रघुवीर चौधरी के कुछ उद्धरण ::
गुजराती से अनुवाद : भाग्यश्री वाघेला

रघुवीर चौधरी

समुद्र विशाल एवं अखंड है। जो ऊपर नहीं दिखता, वह भीतर है।

क्या जिसे हम क्षितिज कहते हैं, वह वास्तविकता है? या हम ऐसा कह रहे हैं? लेकिन हम अनंत को नहीं देख सकते, इसलिए हम ऐसी काल्पनिक सीमाओं को स्वीकार कर लेते हैं।

त्यागने की संतुष्टि और अनुभव की संतुष्टि में बहुत बड़ा अंतर है।

कौन किसके साथ आता है, इससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि कौन आता है और क्यों आता है।

जो समझता है कि वह मौन है। उसे कुछ बनने में कोई दिलचस्पी नहीं है।

यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दूसरों में रुचि का कारण मनुष्य की स्वयं में रुचि है। यह संसार स्वार्थ से जुड़ा है। यह ठोस वास्तविकता है लेकिन मनुष्य केवल वास्तविकता के सहारे नहीं जी सकता। आकाश के बिना इसका काम नहीं चल सकता। भले ही कोई आकाश को शून्य स्थान कहे…

जो रहस्य से घिरा होता है, वह अधिक सुंदर दिखता है।

किसी को जानने के बाद उसके बारे में कहने के लिए कुछ भी नहीं बचता। जो लोग ईश्वर को नहीं जानते, वे ईश्वर के बारे में सबसे ज़्यादा बातें करते हैं।

समय न तो माँगा जा सकता है और न ही दिया जा सकता है। यह निराकार, रंगहीन है। यह एक बिंदु से प्रारंभ होकर किसी बिंदु पर समाप्त नहीं हो सकता। वही अमरत्व है। इसे इस तरह बदलना हमारे हाथ में नहीं है। हम इससे तटस्थ रह सकते हैं और केवल वही विनिमय कर सकते हैं जो हमारे अधिकार में है।

भय का अनुभव केवल उन्हें ही होगा जिनको विश्वास नहीं है।

समय एक ऐसा कारक है जो बिना उत्तर के भी आगे जाकर किसी प्रश्न की तीव्रता को कम कर सकता है।

रोकर दुख कम करना कायरों का काम है। दुख हमारी रीढ़ है।

हम कहीं नहीं हैं, अगर हम कहीं नहीं हैं तो हम हर जगह हैं।

जितना आप प्रकट होते हैं और जहाँ आप प्रकट होते हैं, अपने आप पर उतना ही और केवल वहीं विश्वास करें। जो देखा नहीं जा सकता, फिर भी अस्तित्व में है, सर्वत्र है और शाश्वत है। आख़िरकार हम वही हैं।

जो वास्तविक लगता है उसे सत् नहीं माना जा सकता, वास्तविकता और सत् के बीच बहुत अंतर है।

किसी के शब्दों की लय में झूलना एक सुखद, लेकिन अचेतन निर्भरता हो सकती है।

भविष्य कभी भी किसी के लिए पारदर्शी नहीं होता। उसे हमारी ज़िद से कोई सहानुभूति नहीं है। कहने का मतलब यह नहीं है कि यह अनुचित है, लेकिन यह अकल्पनीय है।

मौन निकटता की भावना लाता है। जैसे ही बात खुलती है, तीसरी उपस्थिति की मानो चेतावनी आती है।

कुछ संकल्प आवेग के आविष्कार होते हैं, समझ का परिणाम नहीं। ये टूट जाते है और संकल्प को तोड़ना रीढ़ की हड्डी को कमज़ोर करना है।

विदाई के अनुभव की उत्कटता सिर्फ़ आँखें ही विशेषत: बयाँ कर पाती हैं।

स्त्रियों की सुरक्षा का विचार अभी भी पुरुषों के मन से नहीं गया है। यह आपकी स्त्री दयालुता और सुरक्षा में एक इच्छुक आधिपत्य का सुझाव देता है।

नरक स्वर्ग का तहख़ाना होगा।

हमारे समाज में उपकार भी इस प्रकार किए जाते हैं कि स्वार्थ अधिक निर्दोष लगता है।

जो लोग महापुरुष बन गए वे पागल हो सकते हैं।

यहाँ सच बोलना सबसे बड़ा अनादर है—आक्रामक प्रवृत्ति है।

स्मरण का संबंध अंधकार से अधिक है।

शरण या आज़ादी—और कोई रास्ता नहीं।

सतर्क रहने की क़ीमत चुकानी पड़ती है—यहाँ तक कि बेहूदगी और निराशा की स्थिति में भी।

पृथ्वी अपनी गणना में अद्वितीय है। इसकी सुंदरता को केवल पैदल यात्री ही महसूस कर सकता है।

मानव-हृदय की तरह, रेगिस्तान सागर बन जाता है और सागर रेगिस्तान बन जाता है।

मनुष्य की उपस्थिति में रेगिस्तान आभासी हो जाता है।

स्थिरता और जड़ता के बीच भी कोई स्थिति होनी चाहिए।

आँखें बंद करने के बाद कुछ भी नज़र न आए ऐसा नहीं।

धरती तो अपने कण-कण में अभिनव है।

अर्पण ही एकमात्र मार्ग है।

गति देखी तो नहीं जा सकती, अनुभव करना होता है।

प्रमाद भी एक अनुभव है।

जो तुम नहीं जानते वही एकमात्र चीज़ है जो तुम जानते हो।

मनुष्य अकेला नहीं है, वह समग्र से जुड़ा हुआ है, अनेकों पर उसकी निर्भरता अपरिहार्य है।

आँखें एक जैसी होने पर भी देखने-देखने में फ़र्क़ होता है।

शरीर अंततः अवास्तविक है।

संतोष की भाषा धीमी होती है, क्योंकि वह शब्दों और मौन दोनों में व्यक्त होती है।

स्त्रियाँ कभी क्रूरता पर नहीं रोतीं। वे दूसरों के दिए दर्द पर नहीं रोतीं। रोने के लिए उनका अपना दर्द ही काफ़ी होता है।

जानवर इंसानों जितने बुद्धिमान नहीं होते, इसलिए उन्होंने छिपने की कला नहीं सीखी है। लेकिन मनुष्य में और उनमें बुद्धि को छोड़कर बाक़ी सभी चीज़ें समान स्तर की होती हैं। उन्होंने अपनी कुटिल बुद्धि से वितरण की व्यवस्था बनाकर अपने पशुवत कर्मों को छुपाने के लिए सुरक्षित अंधकार पैदा कर लिया है।

शांति और मौन का अर्थ है—शोर का अभाव, यानी वास्तव में एक बेचैन करने वाली शांति।

कुछ भी इतना मधुर नहीं होना चाहिए कि सुनते ही नींद आ जाए और इतना प्रेरक भी नहीं कि समझने पर वैराग्य आ जाए।

हुए बिना या हो जाने के अलावा अब हमसे कुछ हो भी नहीं सकता है।

एक ज़िंदगी किनारे की भी होती है, जो बह जाने वाले को भीगी आँखों से देखती है।

पहली नज़र को प्रेम मानकर समर्पण कर देना भी पागलपन है।

मुग्धता एक भ्रामक तत्त्व है।

मनुष्य के लालच और आत्मघात का ज़हर धरती के केंद्र में काफ़ी जमा हो चुका है।

शून्य स्थान में ही स्थिरता संभव है।

जो कुछ भी आता है, वह वापस चला जाता है। निकट के खिसकते ही दूर को आँख में समाया जा सकता है।

प्रत्येक क्षण के पीछे पूरे अतीत का भार है।

शब्दों के ब्रह्मांड में सोलह-सोलह सूर्य प्रज्वलित रहे हैं। वहाँ कुछ भी बाधित नहीं है, सब कुछ पूर्ण है, प्रचुर है।

पुरुष को स्त्री को जानने में कोई दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए उसने उसे परम रहस्य कहकर पुरस्कृत किया; लेकिन वास्तव में घमंड के बहाने उसके अधिकार की उपेक्षा की गई।

एक स्त्री पूज्य होने के बजाय स्वतंत्र रहना ज़्यादा पसंद करती है, लेकिन उसे यह कौन पूछेगा?

प्रेम नाम का कोई शाश्वत सूत्र नहीं है जो जीवन भर अपनी उपस्थिति का यक़ीन दिलाता रहे।

प्रेम एक घटना में वैसा नहीं होता जैसा कि दूसरी घटना में होता है। समान प्रतीत होने वाली अन्य घटनाओं का अनुभव भी भिन्न होता है।

एक शब्द लिखने के बाद अगले शब्द पर जाने के लिए जगह पार करनी होती है।

अनिर्वचनीय है वह तो अखंड है। कहे जाने पर तो वह गल जाएगा।

दूरी रहस्य से भरपूर है।

तुम एक न रहते मेरे लिए अखिल बने रहो।

‘यह’ और ‘वह’ एक ही हैं। जो कुछ भी विविध है, वह उसी का रूपांतरण है।

ज्ञानी को कहना नहीं पड़ता, लेकिन ज्ञानी को ही कहने की इच्छा होती है।

कई बार बातों से भ्रम पैदा हो जाता है।

प्रेम के भ्रम में भी प्रेम की आंशिक स्वीकृति होती है। शायद प्रेम की समग्रता को स्वीकार करना बहुत दुर्लभ है।

सवाल सिर्फ़ अतीत को मिटाने का ही है।

समय को चित्रित नहीं किया जा सकता।

शून्य अर्थात् जो रिक्त है वह।

जो दिखाई दे वह यथार्थ हो यह ज़रूरी नहीं।

स्त्री-हृदय के मर्मकोष को जाने बिना ही बहुत कुछ कहा गया है।

बनने और होने के बीच, अब मुझे लगता है कि ‘होना’ ही काफ़ी है।

चेहरे को चेहरा कहने की अपेक्षा उसे अनंत सौंदर्य का दर्शन कहना सत्य के अधिक निकट होगा।

कुछ भी आकस्मिक नहीं है, सब कुछ क्रमिक है।

यदि शंकाओं का उचित समाधान नहीं किया गया तो वे विनाश की ओर अग्रसर करती हैं।

सिर्फ़ विश्वास करने से काम नहीं चलता। आश्वस्त भी होना चाहिए—अनुभव से।

पूर्वकल्पित धारणाओं से किसी को समझना सही नहीं है। सच्ची पहचान उसके आचरण से ही मिल सकती है। लेकिन व्यवहार प्रासंगिक है। क्या यह व्यक्तित्व के सुसंगत पहलुओं का परिचय दे सकता है? अन्यथा व्यवहार भी भ्रामक है। धारणा भी भ्रामक है। अनुभव भी भ्रामक है… तो सच क्या है? लेकिन सत्य भी धारणा ही है, है ना? बिना धारणा के मैं दौड़ नहीं सकता।

न बोलने से भी राहत मिलती है और मौन से भी बचा सकता है। बेशक, चेहरे की रेखाओं में इसे न दिखने देकर ख़ामोशी को पूरी तरह ख़ामोश नहीं रखा जा सकता।

आप जहाँ हैं, वहाँ आप नहीं हैं।

जीए बिना जो कुछ भी समझा जाता है, वह अधूरा है।

स्वतंत्र होने की कोशिश में साहस निहित है। साहसिक कार्य आत्म-सम्मान का पोषण करता है और आत्म-सम्मान किसी भी जोखिम को लेने की इच्छा पैदा करता है। तो क्या अकेले रहने का साहस करने में जोखिम है? शायद, साहस का मतलब ही जोखिम है?
जो वरदान देता है, वह शाप भी दे सकता है।

इस संसार में मनुष्य चैन की नींद नहीं सो सकता। कई बार पलकों तक आई नींद भी गायब हो जाती है।

व्यंग्य ख़त्म होते ही शब्द खिलौना बन जाता है।

जो रचना नहीं कर सकता, वह समीक्षा करता है।

मौन से समृद्ध कुछ नहीं है। मौन में समस्त कोलाहल मोक्ष पा जाते हैं।

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रघुवीर चौधरी (जन्म : 1938) गुजराती के समादृत कवि-उपन्यासकार-आलोचक हैं। उनके यहाँ प्रस्तुत उद्धरण गुजराती से हिंदी में अनुवाद करने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ से पुरस्कृत उपन्यास ‘अमृता’ से चुने गए हैं। भाग्यश्री वाघेला नई पीढ़ी की लेखिका-अनुवादक हैं। उनके काम-काज के कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे bhagyashreebavaghela31@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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