रमण महर्षि के कुछ उद्धरण ::
मनुष्य को सिद्धांतों की चर्चा करने की बजाय अभ्यास पर बल देना चाहिए।
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कभी न कभी ऐसा समय आता है जब मनुष्य को वह सब भूलना होता है, जितना उसने सीखा हो।
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सभी प्रकार के तप और संयमों से गुज़रकर व्यक्ति वही बनता है, जो वह पहले से है।
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ध्यान एक युद्ध है।
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अँधेरे की तरह अज्ञान भी सत्य नहीं।
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अपने-आप में स्थिर हो और जानो कि मैं ईश्वर हूँ।
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जानना ही होना है।
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जब सूरज उगता है तो केवल कुछ कलियाँ खिलती हैं, सारी नहीं। क्या इसके लिए सूरज को दोषी ठहराया जाएगा? कलियाँ स्वयं नहीं खिल सकतीं और इसके लिए सूरज की धूप का होना भी ज़रूरी है।
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‘मैं करता हूँ’ यही भाव तो अवरोध है। स्वयं से पूछें : ‘कौन करता है?’
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याद रखें कि आप कौन हैं।
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एकांत मनुष्य के मन में है।
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पहले समर्पण करो और फिर देखो।
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मन की सहायता से ही मन को मारा जा सकता है।
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केवल इस आत्मानुसंधान : ‘मैं कौन हूँ’ के साथ ही मन को शांत कर सकते हैं।
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अपने मूल स्वभाव को जानना ही मुक्ति है।
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‘मैं कौन हूँ’ इस अनुसंधान का अर्थ यही है कि आप अहं के स्रोत का पता करें।
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‘मैं’ कौन है, इसकी तलाश करें।
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‘मैं’ ही ‘मैं’ की माया को हटाता है और अंत में ‘मैं’ शेष रहता है।
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हर कोई अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में आत्मा का हत्यारा है।
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समय केवल एक विचार है। हमारे पास केवल सत्य है। आप जो सोचते हैं, वह प्रकट हो जाता है। अगर आप समय कहें, तो यह समय है।
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जब मन अपने ही बारे में अनुसंधान करना बंद कर देता है तो जान लेता है कि मन जैसी कोई वस्तु नहीं है। यही सबके लिए सीधी राह है।
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मन केवल विचार है। सभी विचारों में, केवल ‘मैं’ का विचार ही मूल है। इस तरह मन केवल ‘मैं’ का विचार ही है। ‘मैं’ का विचार कब पैदा होता है? इसे अपने भीतर तलाश करो, तो ये ओझल हो जाता है। यह बुद्धि है। जहाँ से ‘मैं’ का लोप होता है, वहीं से ‘मैं-मैं’ का जन्म होता है। यही पूर्णम है।
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रमण महर्षि (1879–1950) बीसवीं सदी के महत्त्वपूर्ण भारतीय संत और ऋषि हैं। उनके यहाँ प्रस्तुत उद्धरण ‘रमण महर्षि के अनमोल वचन’ (संपादन : आर्थर ऑस्बोर्न, अनुवाद : रचना भोला ‘यामिनी’, मंजुल पब्लिशिंग हाउस, संस्करण : 2018) से लिए गए हैं। ‘सदानीरा’ पर उपलब्ध संसारप्रसिद्ध साहित्यकारों-विचारकों-कलाकारों के उद्धरण यहाँ पढ़ें : उद्धरण