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तसनीफ़ हैदर

urdu poet Tasneef Haidar 1 3
तसनीफ़ हैदर

…और एक दोस्त ने यूँ ही सा सवाल पूछ लिया कि आप मुशायरे में क्यों नहीं जाते? मैंने कहा कि ऐसा नहीं कि बिल्कुल नहीं जाता, मगर जिन अदबी और शे’री महफ़िलों में मैं जाता हूँ, उन्हें मुशायरा कहा जा सकता है या नहीं, इस पर ज़रूर सवालिया निशान क़ायम हो सकता है। ये सब बातें तो सभी करते हैं कि अब मुशायरा एक इंडस्ट्री है या इसमें ख़राब शाइर वग़ैरह शामिल होते हैं, आज मैं उनसे भी कुछ अलग मुशायरे के ऐसे दिलचस्प और अनोखे पहलुओं पर बात करना चाहता हूँ, जिनसे हमें कुछ सोचने-समझने का मौक़ा मिले। अभी कुछ दिनों पहले जब थोड़ा बहुत कंगाली का दौर फिर से छाया तो उसी मौक़े पर एक अज़ीज़ ने विशाखापट्टनम के किसी मुशायरे में शिरकत की राय पेश की। उनकी करम फ़रमाई ही थी कि मुझे इस अज़ाब से मुकम्मल तौर पर बचाने के लिए वो ख़ुद भी मेरे साथ तशरीफ़ ले गए। मेरे लिए ये ज़िंदगी में हवाई जहाज़ का पहला सफ़र था, इससे पहले सिर्फ़ पर तोलने का नाम ही सुना था, मगर ये मुहावरा है क्या बला, एयरपोर्ट पर क़रीब-क़रीब तीन साढे़ तीन घंटे बैठ कर बात समझ में आई। कन्वीनर ने जो हरकतें कीं उसका बखान तो कभी और करूँगा मगर असल बात ये कि मुशायरे में जिस क़िस्म के शाइरों ने शिरकत की थी, उसे देखकर ये महसूस हो रहा था कि ये हलीम की दावत जैसी कोई चीज़ है, जहाँ स्कार्फ पहन कर, फटे बाँसों चिल्लाने वाली कुछ औरतें और हाथ हिला-हिला कर हवा में करतब दिखाने वाले कुछ मर्द हज़रात जमा हो गए हैं।

मैंने स्टेज पर बैठने से तो वैसे ही मना कर दिया था, सामने बैठा रहा, तारिक़ फ़ैज़ी बराबर में विराजमान थे। मुशायरा चलता रहा और हम खिल्लियाँ करते रहे। और कर भी क्या सकते थे। हालात जब बहुत ख़राब हो जाएँ तो उन पर सिर्फ़ हँसा जा सकता है। सोचने की बात ये थी कि एक-एक शाइर पर कम-अज़-कम चालीस-पचास हज़ार रुपए ख़र्च हुए थे, जिस क़िस्म का वो हॉल था, दो-ढाई लाख से कम उसका किराया क्या रहा होगा। एक बड़ा-सा पोस्टर पीछे लगा था, जिस पर सियासी लीडरों की तस्वीरें यूँ ठुँसी और फँसी हुई थीं , जैसे जुमे के रोज़ नमाज़ियों की सफ़ें होतीं हैं। लोगों की भीड़ से लगता था कि उर्दू शाइरी क़िस्म की इस मिस्कीन-सी चीज़ को सुनने के लिए अभी भी कितने लोग उमड़ पड़ते हैं, बाद में मालूम हुआ कि उनमें से ज़्यादातर खाने की जुस्तजू में चले आए थे।

मुशायरे की शुरूआत हम्द से हुई, यानी ख़ुदा की तारीफ़ से। क्या अजीब इत्तिफ़ाक़ है, जिस शाइरी का ज़्यादातर अच्छा कलाम ‘कुफ़्र’ और ‘बुतों की पूजा’ जैसी ख़ूबसूरत बातों से भरा पड़ा है, उसी को हरी टोपी पहनाने में हमारे मुशायरा-दारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। भाई, हम्द नात और मनक़बत के लिए कोई और मैदान रखिए, ऐसे नूरानी दाढ़ी वाले कहीं और जमा कर लीजिए, मस्जिदें और उनसे लगे हुए मैदान उसके लिए बेहतरीन जगह हैं, मगर यहाँ तो उसका पीछा छोड़िए। और फिर ये देखकर तो मेरी हँसी ही छूट गई कि जैसे ही ये कलाम तरन्नुम से पढ़ा जाने लगा, स्टेज और सामईन में बैठी हुई औरतों ने दुपट्टे ओढ़ कर कस लिए। क्या ज़बरदस्त आडंबर है, आदमी को शर्म भी नहीं आती कि वो ख़ुद के साथ कैसा मज़ाक़ कर रहा है। आप शाइरी सुनने जमा हुए हैं या ख़ुदा की तारीफ़।

अब सवाल ये पूछना चाहिए कि उर्दू को भारत में गंगा-जमुनी तहज़ीब का दूसरा नाम मानने वालों से अगर ये कहा जाए कि भाई इस मुशायरे से पहले गायत्री मंत्र या फिर कोई भजन वग़ैरह पढ़ा जाएगा तब भी क्या वो ऐसे ही बा-अदब और मुतमईन नज़र आएँगे। आपको अगर जानना है कि उर्दू अस्ल में मुसलमानों की ज़बान क्यों कहलाती है तो ऐसे ही मुशायरों का रुख़ कीजिए।

कलाम-वलाम तो ख़ैर जितना ख़राब पढ़ा जा सकता है, इन मुशायरों में पढ़ा ही जाता है। इल्म के हिसाब से उन लोगों की सलाहियत बेहद मामूली होती है। मुझे मालूम हुआ कि मुसलमानों की परेशानियों को उजागर करने वाले एक बेहद सस्ते क़िस्म के तुकबंदिए को भारत में एक बड़ा अवार्ड दिया गया है। अब कोई ये सवाल करे कि इस सोसाइटी में जहाँ जाहिलों की ऐसी क़दर हो, जो अख़लाक़ की मौत से लेकर तीन तलाक़ जैसे अहम मसाइल को अपनी भोंडी शब्दमाला में पिरो कर ऐसी ‘नज़म’ बना देते हों जिन पर जज़्बात से बोझल मुसलमानों के हुजूम की आँखें नम हो जाएँ तो आपको पूछना होगा कि हुकूमत ऐसे लोगों को किस चीज़ के लिए अवार्ड दे रही है? मुसलमानों को और ज़्यादा कम्युनल बनाने के लिए? उर्दू के एक निहायत ख़राब शाइर हैं कोई, उन्होंने किसी मुशायरे में कोई शे’र पढ़ा, जो मुझे याद तो नहीं मगर फेसबुक पर उसके बहुत से पोस्टर देखे हैं। हज़रत ने जो कुछ लिखा है, उसका लुब्ब-ए-लुबाब ये है कि अगर आग लगी तो सभी के घर जलेंगे, यहाँ सिर्फ़ हमारा ही मकान तो नहीं है। और इस शे’र पर लोग तालियाँ बजाते हैं, फेसबुक पर उनको शेअर करने और उन्हें लाइक करने वालों की तादाद हज़ारों, लाखों में है तो क्या उनसे नहीं पूछना चाहिए कि भाई! ये हमारा मकान क्या चीज़ है। क्या आप इससे किसी ख़ास मज़हब के लोगों को इस बात पर इत्मीनान नहीं दिला रहे हैं कि परेशान मत हो, तबाही हुई तो तुम्हारे साथ दूसरे मज़हब के मानने वालों के घर भी जलेंगे और वो भी बर्बाद होंगे। इस फ़िक्र में और उस फ़िक्र में कितना फ़र्क़ है, जो कहती है कि दूसरे मज़हब के मानने वालों को मारने के लिए अगर ख़ुद को भी जान से जाना पड़े तो कोई बुराई नहीं।

मैं मानता हूँ कि ठीक यही हालत वीर रस की ‘कवीता’ की हिंदी में हो चुकी है। वीर रस नामी इस सिन्फ़ के लिखने वाले दिन-रात पाकिस्तान की तबाही और बर्बादी की बात करते हैं, और बदले में वाहवाही लूटते हैं। अहम बात ये नहीं है कि आप किसी ख़ास मुल्क की बर्बादी की बात कर रहे हैं। अहम और ख़तरनाकतरीन बात ये है कि आप बर्बादी की बात कर रहे हैं, मौत की बात कर रहे हैं। इस तरह के लोग ये फ़र्क़ नहीं समझते कि कोई पूरा मुल्क कभी दहश्तगर्द नहीं होता। वहाँ की अवाम के भी प्रॉब्लेम्ज़ उतने ही ज़मीनी और सामने के हैं, जितने कि आपके हैं। फिर हम तीसरी दुनिया के रहने वालों को तो फिर भी ये इल्ज़ाम किसी और पर नहीं रखना चाहिए। क्या हम हिंदुस्तानी, अपनी हुकूमत से किसी सही या जायज़ बात को मनवाने में इतने ही कामयाब हैं? पाकिस्तान के भी वो लोग जो अमन चाहते हैं, वो भी हमारी तरह मजबूर हैं। उनकी भी कोई नहीं सुनता। और ऐसी तादाद कम नहीं है, मगर प्रॉब्लम है चीज़ों को रंगों में देखने की। मकानों को तक़सीम करने की। किसी मुल्क को बर्बाद और नीस्त-ओ-नाबूद कर देने की सोच पैदा होने की। मैंने इस बात पर ऐतराज़ किया और हमेशा किया है कि मुशायरे में अल्लाह रसूल की बातें नहीं होनी चाहिए, उसी तरह जिस तरह वहाँ विष्णु और ब्रह्मा की बातें नहीं होतीं, मैं इसी नहज पर ये भी कहूँगा कि वीर रस की ‘कवीता’ के नाम पर पाकिस्तान को बर्बाद कर देने वाली धमकियों जैसी ज़बान का इस्तिमाल भी बंद होना चाहिए, ये हमारी अगली पीढ़ियों को वरग़लाने वाली सोच है। उन्हें भी हमारी तरह वहशी और पागल बनाने वाला अमल है। मुशायरे के किसी ऐसे ही सस्ते शाइर को फेसबुक पर मैंने एक दफ़ा देखा, जब लाहौर में कोई ख़ुदकुश धमाका हुआ था, मौसूफ़ ने कोई शे’र लिखा, जिसमें कहा कि लाहौर में धमाका हुआ तो दिल्ली में ज़रूर जश्न हो रहा होगा। इस पर मैंने और अभिषेक शुक्ला, दोनों ने एतराज़ किया था। वहाँ उन्हें अन-फ़्रेंड भी कर दिया। मगर सोच का क्या करें और ये सोच शाइरी जैसी ग़ैर-जानिबदार, सेक्युलर फ़ॉर्म तक कैसे पहुँचती है। हम आज भी अगर ज़बानों और मज़हबों के मुआमले में इक़बाल और भारतेंदु हरिश्चंद्र की कट्टर सोच को बढ़ावा देते रहे तो ये कैसे मुम्किन है कि हम इस काम को कारामद भी कह सकें।

अब तो वो लोग भी जो उर्दू के बड़े ख़िदमतगार होने का दावा करते हैं, देवनागरी में अच्छे शाइरों की किताबें शाया करके सीना फुलाते हैं। अपने मुशायरों और जलसों में एक क़िस्म के सेलेब्रिटी कल्चर के हामी नज़र आते हैं। मगर वो ये नहीं जानते कि समाज लिखने वालों से नहीं, पढ़ने वालों से बनता है। लिख तो वो लोग भी लेते होंगे, जिनको घर में सबसे छोटा होने पर हिस्से में माँ आ जाने का सख़्त अफ़सोस हो, मगर पढ़ते सब लोग नहीं हैं। अफ़सोस की बात ये है कि शाइरी के मुआमले में वो लोग भी एक सतही सोच से आगे नहीं बढ़ पाते, जिन्हें आप समाज में अहम, पढ़ा-लिखा और माक़ूल इंसान समझते हैं। कई ऐसे पत्रकार हैं, जिनको मैं पसंद करता हूँ, वो लिखते भी अच्छा हैं , सोचते भी कमाल का हैं, मगर शाइरी का नाम आते ही ऐसे-ऐसे हल्के और मशहूर लोगों के नाम लेते हैं कि उनसे हाथ मिलाते ही बनता है।

मैंने मुशायरों के मुआमले में एक आदमी को बहुत हद तक संजीदा पाया है और वो तारिक़ फ़ैज़ी हैं। तारिक़ का मुआमला ये है कि उन्होंने रफ़्ता-रफ़्ता इस मुआमले में अपनी तरबियत की है। उन्होंने ख़राब शाइरों से किनारा किया। वो कोशिश करते हैं कि अच्छे और संजीदा शाइरों को बुलाया जाए। अच्छे शाइर का जब मैं ज़िक्र करता हूँ तो मेरी मुराद पाकिस्तान से ज़ुल्फ़िक़ार आदिल और भारत से शारिक़ कैफ़ी जैसे शाइरों की होती है। इस वक़्त मुशायरे में पढ़ने वाला वही आदमी मोतबर है, जो तारिक़ फ़ैज़ी के यहाँ मुशायरा पढ़ चुका हो, क्योंकि उन्हीं में इतनी हिम्मत मैंने देखी है कि वो किसी तुकबंद को, चाहे वो शोहरत के सातवें आसमान पर क्यों न हो, दफ़ा करने में देर नहीं लगाते। मेरा ज़ाती तौर पर मानना है कि अच्छे शाइरों को, ऐसे ढंग के मुशायरे कराने चाहिए, जहाँ सिर्फ़ बेहतर कलाम सुना या पढ़ा जा सके। तफ़रीह की ही चीज़ सही, दिल बहलावे की ही चीज़ सही, मगर ये इल्म-ओ-फ़न का एक हिस्सा है, इसे इस तरह बर्बाद होते देखना कभी-कभी बुरा भी मालूम होता है।

पता नहीं किसे याद है, मगर मैंने उर्दू की एक मैगज़ीन ‘दुनिया ज़ाद’ में पाँच या छह बरस पहले भारत की नई उर्दू शाइरी करने वाली पीढ़ी के तअल्लुक़ से एक आर्टिकल लिखा था, उसमें सात-आठ शाइरों का कुछ कलाम भी शामिल किया था। अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि इन शाइरों में से ज़्यादातर अब इन्ही मुशायरों के दाम में आकर, सतही और बुरी शाइरी करने लगे हैं। उनमें से कुछ अभी भी मेरे बहुत गहरे दोस्त हैं, मगर जो हक़ीक़त है सो है।

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एक यादगार मुशायरे की तस्वीर

आख़िर में एक क़िस्सा बयान करता हूँ, मुझे इस पर यक़ीन तो नहीं मगर सुनते हैं कि एक दफ़ा जिगर मुरादाबादी अपनी ग़ज़ल पढ़ रहे थे, नशे की झोंक में उनके पैर से जूता निकला और किसी वज़ीर के सिर पर जा गिरा, वज़ीर साहब उस जूते को दोनों हाथों में रखकर जिगर के पास लाए और उन्हें वो जूता पहनाया। अगर ऐसा कोई मिसाली क़िस्सा सच है भी तो इसमें ग़लती वज़ीर साहब की ज़्यादा है। मुशायरे में पढ़ने वाला शाइर अगर कोई जहालत की हरकत करे तो उसे टोकना चाहिए, चुपचाप उस की ग़लतियों को बढ़ावा या इज़्ज़त देना, मुशायरे की ख़राबी-ओ-बर्बादी की एक बड़ी वजह है, और शायद उसकी शुरुआत जिगर जैसे शाइरों से ही हुई थी।

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तसनीफ़ हैदर उर्दू की नई नस्ल से वाबस्ता कवि-लेखक हैं। यहाँ प्रस्तुत लेख उर्दू में पाकिस्तान के मशहूर वेब जर्नल ‘हम सब’ पर शाया हो चुका है। ‘सदानीरा’ के लिए इसका हिंदी तर्जुमा ख़ुद लेखक ने किया है।

2 Comments

  1. ओम प्रकाश मार्च 1, 2019 at 4:51 अपराह्न

    बहुत अच्छा लगा,

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  2. जितेंद्र जवाहर दवे जुलाई 10, 2019 at 7:32 अपराह्न

    बेह्द उम्दा और ज़हीन लिखा है. आज के दौर में ऐसी ईमानदार और बेलाग़ कलम दिखने नहीं मिलती. लिखते रहिए.

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