भालचंद्र नेमाडे के कुछ उद्धरण ::
मराठी से अनुवाद : सूर्यनारायण रणसुभे
समीक्षा लिखना—यह साहित्य में मुफ़्तख़ोरी की क्रिया है।
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समीक्षा पूर्णतः निर्गुण रूप में एक व्यक्ति द्वारा साहित्यादि कलाओं पर किया गया चिंतन होता है।
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समीक्षा साहित्य-भूमि से रस सींचनेवाला जीवंत शास्त्र है।
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समीक्षा परावलंबी साधन है, इसका एहसास रखना ज़रूरी है।
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साहित्य का श्रेष्ठत्व लेखक के व्यक्तित्व से सिद्ध होता है।
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पुस्तक की श्रेष्ठता केवल पुस्तक पर निर्भर नहीं होती।
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कहानी केवल मासिक पत्रिकाएँ चलानेवाली क्षुद्र साहित्यिक विधा है।
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उपन्यास व्यापक भाषिक अवकाश से संबंधित साहित्यिक विधा है।
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उपन्यास की तुलना में कविता की उपेक्षा होती ही है।
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उपन्यास का गद्य कविता के माध्यम तक जा सकता है।
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समाचारपत्रों से भाषा बिगड़ती है।
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विकृत सामाजिक संदर्भ का साहित्य, आभासी और मनोरंजनवादी प्रवृत्तियों का पोषक होता है।
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लिखना—यह एक अखंड प्रक्रिया है। और उसके लिए ज़िंदगी भर लिखते रहना ज़रूरी है।
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बड़ों के लिए लिखने की अपेक्षा छोटों के लिए लिखना कभी भी अधिक सुखकारक होता है।
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किसी भी बात की स्पिरिट महत्त्वपूर्ण होती है, फ़ॉर्म नहीं।
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प्रतिबद्धता की अवधारणा लेखक सापेक्ष होती है, साहित्य और रसिक इन दो अन्य इकाइयों का प्रतिबद्धता से आनेवाला संबंध काफ़ी दूर का होता है।
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साहित्य का अर्थ केवल ‘लिखा हुआ’ ऐसा न लेते हुए ‘पढ़ा हुआ’ ऐसा अगर लें तो साहित्य-प्रक्रिया का अधिक व्यापक सामाजिक कार्य ध्यान में आएगा।
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जिस प्रकार की संस्कृति होती है, उसके अनुरूप ही विद्रोही-साहित्य उसमें निर्मित होता है।
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सामाजिक जीवन में कुछ तो बिगड़ा हुआ है, इसे विद्रोही आंदोलन दर्शाता है। विद्रोही साहित्य के द्वारा उस बीमारी का निदान किया जा सकता है।
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विद्रोही साहित्य प्राय: अल्पसंख्यकों के एहसासों से निर्मित होता है।
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समाज में स्थित विभिन्न नगरीय तथा राजनैतिक संस्थाओं की अस्तित्व में स्थित व्यवस्था को अमान्य करना—यह विद्रोही साहित्य का लक्ष्य होता है।
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प्रत्येक युग में सत्ताधारी वर्ग के मूल्यों का प्रभुत्व समाज में संतुलन साधता रहता है।
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विद्रोही साहित्य का प्राय: तात्कालिक महत्त्व होता है।
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विद्रोही साहित्य का मूल्य सौंदर्यशास्त्रीय न होकर मनोवैज्ञानिक होता है।
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विद्रोही साहित्य की जड़ें असाहित्यिक व्यवस्था में होती हैं।
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केवल साहित्यिक परिवेश से जन्मा विद्रोह हो तो वह सच्चा विद्रोह नहीं होता।
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विद्रोही साहित्य के संबंध में एक विरोधाभास यह है कि जिन बातों का वह विध्वंस करता है, उन्हीं बातों को प्राप्त करने का वह प्रयास करता है।
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विद्रोही साहित्य की शोकास्पद स्थिति यह है कि वह व्यक्तिवादी होता है, परंतु उसका आह्वान समूह को, जाति को, धर्म या वंश को होता है।
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भालचंद्र नेमाडे (जन्म : 1938) ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी साहित्यकार हैं। उनके यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उनकी पुस्तक ‘टीका स्वयंवर’ (साहित्य अकादेमी, प्रथम संस्करण : 2016) से चुने गए हैं। सूर्यनारायण रणसुभे हिंदी-मराठी के महत्त्वपूर्ण लेखक-अनुवादक हैं। ‘सदानीरा’ पर उपलब्ध संसारप्रसिद्ध साहित्यकारों-विचारकों के उद्धरण यहाँ पढ़ें : उद्धरण