फ़्रांत्स काफ़्का के उद्धरण ::
अँग्रेज़ी से अनुवाद : आदित्य शुक्ल
एक निश्चित बिंदु के परे लौटना नहीं होता, उस बिंदु तक पहुँचना ही होगा।
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यह जीवन असह्य है और दूसरा अप्राप्य। लोग मरने की इच्छा रखने पर अब शर्मिंदा नहीं होते, लोग इस क़ैद में, जिसे वे पसंद नहीं करते, से निकलकर दूसरी क़ैद में चले जाना चाहते हैं, जिसे आगे चलकर वे पुनः नापसंद करने लगेंगे। इन सबके बीच इस आस्था के शेष भी हैं कि कहीं तो मालिक आएगा, कॉरिडोर में पंक्तिबद्ध क़ैदियों को देखेगा और एक क़ैदी की ओर इशारा करके कहेगा : ‘‘इसे अब क़ैद में मत डालो, इसे मेरे पास भेज दो।’’
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पिंजरा पक्षी की तलाश में निकला।
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ज़रूरी चीज़ यह है कि जब तलवार तुम्हारी आत्मा के टुकड़े करे, मन को शांत बनाए रखा जाए, रक्तस्राव नहीं होने दिया जाए, तलवार की ठंडक को पत्थर की-सी शीतलता से स्वीकार किया जाए। इस तरह के प्रहार से, प्रहार के बाद तुम अक्षर बन जाओगे।
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कौओं के बीच आस्था है कि एक अकेला कौआ स्वर्ग को नष्ट कर सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं, लेकिन यह तथ्य स्वर्ग के विरुद्ध कुछ भी साबित नहीं करता, क्योंकि स्वर्ग का मतलब है—कौओं की असंभाव्यता।
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शैतान को तुम्हें यह विश्वास मत दिलाने दो कि तुम उससे कुछ राज़ रख सकते हो।
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दाईं ओर के दरवाज़े से एक पुरुष एक घर में दाख़िल होता है, जहाँ पर एक फ़ैमिली काउंसिल की मीटिंग चल रही है, वह आख़िरी वक्ता के आख़िरी शब्द सुनता है, उसे अपनी स्मृति में रखता है और बाईं ओर के दरवाज़े से निकलकर विश्व को उनका निर्णय सुना देता है। शब्द-निर्णय सच है, लेकिन अपने आपमें शून्य भी। अगर वे आख़िरी सत्य की मदद से कोई निर्णय लेना चाहते तो उन्हें उस कमरे में हमेशा के लिए रहना पड़ता, उस फ़ैमिली काउंसिल का हिस्सा होना पड़ता और अंततः वे कोई निर्णय ले पाने में अक्षम हो जाते। सिर्फ़ एक पक्ष ही निर्णय दे सकता है, लेकिन एक पक्ष के रूप में वह निर्णय नहीं दे सकता। जिसका तात्पर्य यह है कि इस विश्व में न्याय की कोई संभावना नहीं है, सिर्फ़ यत्र-तत्र उसकी चमक है।
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पशु, मालिक से कोड़ा लेकर ख़ुद को पीटता है ताकि वह अपना मालिक बन सके, लेकिन उसे यह नहीं पता कि उसे यह फ़ंतासी मालिक के कोड़े में बँधी नई गाँठ से मिली है।
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शैतान को अच्छाई का पता है, लेकिन अच्छाई शैतान को नहीं जानती।
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सिर्फ़ शैतान के पास ही अपने ख़ुद के बारे में ज्ञान है।
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पहले मैं यह नहीं समझ पाया कि आख़िर मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर क्यों नहीं मिला, आज मैं यह समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैंने यह कैसे मान लिया कि मैं पूछने के क़ाबिल भी हूँ। लेकिन मैंने ऐसा माना नहीं, बल्कि सिर्फ़ सवाल किया था।
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एक मनुष्य इस बात से अचंभित था कि वह कितनी आसानी से अमरता की ओर बढ़ रहा है, जबकि वास्तविकता में वह नीचे गिर रहा था।
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आस्थावान होने का मतलब अपने भीतर के अक्षय तत्व को स्वतंत्र करना है, और स्पष्ट शब्दों में कहें तो ख़ुद को स्वतंत्र करना है या और स्पष्ट कहें तो ख़ुद अक्षय होना है या और और स्पष्ट शब्दों में कहें तो ‘होना’ है।
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स्वर्ग मूर्खता है, इसकी गूँज सिर्फ़ मूर्ख को सुनाई देती है।
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अपने और विश्व के बीच के संघर्ष में विश्व का साथ दो।
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सब कुछ एक धोखा है—न्यूनतम माया की तलाश, सब कुछ एक सामान्य सीमांत में समेटकर रखना या अधिकतम की इच्छा। पहली स्थिति में मनुष्य अच्छाई को धोखा देता है, उसे अपने लिए बहुत आसानी से प्राप्य बनाकर, और शैतान को भी उसके ऊपर युद्ध की छेड़ने की असंभव कोशिश करके। दूसरी स्थिति में, मनुष्य अच्छाई को धोख़ा देता है, सामान्य स्थितियों में भी उसे पाने की इच्छा न रखकर। तीसरी स्थिति में, मनुष्य अच्छाई से अधिकतम दूरी बनाकर उसे धोखा देता है और शैतान को अधिकतम पाने की लालसा में ख़ुद को शक्तिहीन बना लेता है। इसलिए इन तीनों में से दूसरी स्थिति अधिक इच्छित होनी चाहिए क्योंकि अच्छाई तो हमेशा ही धोखा खाती है, लेकिन इस स्थिति में, कम से कम सतही भाषा में ही शैतान के साथ कोई धोखा नहीं होता।
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सभी सत्य नहीं देख सकते हैं, लेकिन ‘हो’ सकते हैं।
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जो तलाश करता है, वह पाता नहीं है; लेकिन जिसे तलाश नहीं है, उसे ढूँढ़ लिया जाएगा।
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सिद्धांततः ख़ुशी की पूर्ण संभावना है—अपने भीतर के अक्षय में आस्था रखकर और उसे पाने की कोशिश न करके।
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ख़ुद को मनुष्यता की कसौटी पर कसो, यह अनास्थावान को अनास्था और आस्थावान को आस्था की ओर अग्रसर करता है।
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वासनात्मक प्रेम मनुष्य को स्वार्गिक प्रेम से वंचित करता है, हालाँकि वह ऐसा अकेले नहीं कर सकता, चूँकि इसके अंदर स्वार्गिक प्रेम के तत्व होते हैं, यह ऐसा कर पाता है।
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सिर्फ़ दो ही चीज़ें हैं—सत्य और असत्य।
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सत्य अक्षुण्ण है, अतएव यह ख़ुद की पहचान नहीं कर सकता। जो भी इसे पहचानने का दावा करता है, उसे असत्य होना होगा।
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शिकायत—अगर मेरा अस्तित्व शाश्वत हो जाए, तो फिर कल मेरा अस्तित्व कैसा होगा?
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हम ईश्वर से दो स्तरों पर विलगित हैं—‘पतन’ हमें उससे अलग करता है और ‘जीवन-वृक्ष’ उसे हमसे।
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एटलस को यह मत रखने की छूट है कि वह जब भी चाहे पृथ्वी को छोड़कर निकल सकने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन उसे सिर्फ़ यह मत रखने की स्वतंत्रता है।
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जो कुछ भी सरल है, वह इतना कठिन क्योंकर है?
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जब स्टेज पर प्रेम का खेल खेला जाता है, नायिका अपने प्रेमी के लिए एक पाखंडी मुस्कान के साथ ही साथ ऊपर बालकनी में बैठे दर्शकों के लिए भी एक कपटी मुस्कान धारण करती है। हद ही है।
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पुराना चुटकुला है—हम विश्व को कसकर पकड़े रहते हैं और यह शिकायत करते हैं कि हम विश्व के जंजाल में फँसे हैं।
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या तो मैं एक अंत हूँ या एक प्रारंभ।
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धर्म भटक जाता है, क्योंकि मनुष्य भटक जाता है।
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जो कुछ भी मैं छूता हूँ टूटकर बिखर जाता है
विलाप के दिन ख़त्म हो चुके हैं
पहले पंछियों के पर घायल थे
ठंडी रातों में चंद्रमा ने अपने वस्त्र खोल दिए
बादाम और जैतून कबके पक चुके हैं,
यही वर्षों का उपहार है।
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वह मेरी आँखों के सामने गिर गया, इतना पास जितना पास यह टेबल है, जो मुझे लगभग छू रहा है।
‘‘पागल हो क्या?’’ मैं चिल्लाया। आधी रात बीते एक पहर गुज़र चुकी थी। मैं एक पार्टी से लौटा था। कुछ देर तक अकेले टहलने की इच्छा हुई थी और अब देखिए ये आदमी मेरे सामने गिर गया। मैं इस भारी-भरकम आदमी को नहीं उठा सकता और न ही मैं इसे यहीं इस अकेले प्रांत में गिरा छोड़ देना चाहता हूँ, जहाँ दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं देता।
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मेरे ऊपर स्वप्नों की बाढ़ आ गई है, मैं चिंतित और निराश बिस्तर पर लेटा हूँ।
वर्ष 1917 के अंत से जून 1919 तक फ़्रांत्स काफ़्का (3 जुलाई 1883–3 जून 1924) ने डायरी प्रविष्टियाँ नहीं कीं; बल्कि छोटे-छोटे ऑक्टेवो नोटबुक्स में विचार, कहानियों के टुकड़े और डायरी जैसी अधूरी-पूरी प्रविष्टियाँ दर्ज कीं। इन नोटबुक्स में काफ़्का के कई प्रसिद्ध ऍफ़रिजम्स (aphorisms) अपने मूल संदर्भ में मौजूद हैं और इनमें काफ़्का स्पष्टतः धार्मिक संदर्भों में बात करते दिखाई देते हैं, यह बात उनकी रचनाओं में अन्यत्र दुर्लभ है। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण हिंदी अनुवाद के लिए ‘द ब्लू ऑक्टेवो नोटबुक्स’ में दर्ज प्रविष्टियों से चुने गए हैं। आदित्य शुक्ल (जन्म : 27 नवंबर 1991) हिंदी कवि-अनुवादक-गद्यकार हैं। वह गुरुग्राम (हरियाणा) में रहते हैं। उनसे shuklaaditya48@gmail.com पर बात की जा सकती है। ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनके काम-काज के लिए यहाँ देखें : आदित्य शुक्ल