नस्र ::
तसनीफ़ हैदर

पिछले दिनों हमारे एक दोस्त ने सवाल कर दिया कि भाई ये समलैंगिकता अगर आम हो जाएगी और इसका तर्क इस बात को बना लिया जाएगा कि एक इंसान अपनी फ़ितरत से मजबूर है और वो जो कुछ करना चाहता है, इससे उसे रोकना इंसानी नैतिकता के ख़िलाफ़ है तो क्या अप्राकृतिक लैंगिक रिश्तों की बाढ़ नहीं आ जाएगी? क्या ऐसा नहीं होगा कि लोग फिर अपने जानवरों के साथ यौन-संबंध बनाएँगे और अपने अमल की दलील इस बात को ठहराएँगे कि ये हमारी मर्ज़ी है, इसलिए किसी और को इसमें हस्तक्षेप का कोई हक़ नहीं है।

अव्वल तो मुझे इस बात पर अब हँसी आती है, जब ये अप्राकृतिक की पख़ किसी बात में लगा दी जाए। मैं भी इसी चक्कर में पड़ा रहता अगर दक्षिण भारत के विवादास्पद दार्शनिक और मार्गदर्शक पेरियार की तहरीरें मेरी नज़र से नहीं गुज़रतीं। एक जगह उन्होंने लिखा कि किसी बात को अप्राकृतिक साबित कर देने से क्या वो ग़लत हो जाती है? उसने पूछा कि लिबास क्या क़ुदरती चीज़ है? क्या हमारे रिहायशी मकान प्राकृतिक तरीक़ा हैं? बिल्कुल उसी तर्ज़ पर सोचकर देखिए तो इस वक़्त तो कुछ भी क़ुदरती रहा ही नहीं है। हम चारों तरफ़ से अप्राकृतिक आसानियों में घिरे हैं? यहाँ तक कि जिस टेक्नोलॉजी की मदद लेकर मुझसे ये सवाल पूछा गया है क्या वो ख़ालिस क़ुदरती खोज है? फ्रिज में रखा ठंडा पानी क़ुदरती नहीं, वॉशिंग-मशीन में कपड़ों को घिसने वाला आला क़ुदरती नहीं, महबूबा के साथ वीडियो कॉलिंग का माध्यम क़ुदरती नहीं मगर फिर भी किसी इंसानी काम में क़ुदरती या प्राकृतिक का फ़ीता जोड़ना असल में उस पर अपने विरोध की कमज़ोर आवाज़ को साबित करना है। क़ुदरत के ताल्लुक़ से हमारा एक पुराना पूर्वाग्रह अभी तक हमारा पीछा कर रहा है, हम समझते हैं कि जो कुछ क़ुदरती है, वो मुफ़ीद है। बल्कि ऐसा नहीं है। क़ुदरत, दरअसल एक सहूलियत है। हमारे साँस लेने के अमल में, हमारे जीने के अमल में ये मददगार है, मगर ये सब कुछ नहीं है। हमें जो चीज़ें क़ुदरती तौर पर मिली हैं, उन्हें जस का तस क़बूल कर लिया जाए और इसमें इंसानी अमल-दख़ल को सिरे से ख़ारिज कर दिया जाए तो आपका ज़िंदा रहना भी मुश्किल हो जाएगा। इसमें क्या शक है कि अगर हम महज़ क़ुदरती माध्यमों पर भरोसा करते और अपनी बौद्धिक और प्रयोगात्मक ऊर्जा को इस्तेमाल में न लाते तो आज भी हम बर्बर-अवस्था के काल में जी रहे होते। इंसान का सबसे पहला ग़ैरक़ुदरती अमल किसी खोह में पनाह लेना था, दूसरा अप्राकृतिक काम खाने की तलाश की तकनीक खोजना था।

हमारे क़ाबिल दोस्त का सवाल पूरे इंसानी समाज के ज़ेहन पर हावी है। अव्वल तो ये समझना ही बेवक़ूफ़ी है कि अगर दो लोगों को समलैंगिकता की इजाज़त इस बुनियाद पर दी जाए कि उनको अपने मुख़ालिफ़ जेंडर के साथ सेक्स से संतुष्टि नहीं होती तो पूरा समाज और पूरी दुनिया इस क़िस्म के कामुक-संबंधों में लिप्त हो जाएगा, इंसानी समाज का ताना-बाना बिगड़ जाएगा, हर शख़्स कोरा समलैंगिक बनकर रह जाएगा और इस तरह हमारा समाज बच्चे पैदा करना छोड़ देगा, अगली नस्लें पैदा नहीं होंगी और दुनिया में इंसान का वजूद अगले दस-बीस-पचास बरसों में ख़त्म हो जाएगा।

किश्वर नाहीद ने एक किताब, जो ‘सेकेंड सेक्स’ का अनुवाद और सारांश है, लिखते समय उसमें कहीं लिखा है कि वो ज़ाती तौर पर इस बात को यानी समलैंगिकता को पसंद नहीं करती हैं। और इसका कारण भी जहाँ तक मुझे याद है उन्होंने यही दिया है कि ये एक ग़ैरक़ुदरती काम है। बहरहाल, उर्दू में इस विषय पर कम लोगों ने लिखा है। इस्मत चुग़ताई की कहानी ‘लिहाफ़’ हम सभी पढ़ते हैं, मगर वो कहानी अब पढ़ता हूँ तो उसमें काफ़ी झोल नज़र आते हैं। अव्वल बात तो ये कि कहानी में ये बात साबित करने की कोशिश की गई है कि समलैंगिकता एक क़िस्म के फ़्रस्ट्रेशन से पैदा होती है, यानी अगर कहानी में मौजूद समलैंगिक औरत को उसका शौहर तवज्जोह देता तो वो ऐसी हरगिज़ न होती और फिर इस अमल (समलैंगिकता) को आख़िर में इस तरह दिखाया गया है कि उससे एक क़िस्म का ख़ौफ़ पैदा होता है, वहशत होती है। हम मान सकते हैं कि ये कहानी आम हिंदुस्तानी समाज की घुटन-ज़दा ज़िंदगी में जन्म लेने वाली समलैंगिकता की एक मिसाल है। मगर इस्मत के लिखे से ऐसा मालूम होता है कि वो भी कहीं न कहीं इस बात को पसंद नहीं करतीं। उनका सारा ज़ोर उस घुटन पर है, औरत और मर्द के उस ताल्लुक़ पर है, जिसके कमज़ोर पड़ते ही होमो-सेक्सुअलिटी का भूत समाज में गश्त लगाना शुरू कर देगा। एक क़दम और बढ़कर कहूँ तो लिहाफ़ समलैंगिकता से भी ज़्यादा पीडोफिलिया (जिसमें छोटे उम्र के किशोरों या बहुत छोटे उम्र के बच्चों के प्रति यौन-रुचि होती है) पर लिखी हुई कहानी है। इस रुझान का मैं ख़ुद भी मुख़ालिफ़ हूँ, चाहे उसके हक़ में सिमोन द बोउवार जैसी औरतें ही क्यों न रही हों और देखा जाए तो लेखकों का ज़्यादातर समाज, शायद दुनिया भर में एक ज़माने तक समलैंगिकता के बजाय पीडोफिलिया पर ज़ोर देता रहा। कुछ ने तो इसके लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया और क़ानूनी तौर पर किसी के एडल्ट माने जाने के मसले पर सवाल क़ायम कर दिया और ये देखकर शायद हँसी भी आए कि उनमें से कुछ ऐसे भी होंगे जो चाइल्ड मैरिज या बाल-विवाह के ख़िलाफ़ होंगे।

अमरद-परस्ती (लौंडेबाज़ी) के हक़ में कभी बग़ैर सोचे-समझे मैंने कुछ लिखा था, अब मुझे इस बात को कहने में कोई झिझक नहीं महसूस होती कि ये रुझान निहायत अनैतिक, बर्बाद और नाबालिग़ बच्चों को दिमाग़ी तौर पर नुक़सान पहुँचाने का माद्दा रखता है, इसलिए इस पर क़ानूनी तौर पर रोक लगनी चाहिए और इसकी परवरिश कम से कम अदीबों और शाइरों की तरफ़ से बिल्कुल नहीं की जानी चाहिए। हम नाबोकोव की ‘लोलिता’ और मारकीज़ दी साद के ‘इन्सेस्ट’ जैसे नॉविलों के सौंदर्य, भाषा को अहमियत दे सकते हैं, मगर इन रुझानों का समर्थन नहीं कर सकते और उन्हें नैतिक तौर पर सही नहीं मान सकते। अगर फिर भी मैं बतौर अदीब के, उसे नैतिक सतह पर भी बुरा नहीं समझता तो मुझे कोई हक़ नहीं कि किसी ऐसी ख़बर पर नाक-भौं चढ़ाऊँ जिससे मालूम हो कि कोई बाप अपनी नाबालिग़ बच्ची के साथ बरसों तक बहला-फुसला कर उसका रेप करता चला गया।

उर्दू में मुझे एक ही कहानी ऐसी मिली है, जिसमें समलैंगिकता की सही सही तस्वीर पेश की गई है और वो है चौधरी मुहम्मद अली रुदौलवी की ‘तीसरी जिन्स’। इस्मत के विरुद्ध इस कहानी को इस तरह नहीं लिखा गया कि इसमें हम-जिनसियत या समलैंगिकता को कोई बुरा या अनैतिक तरीक़ा समझा जाए, बल्कि उसे पढ़ने वाले की समझ-बूझ पर छोड़ा गया है। रुदौलवी बड़े ज़बरदस्त फ़िक्शन-निगार थे, फ़लसफ़ी भी थे। मगर कहानीकार के तौर पर उनकी पहचान अभी ठीक से नहीं हो पाई। ‘गुनाह का ख़ौफ़’, ‘मीठा माशूक़’ और न जाने कैसी-कैसी कहानियाँ उन्होंने लिखीं, जहाँ तक मुझे याद पड़ता है उर्दू ज़बान में वही पहले आदमी थे, जिन्होंने उन्नीसवीं सदी में ‘पर्दे की बात’ जैसा मज़मून लिखा और औरतों को कंडोम के इस्तेमाल के साथ-साथ महीने की उन तारीख़ों के बारे में भी बताया, जिनमें अपने शौहर के साथ यौन-संबंध बनाने से बचने पर वो गर्भवती होने की परेशानी से महफ़ूज़ रह सकती थीं। ‘तीसरी जिन्स’ के हवाले से कहा जा सकता है कि अँग्रेज़ी के थर्ड-जेंडर का तर्जुमा रुदौलवी ने ग़लत किया। मगर माधवी मेनन की किताब ‘दी हिस्ट्री ऑफ़ डिज़ायर इन इंडिया’ पढ़ने पर मालूम होता है कि ‘कामसूत्र’ के लेखक वात्स्यायन ने भी अपनी इस किताब में ऐसे लोगों के लिए, जो मर्द होकर मर्दों के साथ या औरत होकर औरतों के साथ यौन-संबंध बनाएँ, थर्ड-जेंडर का शब्द ही इस्तेमाल किया है। अलबत्ता तार्किक तौर पर इससे बहस की जा सकती है कि ये कितना सही या ग़लत है।

उर्दू में समलैंगिकता के लिए कोई तहरीक (आंदोलन) नहीं चलाई गई। सुनते हैं कि शिकागो (अमेरिका) में इफ़्तिख़ार नसीम नाम के एक शाइर थे, उनका कुछ कलाम पढ़ा है। बहुत अच्छा मालूम हुआ। मगर देखते हैं कि अब उनका भी कोई नामलेवा नहीं है। वजह ये थी कि वो खुले तौर पर अपने ‘गे’ होने को स्वीकारते थे। हमारे एक दोस्त वाजिद अली सय्यद के कहने के मुताबिक़, वो अपने एक सरदार पार्टनर के साथ रहते थे। ज़िंदगी भर उनके घर वालों ने उन्हें नहीं अपनाया, मगर उनके मरते ही, उनकी जायदाद पर क़ाबिज़ होने के लिए तुल गए। असल में ये सब बातें बताती हैं कि समलैंगिकता के ख़िलाफ़ हमारा ये ग़ैरक़ुदरती का प्रलाप कैसी सोची-समझी साज़िश है। दूसरा जो ख़ौफ़ हम पर तारी किया जाता है, यानी यही कि दुनिया का निज़ाम तह-ओ-बाला हो जाएगा ये इस सिलसिले में भी था कि अगर ओपन रिलेशनशिप्स को क़बूल कर लिया गया तब भी ऐसा होगा, जबकि हम देखते हैं कि दुनिया के तक़रीबन तमाम मुल्कों में इन रिश्तों को क़बूल कर लिया गया है और उनसे ऐसा कोई नुक़सान नहीं हुआ, कोई उथल-पुथल नहीं मची। दुनिया तबाह नहीं हो गई। ठीक यही समलैंगिक संबंधों के साथ होना है।

हमारा यानी ख़ासतौर पर अदीबों-शाइरों की जमात का इस बात से ख़ौफ़ खाना ख़तरनाक है। इसकी वजह ये है कि अदीबों का तबक़ा दुनिया भर में तमाम दूसरे तबक़ों के मुक़ाबले में ज़्यादा उपयुक्तता और चेतना से काम लेता है, उसके यहाँ चीज़ों को उनकी अजीब-ओ-ग़रीब और अनोखी और नई शक्लों के साथ क़ुबूल करने का हौसला होता है, वो समाज को ज़्यादा बदलता हुआ महसूस करता है और ऐसी किसी भी चीज़ को जिसको करने से किसी तीसरे शख़्स की ज़िंदगी पर असर नहीं पड़ता, दिल से क़ुबूल करता है। मगर यहाँ तो हम देखते हैं कि हाल अजब है और हम ही इस बात से डरे-डरे और घबराए-घबराए घूम रहे हैं कि दो मर्द या दो औरतें अपनी मर्ज़ी से अपनी तन्हाई में जिस्मानी रिश्ता न बना लें।

जहाँ तक रही जानवरों के साथ यौन-संबंध बनाने की बात, अव्वल तो मैं नहीं समझता कि जानवर के साथ रिश्ता जानवर की मर्ज़ी भी हासिल करके बनाया जाना संभव है या नहीं। और मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई तरीक़ा खोजा भी जा सकेगा या नहीं। इसकी वजह ये है कि जहाँ तक मैं जानता हूँ, सेक्स जानवरों के लिए लज़्ज़त हासिल करने से ज़्यादा अगली पीढ़ी की पैदावार के तौर पर इस्तेमाल होने वाली चीज़ है, हालाँकि यह बात ग़लत भी हो सकती है; लेकिन शायद इसी लिए ज़्यादातर जानवरों में यौन-संबंध बनाने का मौसम और समय तक तय होता है। फिर भी मैं इस मामले का माहिर नहीं हूँ, मगर यही कहूँगा कि किसी को भी यह हक़ हासिल नहीं है कि किसी के भी साथ ज़बरदस्ती यौन-संबंध बनाए। यौन-संबंध तो छोड़िए, ज़बरदस्ती तो किसी को अपने साथ बिठाकर एक कप चाय पिलाना भी मेरी नज़र में अच्छा अमल नहीं है।

बाक़ी रही दुनिया की बात तो वो कौन-सा किसी की बात पर कान धरती है। जिसे जो करना है वो वैसे भी कर रहा है, हम तो एक ख़याली दुनिया की बात करते हैं, जहाँ चीज़ें वैसी हों, जैसा उन्हें होना चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि इंसान के मिज़ाज में ज़बरदस्ती की ख़्वाहिश सिरे से मौजूद ही नहीं, बल्कि कुछ लोग तो चाहते हैं कि सेक्स में उनका पार्टनर उनके साथ ज़बरदस्ती करे, मगर ये ख़्वाहिश उनके पार्टनर पर साफ़ होनी चाहिए और उन्हें मालूम होना चाहिए कि सामने वाला कौन-सा ‘नहीं’ किस मक़ाम पर कह रहा है। ये ज़बरदस्ती भी कितनी और किस हद तक हो ये दो लोगों को मिलकर ही तय करना चाहिए।

तसनीफ़ हैदर उर्दू की नई नस्ल से वाबस्ता कवि-लेखक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर समय-समय पर शाया उनके कामकाज को उनके ही लिप्यंतरण/अनुवाद में पढ़ने के लिए यहाँ देखें : तसनीफ़ हैदर

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1 Comment

  1. ऋचा पाठक जून 8, 2020 at 12:21 अपराह्न

    कितनी स्पष्ट हैं चीज़ें। जानवरों के बारे में इतने तार्किक ढंग से सोचना मानवीयता है। और ज़बरदस्ती तो किसी को चाय पिलाना भी अच्छा अमल नहीं। बहुत सटीक विश्लेषण……लिहाफ का भी।
    बधाई तसनीफ़ हैदर ,बधाई सदानीरा, बधाई अविनाश !

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