलोचक की सामर्थ्य और सीमाओं का एक्सरे भी प्रस्तुत करती है। रचना में तो लुकने-छुपने की थोड़ी-बहुत गुंजाइश हो भी, मगर आलोचना तो खुले मैदान में आना है जहाँ फ़ौरन दिख जाता है कि आप कितने पानी में हैं। एक अल्पप्राण आलोचना रचना की कथ्यगत एक्ज़िबिशनिस्ट तरकीबों पर ही रीझ कर रह जाती है जो रचना और आलोचना दोनों का सहमरण है। जहाँ इस आसानीपसंद आलोचना को ये सुविधाएँ नहीं मिलतीं, वहाँ उसकी खीझ कभी-कभी रचना को ख़ारिज करने या नज़रअंदाज़ करने की कोशिश में देखी जा सकती है।

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आलोचना कभी-कभी रचना को अबूझ, अस्पष्ट, दुर्बोध आदि मान कर इस उलझाव का आरोपी रचनाकार को ठहराते हुए उसके विरुद्ध फ़ैसला देती है। कई बार इसका उल्टा भी देखने को मिलता है। बौद्धिक टफ़नेस की माँग भी होती है और उसकी शिकायत भी। इस संदर्भ में मुक्तिबोध की शमशेर के बारे में यह टिप्पणी (जो उनकी अपनी कविताओं के लिए भी कारगर सूत्र देती है) ज़रूर देखी जानी चाहिए :

‘‘शमशेर पर लगाया गया यह दोषारोप कि वह उलझे हुए हैं और उनकी बात समझ में नहीं आती, उस आदत को सूचित करती है जिसे हम सामान्यीकरण की आदत कह सकते हैं। चिंतन के अनुशासन से विहीन व्यक्ति भी बहुत आत्मविश्वास के साथ सामान्यीकरण करता रहता है। सामान्यीकरणों की इस आदत को ही हम यांत्रिक विचार-शैली कहते हैं। यांत्रिक विचारणा विशिष्ट के आंतरिक ताने-बाने, उसकी मौलिक विशेषताएँ, और उसके समृद्ध रूपतत्त्व की उपेक्षा करके चलती है। यांत्रिक विचारणा से अनेक हानियाँ हुई हैं। साहित्य-चिंतन में यांत्रिक विचारणा की कमी कभी नहीं रही। विशिष्ट की मौलिकता की क़ीमत पर अर्थात् उसकी मौलिकता की उपेक्षा करते हुए जो सामान्यीकरण होगा; वह छिछला, सतही और यांत्रिक होगा।’’

कहने की ज़रूरत नहीं कि रचना की मौलिकता की उपेक्षा करने वाली जिस आलोचना की बात मुक्तिबोध कर रहे हैं, वह स्वयं अपनी मौलिकता से भी विरत होगी। लेकिन यहीं वह महीन पहचान भी ज़रूरी है जिसके तहत विशिष्टता के सर्वाधिकार सिर्फ़ गूढ़, दुरुह और अपरिचित ही के पास सुरक्षित नहीं होते। आलोचना को इस पर भी सतर्क निगाह रखनी होती है कि कहाँ जटिलता को एक सचेत कार्रवाई के रूप में छोड़ा गया है और सादगी को एक टूल की तरह प्रयुक्त किया गया है। अगर रचना में भलीप्रकार यथास्थान सजा दिए गए वक्तव्यों, घोषणाओं, सपाट कथनों, विवरणों, वर्णनों, प्रतिक्रियाओं, टिप्पणियों आदि को ही काव्य सत्य और यहाँ तक कि कवि सत्य समझ लेना एक तरह की कूढ़मगज़ी है (जो पिछले दिनों तथाकथित राजनीतिक कविताओं को सेलिब्रेट करने में ख़ास तौर पर देखी गई है) तो दूसरी तरफ़ सहजता और प्रत्यक्षता के अंत:सूत्रों को खोजने-जाँचने की बजाय स्नॉबरी दिखाते हुए उन तमाम रचनाओं को, जो जीवनानुभवों को एक ईमानदार पारदर्शिता के साथ व्यक्त करने के लिए प्रयत्नशील हैं, ख़ारिज करना एक अन्य प्रकार की जड़ता का शिकार होना है। साहित्य के जनतंत्र की सर्वोच्च विशेषता यही है कि यहाँ कोई किसी के किए रद्द नहीं होता। निर्मल वर्मा ने सही ही कहा है : ‘‘यदि आलोचना की मर्यादा इसमें है कि वह तटस्थ होकर नहीं, अपने विश्वासों और आग्रहों के साथ कलाकृति से मुठभेड़ करती है तो उससे ऊँची मर्यादा यह है कि ज़रूरत पड़ने पर वह अपनी उन सब कसौटियों और मापदंडों को त्याग सकती है जो उस कलाकृति के सामने झूठी और अप्रासंगिक बन गई हों।” ज़ाहिर है छोड़ने की यह तजवीज़ तमाम विचारसरणियों के लिए समान रूप से प्रासंगिक है।

आलोचना की सत्ता एक पाठकन्यून समाज में और भी प्रभुत्वसंपन्न होती है। लेकिन अधिक सत्ता के साथ अधिक ज़िम्मेदारियाँ भी आती हैं। देखा जाना चाहिए कि आलोचना की नज़र कहाँ टिकती है? क्या वह देखे हुए को ही बार-बार देखना है या उसकी नज़र अलक्षित, किंतु महत्त्वपूर्ण पर भी जाती है। आलोचना परीक्षण और पुनर्परीक्षण की जगह है, पुनरावृत्ति की नहीं। जो आगे बढ़कर ख़ुद को नहीं दिखा रहा, उसे भी देखना आलोचना का ज़रूरी काम होना चाहिए। आलोचक का काम किनारे पर बैठ रचनाकारों के बाज़ार भाव को भाँपते हुए अभिषेक करने को तत्पर पुरोहित की भूमिका में कृतार्थ होना नहीं है। सोशल मीडिया पर गुलाटियाँ खाने वाले रचनाकारों ने इन पुरोहित आलोचकों को बहुत चकरघिन्नी बनाया है। पत्रिकाओं के दौर में लेखक को ख़ुद को साबित करने की चुनौती बड़ी थी। अच्छे कवि का नोटिस लेने में कई बरस लग जाते थे। कहानीकार को भी दो चार अच्छी कहानियाँ तो लिख ही लेनी पड़ती थीं। आज तो आत्मविज्ञापन, प्रकाशक-प्रायोजन, आत्माभिनंदन से जो धूल उड़ती है कि कल आए आज कालिदास हो गए। तात्कालिक मूल्यांकन बेहद हावी है; समूह बनाकर परस्पर प्रमोशन के धतकरम भी। अपने जनतंत्र के विस्तार की क़ीमत साहित्य को चुकानी ही पड़ेगी। यह अपरिहार्य है, क्योंकि हर डील एक पैकेज डील होती है। आलोचक का काम अब और मुश्किल है। उसे इस धुंध के पार भी देखना है और ख़ुद धुंधलका पैदा करने से बचना भी है।

बहुत कठिन है डगर पनघट की।

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अध्यापकीय आलोचना की बहुत निंदा होती है। लेकिन अध्यापकीय आलोचना का बहुत अवदान भी है। बहरहाल, यहाँ उसकी चर्चा में नहीं जाकर कहना है कि नए के प्रति जो उत्सुकता अँग्रेज़ी के अकादमिक क्षेत्र में मिलती है, उसका दस प्रतिशत भी हिंदी के अकादमिक परिसर में नहीं मिलता।

एक उदाहरण से कहना होगा। अरुंधति रॉय का ‘गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ 1997 में आया। तुरंत उस पर पर्चे, लेख आदि लिखे जाने लगे। आज उन लेखों को इकट्ठा करके बनाई गईं क़रीब पच्चीस से ज़्यादा किताबें होंगी। इन आलेखों, पर्चों के लेखक कौन हैं? अँग्रेज़ी के, ज़्यादातर युवा प्राध्यापक। इसी के आस-पास अलका सरावगी का ‘कलिकथा : वाया बाईपास’ आया। उस पर कितना काम हुआ होगा? छुटपुट शोध हुए हों तो हुए हों, इतनी संख्या में तो कोई प्रकाशन नहीं।

हाँ, यह उत्साह हर कृति के लिए नहीं होता। वह पुरस्कृत हो, चर्चित हो तो अवश्य होता है। बुकर, पुलित्ज़र आदि पुरस्कार मिल जाएँ तो उस कृति पर दनादन शोधपत्र, लेख आदि लिखे जाने लगते हैं। मगर ‘कलिकथा…’ को भी तो साहित्य अकादेमी मिला था। हमारे अकादमिक परिसर में उसे लेकर सन्नाटा ही रहा। लघु पत्रिकएँ अपनी सीमा में समीक्षाएँ छापती हैं, बस, उतना ही। उसमें भी न जाने कितने कैसे-कैसे समीकरण।

इस तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि अँग्रेज़ी में भी यह उत्साह पुरस्कृत चर्चित ‘फ़िक्शन’ के लिए जितना होता है, उतना कविता के लिए नहीं। वजहें साफ़ ही हैं। हिंदी में तो समकालीन कविता आउट ऑफ़ कोर्स ही है, प्राध्यापकों के लिए भी।

हिंदी में, मुझे मेरे कथाकार मित्र क्षमा करें, जब वे अपने उपन्यास-कहानियों पर किए गए एमए-एमफ़िल या यहाँ तक कि पीएचडी के शोध-प्रबंधों पर गदगद् होकर उसकी सूचना यहाँ देते हैं, मैं उन कृतियों के उस शोध-प्रबंध में हुए संभावित हश्र को लेकर डर जाता हूँ। उनकी ख़ुशी स्वाभाविक है और मेरा डर भी। इसकी वजह उनके स्तर को बख़ूबी जानना है।

अध्यापन से जुड़े मित्र भी इसे जानते ही हैं। हिंदी का समकालीन साहित्य अकादमिक क्षेत्रों में आज भी उपेक्षित ही है, क्योंकि ज़्यादातर शहरों-क़स्बों के हिंदी प्राध्यापक उससे विमुख हैं। एक बड़ा क्षेत्र, जहाँ से नए आलोचक आ सकते थे, इसलिए आलोचना की समग्र विपन्नता का एक कारक बना हुआ है। वही घिसे-पिटे विषय : ‘साठोत्तरी कहानी : एक मूल्यांकन’ और ‘प्रेमचंद साहित्य में सामाजिक मूल्य : एक अनुशीलन’ आज भी चल रहे हैं; और उन्हें खोल कर देखने पर ग़श आ सकता है।

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कुछ नाम इन्होंने लिए, और कुछ उन्होंने। कुछ छूट गए। कुछ हमेशा छूट जाएँगे। कुछ हमेशा छोड़ दिए जाएँगे।

नाम लेते वक़्त क्या आप सिर्फ़ लेखन देखते हैं? या ये देखते हैं कि ये अपने वाला यानी अपनी विचारधारा वाला है कि नहीं? अपना एजेंडा बढ़ा रहा है या नहीं? या अपने व्यक्तिगत संपर्क में (रहता) है कि नहीं? या अपने प्रति विनयावनत है या नहीं?

हर नाम लेने वाले में नामवर (सिंह) जी की रूह समा जाती है। वह नाम लेते थे तो नामित को साल दो साल का ही सही, एक संक्षिप्त स्टारडम मिलता ज़रूर था। भीतर ही भीतर तो वह ज़िंदगी भर पोमाता होगा।

पर क्या करें कि वैसी खनक और किसी को नसीब नहीं हुई।

इससे क्या? नाम लेने से शुकराना बढ़ता है। शुकराना बढ़ता है तो जलाल बढ़ता है। कहीं कहीं कुछ मलाल भी बढ़ता है।

जैसा था, आलोचना का अकाल वैसा ही रहता है।

आशुतोष दुबे हिंदी के सुपरिचित कवि-लेखक हैं। उनके चार कविता-संग्रह प्रकाशित हैं। यहाँ उन्होंने हिंदी आलोचना को आत्मालोचना के लिए विवश/प्रेरित करने वाली कुछ ताज़ा बातें की हैं। वह इंदौर (मध्य प्रदेश) में रहते हैं। उनसे ashudubey63@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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