जय गोस्वामी की कविताएँ ::
बांग्ला से अनुवाद : रोहित प्रसाद पथिक

जय गोस्वामी

मणिपुर 2023

एक

यदि मणिपुर में रहती मेरी लड़की?
नौकरी के सिलसिले से रहती मेरी लड़की?
तब मैं क्या करता!
अब मैं क्या कर रहा हूँ?
इन बूढ़ी हड्डियों से कुछ भी नहीं कर पाता हूँ—
उनके सामने जाकर
शरीर पर मिट्टी का तेल ढालकर
मर तो सकता हूँ!
मैं कोई भी सत्य साहस से नहीं कह सका हूँ
मणिपुर आज जल रहा है
मेरे ही दोष से!

दो

समस्त शरीर से कपड़े उतरवाकर
निर्वस्त्र करके घुमाया
हमारी ही लड़कियों की उम्र की होगी
वह लड़की भी

कवि होकर बैठा हूँ
शहर में
घर में
इस घटना के बाद
जो ग्रहण कर रहा हूँ
वह क्या पानी है या विष?

कविता अब भी लिखते हो किस तरह?
कलम के निब को दबाकर
क्यों अभी बिल्कुल अभी
अपनी दोनों आँखों को
बंद करते हो, न?

तीन

तुम उत्तरदायी हो
उत्तरदायी हो तुम!

आजीवन सिर्फ़ छपवाने के लिए
कविताएँ लिखते रहे
किसी काम में आ न सके।

लड़की के प्रेम के छंदों को
बाँधा है मध्य यौवन में
वही लड़की एक दिन
निज संतान हो गई।

मणिपुर समझता हूँ कि
संतान नहीं है तुम्हारी?

तुम कवि हो!
तुम कवि हो!
मणिपुर में आकर तुम्हारा जो कुछ
लिखा-पढ़ा हुआ है
वह सब कुछ
काली मरुभूमि के समान है।

चार

निर्वस्त्र परेड, निर्वस्त्र परेड!
परेड सिर्फ़ और सिर्फ़ लड़कियों की

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घर में बैठकर सिर्फ़ कविता लिख रहा हूँ
सोच भी नहीं सकता कौन है यह!

कवि नामधारी जीव होते हैं
इस बार तुम पन्ने-पत्तर उठाओ
मणिपुर जाकर
स्वयं को चिता में जलाओ।

पाँच

कविता बनाता हूँ छंद में
और उस कविता को प्रकाशित करवाता हूँ।

आज इस भारतवर्ष में
मणिपुर जैसी घटना घटती है
इस मिट्टी में
तुम्हारी लिखी कविता का छंद पाप है
स्वयं कविता के पाप के साथ
स्वयं जलकर मर पापी!

छह

मेरी कविता
किसी अन्याय को रोक नहीं सकती
सामने, दूर—मणिपुर
रोक नहीं सकता हूँ

फिर भी जो लड़कियाँ प्रकाश दिव्यलोक में
अपने लज्जा-वस्त्र को बचा नहीं सकीं
हृदय पर हाथ रखकर स्वीकार करता हूँ कि
मेरा यह सब लिखा
फिर एक बार
सिर्फ़ आप लोगों की
मर्यादा में फाड़ता हूँ…।

सात

लड़की बनकर जन्मी
यही है तुम्हारा दोष

जन्मी हो मणिपुर में
तुम्हारा इतना साहस!

तुम्हें नग्न कर घुमा रहा है कौन?
लोग सूई-धागे से सिले हुए हैं होंठ
भूल गए हैं सब लज्जा और घृणा
भाग्य बढ़िया है कि रवींद्रनाथ ने
अपनी आँखों से नहीं देखा।

घर-घर, घर-घर
बलात्कार की शिकार हो रहीं
मणिपुर की कन्याएँ!

आठ

शांति नहीं, शांति नहीं,
है सिर्फ़ और सिर्फ़ स्वेच्छाचार

लड़की होने पर ‘लज्जा’ उसकी है
छीन लो यह अधिकार
पाया है
पाया सिर्फ़ पुरुषलोक

हे! मेरे देश की माटी, मृत्तिका और वज्र
जलाओ इस बार अभिशाप का चाबुक- नेत्र
इस पुरुष-अधिकार का
विनाश हो, विनाश हो।

नौ

कितने महीने से इंटरनेट बंद!
मणिपुर फटकर छिटक रहा बाहर
अग्नि-उत्पाती-कथा
बाहर की पृथ्वी को
जान भी नहीं पाएँगे वह

मेरी क़लम से यह कविता नहीं,
यह कविता हर दिशा में
दिखा सकते हो,
दो-दो लड़कियों का दल बनाकर
घोड़ों की तरह खुले में दौड़ रहे हैं

बादलों में ज्वलंत घोड़े!

दस

प्रभात नहीं,
कोई प्रभात नहीं, मणिपुर में

रात नहीं, कोई रात नहीं
सिर्फ़ सूर्य के चक्षु
जला दिए गए, जला दिए गए हैं
मैदान, वन, नदी, वृक्ष की लज्जाएँ

दबाव डालकर सब घरों की
लड़कियों को निर्वस्त्र कर
रास्तों पर
प्रदर्शित कर चला रहे हैं जो
एकत्रित होकर, झंडा फहराकर
वह सब जलकर
ख़ाक हो जाएँगे
ख़ाक हो जाएँगे।

यह भूल प्रचार धोकर मूर्च्छित होंगे
कलयुग में,
आज अग्नि का कोई हाथ नहीं!

ग्यारह

किस जगह पर उन्होंने
गोली मारी थी मनोरमा को?
स्त्री-शरीर के ठीक उसी अंग में
उसी अंग से बच्चे का जन्म होता है।

मनोरमा को उस जगह
गोली मारने से पहले
बलात्कार करने से
बाज़ नहीं आए
वे दरिंदे!

भूल गए हैं सिर्फ़ और सिर्फ़
‘मनोरमा’ नाम के अंतिम अक्षर—
‘माँ’ को!

कौन बोले यह बात
मनोरमा आज
मृत हो चुकी है?

ग़लत, ग़लत, ग़लत, बिल्कुल ग़लत
सारा मणिपुर
अभी भी
अभी भी
उसकी चिता दो-दो गुणा
तेज़ी से जल रही है।

बारह

सरीसृप-शासन
बहुत दिनों से,
बहुत दिनों से…

आज भी
मणिपुर ज्वालामुखी का लावा बना हुआ है

मेरे शरीर में बची हुई हड्डी
अब और कितनी रहे
उसी ज्वालामुखी के लावा में मिल जाए
गलकर-जलकर सब कुछ अकर्मण्य कर दे

इस देश में
इस बूढ़े कवि की जितनी कन्याएँ हैं
सभी की ओर बढ़ रहे हैं वे
जो क्षमता में रहकर
कलंकित कर झपट रहे हैं।

तेरह

रास्ते पर जो निर्वस्त्र स्त्रियाँ हैं
वे मेरी कोई नहीं लगतीं

निर्विशेष होकर जो जवान-बूढ़ी हैं
वस्त्रहीन, लज्जा वस्त्रहीन हैं!

अर्क,1‘मणिपुर 2023’ बांग्ला के संपादक मैं मणिपुर को लेकर
एक भी शब्द लिखने की योग्यता नहीं रखता हूँ।

जानता हूँ सिर्फ इतना कि
उसके पास जाकर भी
एक साथ खड़ा नहीं हो पाता हूँ।

मणिपुर राजकन्या की तरह
हाँ, ठीक बोला हूँ, वही चित्रांगना
हाथ-पैर पकड़कर क्षमा माँगती है कि नहीं
आज भी मैं जानता नहीं!

नहीं जानता हूँ कि
इस समय मणिपुर में
पितृ-स्नेह जलते-जलते-जलते
इस शहर में आती हैं अस्थियाँ-राख
मैं इस राख को एकत्रित कर
अर्क, तुम्हें दे आता हूँ
‘उठ सकता यदि साहस का प्रकाश
यह सब भष्मप्राण जननी की तरह आत्माएँ’
बहुत दूरी से
इस आशा से यह व्यर्थ कवि दुआएँ चाहता है…
आकाश से,
जानता हूँ कि मणिपुर की लड़कियाँ ही वीर हैं

जय होगी उनकी,
यह लग्न सिर्फ़ देखता जाता है
धुंधली-सी आँखों से
एक व्यर्थ कवि!

चौदह

मैं क्या जानता नहीं हूँ दारुण घृणा
मणिपुर की बात बोलता हूँ?

जो पार्वत्य नदी माँ बहती जाती हैं
समस्त नदियाँ जल रही हैं!

ज्वालामानस्त्रोत से मणिपुर की वासिनियाँ
कभी भी कूदेंगी नहीं
कभी भी कूदेंगी नहीं
जल-स्रोत की धारा में।

सभी संग्रामकारिणी हैं
एक कन्या के चेहरे से पहचान सकता हूँ
बुकून, जो मेरी लड़की
जन्म ली है इस देश में
बुकून, बोली, बोलेगी, बोल रही है, बोले—
नग्न ही करो, शोषण ही करो
किसी लड़की को पराजित नहीं किया जाएगा।

हे शासक,
यह रहा
तुम्हारे सामने आईना लिए खड़ा हूँ
विष पकड़े हुए—टाला नहीं,
टालूँगा तब, जब विश्व देखेगा
आकाश खड़ा करके उठी है
वही नृमुंडमालिनी।

पंद्रह

रहते हो समतल में
निज दल में

क्रम से
प्रोजेक्ट हैं सरकारी
जनजाति
हम लोग खटकर खाते हैं।

तुम लोग पद के चापलूस ‘मीडिया छल’

हम लोग हैं पहाड़ी
जिसकी है हवा और जल।

सोलह

चू कित-कित खेलो
चू कित-कित…

पहाड़ है भगवान
पहाड़ ही है रक्षक
हम लोग हैं कूकी
हम लोग दोनों पहर लिए हुए हैं दायित्व।

कोने में
तुम लोग हम लोगों को ठेले हुए हो
रणभूमि से रणभूमि तक

पहाड़ में निवास करता हूँ इसलिए
हम लोग भी हैं स्वयं में पहाड़

मुट्ठी में पकड़ रखा हूँ—दधीचि-हाड़!

सत्रह

मणिपुर कोई अंचल नहीं
यह तो लाल रंग की एक किताब है

तकिये के नीचे यह रेड बुक रखकर सोने पर
आकाश में जल उठता है सूर्य।

फिर कहता हूँ कि
मणिपुर नहीं है कोई प्रदेश या अंचल
यहाँ पर लड़कियाँ बोलती नहीं
जल पर चलती हैं।

मणिपुर लाल किताब
इस किताब को लेकर
पथ पर उतरती हैं सभी लड़कियाँ
घूमकर खड़ी हैं, बोलती हैं—
नज़दीक आ रहा है समाप्ति दिन
जब हम लोग तुम्हें हराएँगे!

अठारह

इस अवस्था में कवि पुनरावृत्ति ही करते हैं
पहाड़ पर सूर्य
उदय और अस्त होता है
लड़कियाँ दुहराती हुई जाती हैं…

इस दुहराव में रक्त की झलक

उस दिन लड़कियाँ उधर देखकर बोलती हैं—
इस मणिपुर में
हम लोग सभी सूर्य हैं
पहाड़ पर तुम लोगों को अवश्य अटकाएँगे।

उन्नीस

कोई अर्थ नहीं यह कवि झंडा निकाले?
इतना सामर्थ्य नहीं मुझमें।

मणिपुर की लड़कियों,
अस्त्र देने में है शान!

उसके बाद तलवार गर्म करो
तुम लोग हो पहाड़ी-चिता।

मेरी लड़कियो,
विजय बनकर आओ
तुम लोगों की ओर
देखता है एक व्यर्थ कवि का पिता!

बीस

घर की लड़कियों को रास्ते पर खींचकर लाओ
रास्ते की लड़कियों को रास्ते पर ही जलाओ
निर्वस्त्र करके जिसे घुमाया है
वे किसी की हैं दीदी?
किसी की हैं बहन?

बोलो यह सब कितने दिन देख सकूँगा?

सभी के हाथों में अपने अपने दलों के झंडे
थाना-पुलिस को ख़रीद लिया गया है
कवि की आँखों में ख़ाली गर्त है
आँखें नहीं, कोई आँख नहीं है!

वह रुका नहीं
वह बिल्कुल नहीं रुका
रोकने न रोकने के अंत में दंड
जीवित ही ढुकाएँगे उसे इलेक्ट्रॉनिक चूल्हे में
कवि खोजता हुआ मर रहा है
उस तरह किसी को…

व्यक्ति नहीं, कोई व्यक्ति नहीं!

इक्कीस

अपमान सिर्फ़
अपमानित कर आता है
अपमान को।
नहीं, नहीं
अपमान मेरा नहीं,
मैं तो सम्मानीय व्यक्ति हूँ।

लड़कियों का जितना अपमान होता है
लड़कियाँ ही जानती हैं

हाथों में कितने रोंए हैं
आगे-पीछे संज्ञान में
कर्ता-धर्ताओं के ‘प्रधान’ ही
अपने पंजों से लज्जा-वस्त्र को फाड़कर लाता है

मैं कवि हूँ
सब कुछ टी.वी. पर ही देखता हूँ
अकेले घर में

लिखता ही जा रहा हूँ
पंक्तियों के बाद पंक्तियाँ
लड़कियाँ चल रही हैं
नग्न परेडों में
जानता नहीं
उनके मध्य मेरी बेटी कौन-सी?

बाईस

और नहीं। इस उम्र के अंत में
जो कुछ भी लिखा है
उस लिखे हुए से उठकर लड़कियाँ बोलती हैं—

‘‘क्या आगे आते हो,
देखो, मुझपे झपटना मत?’’

खड़े होकर देख रहे हो?
घर पर बैठे हो?
तुम क्या किसी के पुत्र नहीं थे कभी?
अभी भी
अभी भी तुम बुकून2कवि की बेटी का पुकारने का नाम के पिता हो न?

तेईस

शर्मिला3इरोम चानू शर्मिला : सामाजिक कार्यकर्ता और लौटना नहीं चाहती है मणिपुर में
शर्मिला चानू और अब लौटना नहीं चाहती है मणिपुर में।

जिस आग ने इतने दिन जलाया है उन्हें
अभी भी हो रही है लेखनी
जिस आग में बार-बार
नहीं पा रही है आश्रय?

शर्मिला चानू,
आपको यह वृद्ध लेखक बोल रहा है—

‘‘हम लोगों के इस देश में
एक ही नीति है
पिता का मित्र
चाचा का मित्र हो जाओ
चाहे माँ-मौसी श्मशान हो जाएँ।’’

बाहर बोलना मत
नहीं, कोई भी बात नहीं!

छोटी उम्र से ही सभी स्त्रियों को
नारीत्व लांछन सहन करना पड़ता है
दाँतों में दाँत दबाकर सब कुछ
सहन करना पड़ता हैं।

चौबीस

अस्त-व्यस्त-सा
सब कुछ अस्त-व्यस्त-सा है
सभी नदियों में बह रही है तीव्र क्षार।

मेरा लिखा हुआ
क्या बहुत ज़रूरी है?

कवि हुआ हूँ
इसलिए बागान में बनाया है घर।

जिस बागान में ढूकता हूँ
जिस पेड़ के पास जाता हूँ
मेरे सामने खड़ी हैं
मणिपुर की शोषित सभी स्त्रियाँ
एक-एक करके।

पच्चीस

भला चाहता हूँ
तुम्हारा भला चाहता हूँ
सुख और शांति से रहो, माँ!

मुँह से बोलना बहुत आसान है

कविताओं में ये बातें
लिखी भी हैं मैंने
लिख देना भी क्या सस्ता है!

पीठ पर ढो रहा हूँ
मणिपुर नाम का अग्निगर्भ-सा बोझा
रास्ते के मध्य खुलकर गिर पड़ता है बस्ता
बस्ते से निकलकर
कपड़े खोई हुईं लड़कियाँ मुझसे बोलती हैं—
‘‘तुम हम लोगों के पिता हो
देह ढकना चाहती हूँ
इसलिए कुछ कपड़े चाहती हूँ
अपने घर से ला दीजिएगा।’’

कहाँ है मेरा घर?
भारतवर्ष नाम
इस देश में लज्जा भी आँखें नहीं ढकती
मेरे वृद्ध शरीर में
चमड़ा अवशिष्ट अंतिम बचा है
उसे ही छीलकर उन्हें दे रहा हूँ
इसी से देह ढको—माँ!


जय गोस्वामी (जन्म : 1954) बांग्ला भाषा के समादृत भारतीय साहित्यकार हैं। उन्हें ‘पागली तोमार संगे’ (कविता-संग्रह) के लिए वर्ष 2000 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ मूल बांग्ला में अर्क और सायंत के संपादन में ‘मणिपुर 2023’ शीर्षक से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं और यहाँ हिंदी में अनुवाद करने के लिए वहीं से चयनित हैं। हिंदी में इन कविताओं का प्रथम प्रकाशन ‘बया’ (अक्टूबर-दिसंबर 2023, संपादक : गौरीनाथ) में हुआ, यहाँ ये कविताएँ  कवि और अनुवादक की अनुमति से वहीं से साभार। रोहित प्रसाद पथिक से परिचय के लिए यहाँ देखें : एक विषाद से भरा मनुष्य रहता है हमेशा हास्यमय भीड़ में

1 Comment

  1. सुमित त्रिपाठी जनवरी 3, 2024 at 7:35 पूर्वाह्न

    ये कविताएँ एक मौन की तरफ ले जाती हैं। एक कवि जो असहायता बार-बार, हर दिन, महसूस करता है यह उसी की गवाही है।

    Reply

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