कविताएं ::
शायक आलोक

शायक आलोक

संतुलन के लिए

वे जिस दुनिया में आए हैं वह है
एक हंसती खिलखिलाती दुनिया
सब सुंदर है, लगे उन्हें
इसलिए मैं मुस्कुरा देता हूं नए बच्चों की तरफ
आंखें मिचमिचा देता हूं

एक दुःख की कथा से
दूसरे दुःख के किरदार को मिलता है सहारा
इसलिए मैंने अपवित्र पवित्रताओं को जीवन में उतारा
दुनिया के सार्वजनिक शोकागार में आंखें
नम रखता हूं

संतुलन के कई पाठ रचे

वे ही रहीं सबसे कम सुंदर स्त्रियां
जिन्हें मैं करता रहा दुनिया का सबसे अधिक प्रेम

अनुमान का इतिहास

ध्रुवस्वामिनी!
करती होगी पूरा शृंगार तो अप्सरा-सी लगती होगी
और उसे देख राष्ट्र का भावी सम्राट
एक आह अपने शयनवास के स्वर्ण चौकोर पर टांग देता होगा

का-पुरुष व्यस्त रहा होगा निश्चय ही अन्य विकल्पों में
नीवी के अंदर के सब शरीर उसे भरमाते होंगे
(चंद्र-ध्रुव के कथानक में रामगुप्त के लिए स्पेस कम है)

पश्चिम के क्षितिज पर जंघा फैलाए सोया मलेच्छ राजा
स्त्री के बदले स्त्री चाहता था
लहू के बदले लहू
लहू का हिसाब करने में दक्ष राजा!

तब
ध्रुवस्वामिनी के रक्ताभ अधरों पर सत्ता दर्ज करता चंद्रगुप्त
विक्रमादित्य बन गया

पत्नी के लिए

दुःख की कथा में मेरे पास थी एक स्वेटर की कहानी
एक शोकतर कविता थी उसके पास
जहां घिसट उपाय से भी उसकी छाती में दूध नहीं उतरता था

फिर हम अनगिन समय तक चुप रहे

बेबात मौसम की समीक्षा में
मैंने खुशी जताई कि दिसंबर के अंतिम दिनों में भी
निकल रही है खिली हुई धूप
उसने विश्वास जताया कि
अधूप अंधकार में भी रख लेगी नवजन्मी का ख्याल

सुख की आकलन रिपोर्ट में उसने एक स्वेटर बुन भेजने की बात की
मैंने बात की मैं भेजूंगा उसे दिल्ली से छुहारे

उदासी के लिए

तुम्हारा समय उदास हो तो
समय के पत्थरों से ही मैं तुम पर इतने वार करूंगा
कि तुम्हारी आशंका को दुर्लब्ध एक भी कल्पना शेष नहीं बचेगी

तुम्हारे मन की उदासी के लिए मेरे पास है मेरे मन का वसंत

नई हवा आएगी तो नई गंध लाएगी
तो तुम्हारे विचारों की उदासी के लिए है मेरे विचारों की नवरीति

देह की उदासी के लिए तेल और फुलेल

और अगर तुम्हारी आत्मा उदास है
कि है उजास पर अंधेरा घन-अन्हेर
तो लो निर्णय चलो सुफ का सुरीला कुछ बुनें

लौटना

तुमने कहा जाती हूं
और तुमने सोचा कि कवि-केदार की तरह मैं कहूंगा जाओ

लेकिन मेरी लोक-भाषा के पास अपने बिंब थे

मेरी भाषा में जब भी कोई जाता था तो ‘आता हूं’ कहकर शेष बच जाता था
यहां प्रतीक्षा को आश्वस्ति है
वापसी को निश्चितता

हमारा लोक-देवता एक चरवाहा था जो घास को
बकरियों की तरह चर रहा था
और लौटने की पगडंडी को गढ़ रहा था

***

शायक आलोक हिंदी की नई कविता का चर्चित नाम हैं. अनुवाद में भी दिलचस्प काम किया है. दिल्ली में रहते हैं. उनसे shayak.alok.journo@gmail.com पर बात की जा सकती है.

3 Comments

  1. Ganesh Gani अक्टूबर 26, 2017 at 2:34 अपराह्न

    यह अति सुंदर है। कविताएं पढ़ने का आनंद आ रहा है।

    Reply
  2. sujata shiven अक्टूबर 27, 2017 at 12:28 अपराह्न

    तुम्हारे मन की उदासी के लिये मेरे पास है मेरे मन का वसंत. बहुत सुंदर पंक्ति
    कविता, ” लौटना ” मन को छू गयी

    Reply
  3. shashank अक्टूबर 27, 2017 at 4:54 अपराह्न

    अभूतपूर्व कविताएँ पढ़ने का एक शानदार मंच

    Reply

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *