ओसामु दाज़ई की एक कहानी ::
अनुवाद और प्रस्तुति : सरिता शर्मा
ओसामु दाज़ई उपन्यासकार त्सुशिमा शुजी का छद्म नाम है. उनका जन्म जापान में कनगी के अमोरी प्रांत में 19 जून 1909 को हुआ था. वह द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में अपने समय की साहित्यिक आवाज के रूप में उभरे. उनके गूढ़ और व्यंग्यपूर्ण स्वर ने युद्ध के बाद जापान के भ्रम को दर्शाया, जब परंपरागत मूल्यों को अस्वीकार कर दिया गया था और युवा पीढ़ी ने अतीत की सभी बातों को शून्यवाद से खारिज कर दिया.
एक अमीर भू-स्वामी और राजनेता के छठवें बेटे ओसामु दाज़ई अक्सर अपने लेखन के लिए अपनी पृष्ठभूमि का इस्तेमाल करते थे. उनके अधिकांश लेखन का प्रमुख भाव उदासी था, लेकिन वह अपने विनोद के लिए भी प्रसिद्ध थे, जो कभी-कभी प्रहसन हो जाता था. दाज़ई के कहानी संग्रह ‘बानेन’ से कई शैलियों और विषयों के संभावित बहुमुखी लेखक होने की झलक उनमें दिखाई दी, लेकिन उन्होंने ‘शिशोसेट्सू’ (मैं या व्यक्तिगत कथा) लेखन की ओर रुख किया, और उसके बाद लेखक के पात्र को उनकी अधिकांश रचनाओं में पाया गया.
ओसामु दाज़ई अपने शिल्प को गंभीरता से लेते थे, और उनकी कहानियां केवल संस्वीकृति दस्तावेज नहीं थीं. उन्होंने युद्ध के वर्षों (1941-45) के दौरान जापानी लेखकों के बीच लगभग अकेले, वास्तविक साहित्यिक योग्यता की रचनाएं लिखने का काम जारी रखा. ‘ओटोगी जोशी’ में पारंपरिक कहानियों के नए संस्करणों में उनकी शैली और बुद्धि की तीक्ष्णता देखी जा सकती थी. ‘त्सागरु’ उनके जन्म स्थान का गूढ़ और सहानुभूतिपूर्ण वृत्तांत था. उनकी युद्ध के बाद की सभी पुस्तकों— ‘शैयो’, ‘बायोन नो सूमा’ और ‘निंगन शिक्ककु’ का स्वर लगातार निराशाजनक होता गया, जो लेखक की भावनात्मक उथल-पुथल का द्योतक था. ओसामु दाज़ई ने कई असफल प्रयासों के बाद ‘गुडबाय’ उपन्यास को अधूरा छोड़कर 13 जून 1948 में आत्महत्या कर ली.
इंतज़ार
मैं हर दिन किसी से मिलने के लिए छोटे स्टेशन पर जाती हूं. वह कौन है, मुझे नहीं पता.
मैं हमेशा अपने घर से बाजार के रास्ते पर वहां जाती हूं. मैं ठंडी बेंच पर बैठकर अपनी टोकरी को गोद में रखती हूं, और टिकट द्वार पर नजर डालती हूं. हर बार जब रेलगाड़ी — कोई अप लाइन रेलगाड़ी, कोई डाउन लाइन रेलगाड़ी — पहुंचती है, यात्री रेलगाड़ी के दरवाजे से बाहर निकलकर द्वार की ओर भीड़ लगा देते हैं. वे क्रुद्ध चेहरों से पास दिखाते हैं, टिकटें पकड़ाते हैं. फिर, नजरें सीधे आगे की ओर रखते हुए, वे तेजी से चलते हैं. वे मेरी बेंच के पीछे से आते हैं, स्टेशन के सामने खुली जगह में चले जाते हैं, फिर अपनी विभिन्न दिशाओं में बिखर जाते हैं. मैं बस वहां बैठती हूं. कोई मुस्कुराए और मुझसे बात करे तो क्या बात है? अरे नहीं, बिल्कुल नहीं! इस बात से मुझे बहुत घबराहट होती है. मैं बस इस विचार से ही कांप जाती हूं, मानो मेरी पीठ पर ठंडा पानी फेंक दिया गया हो और मैं सांस नहीं ले सकती हूं. लेकिन फिर भी मैं हर दिन किसी का इंतजार कर रही हूं. वह कौन हो सकता है, जिसका मैं इंतजार कर रही हूं? किस तरह का व्यक्ति? लेकिन ऐसा हो सकता है कि वह कोई व्यक्ति हो ही नहीं. मुझे लोग पसंद नहीं हैं. या यों कहें, वे मुझे डराते हैं.
मैं किसी के सामने जाकर सिर्फ कहने के लिए ऐसी बातें नहीं कहना चाहती, जैसे ‘आप कैसे हैं?’ या ‘मौसम ठंडा हो रहा है.’ मुझे इससे नफरत है. इससे मुझे महसूस होता है कि मैं झूठी हूं, दुनिया में कोई मुझसे बड़ा झूठा नहीं है. इसकी वजह से मैं मरना चाहती हूं… और मैं जिन व्यक्तियों से बात कर रही हूं, वे मुझसे बहुत सावधान हैं, अस्पष्ट प्रशंसा करते हैं, उन विचारों की व्याख्या करते हैं जो उनके पास वास्तव में नहीं हैं : मैं उन्हें सुनती हूं और उदास हो जाती हूं, उनकी घटिया सावधानी से उदास हो जाती हूं. इसके कारण मैं दुनिया को और अधिक नापसंद करती हूं और मैं इसे सहन नहीं कर सकती हूं. क्या लोग हमेशा से ऐसे ही हैं— अपना पूरा जीवन एक-दूसरे को कड़ी मेहनत से सावधानी से किए गए अभिवादन करने में थकाते हुए व्यतीत करते हैं? मैं लोगों के साथ नहीं रहना चाहती हूं. बहुत असामान्य परिस्थितियों को छोड़कर, मैं कभी दोस्तों से मिलने के लिए नहीं गई.
मुझे हमेशा सबसे ज्यादा अच्छा घर पर रहना लगता था, मेरी मां के साथ चुपचाप सिलाई करना, बस हम दोनों ही. लेकिन फिर युद्ध शुरू हुआ और स्थितियां इतनी तनावपूर्ण हो गईं कि मुझे लगा कि बस मुझे ही घर पर अकेले नहीं होना चाहिए. मुझे असहज महसूस हुआ. मैं बिल्कुल आराम नहीं कर सकी. मुझे लगता था कि मैं सीधे योगदान करने के लिए यथासंभव मेहनत करना चाहता थी. मैं जिस तरह से रह रही थी, उसमें मेरा विश्वास खत्म हो गया था. मैं चुपचाप घर पर बैठे रहना सहन नहीं कर सकती थी. लेकिन अगर मैं बाहर चली जाती, तो मेरे लिए जाने की कौन-सी जगह थी? तो मैं खरीदारी करती हूं, और घर लौटते हुए रास्ते पर स्टेशन पर जाकर इंतजार करती हूं और वहां ठंडी बेंच पर बैठ जाती हूं.
मैं चाहती हूं कि वह ‘कोई’ आए : ‘ओह, अगर वे अचानक दिखाई दे जाएं!’ लेकिन मुझे बहुत डर लग रहा है : ‘अगर वे आ गए तो क्या होगा? मैं क्या करूंगी?’ इसके साथ ही मैंने सोच लिया है, संतोष कर लिया है : ‘अगर वे आ जाते हैं तो मैं अपना पूरा जीवन उनको समर्पित कर दूंगी. वह पल मेरे भाग्य का फैसला करेगा.’ ये भावनाएं अजीब तरह से आपस में घुली-मिली हुई हैं— ये भावनाएं और अपमानजनक कल्पनाएं. मेरे दिल में दर्द उठता है : यह जबरदस्त, लगभग दम घोंटने वाला है. दुनिया चुप हो गई है : स्टेशन पर आगे-पीछे चलने वाले लोग दूर और छोटे लगते हैं, मानो मैं दूरबीन के गलत छोर से देख रही हूं. यह सच नहीं लगता है, मानो मैं दिवास्वप्न में हूं, मानो मुझे यकीन नहीं है कि मैं जिंदा हूं या मर गई हूं. ओह, वह कौन हो सकता है जिसका मैं इंतजार कर रही हूं? शायद मैं सिर्फ एक अनैतिक वेश्या हूं. युद्ध के बारे में और असहज महसूस करने, यथासंभव कठोर परिश्रम करने और योगदान करने की इच्छा… शायद यह सब झूठ है. शायद मैं अच्छा-सा लगने वाला बहाना बना रही थी, अपनी लापरवाह कल्पनाओं को साकार करने का अवसर खोजने की कोशिश कर रही थी. मैं इस भावहीन चेहरे के साथ यहां बैठी हूं, लेकिन मन की गहराई में मुझे कोई झिलमिलाहट, किसी अपमानजनक साजिश की लौ नजर आती है.
वह कौन है जिसका मैं इंतजार कर रही हूं? मेरे मन में कोई साफ विचार नहीं है— मेरे मन की धुंध में बस एक अस्पष्ट-सी छाया है. फिर भी मैं इंतजार करती हूं. मैं युद्ध की शुरुआत के बाद से हर दिन, खरीदारी करके लौटते हुए रास्ते में स्टेशन पर आई हूं, इस ठंडी बेंच पर बैठी हूं, और इंतजार किया है. अगर कोई मुस्कुराए और मुझसे बात करना चाहे तो क्या होगा? अरे नहीं, कृपया नहीं! वह तुम नहीं हो जिसका मैं इंतजार कर रही हूं. तो वह कौन है जिसका मैं इंतजार कर रही हूं? पति? नहीं, कोई प्रेमी? हरगिज नहीं. कोई दोस्त? अरे नहीं. पैसे? हास्यास्पद बात है. कोई भूत? अरे, नहीं!
कुछ और अधिक सुखद, उज्ज्वल और हंसमुख, कुछ अद्भुत. मुझे नहीं पता कि वह क्या है. कुछ-कुछ वसंत जैसा. नहीं, वह ऐसा नहीं है. ताजा पत्ते. मई. गेहूं के खेतों से होकर बहता हुआ ठंडा स्वच्छ पानी. नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. आह, लेकिन तो भी मैं इंतजार करती हूं, मेरा दिल धड़क रहा है. मेरी नजरों के पीछे से लोग गुजर रहे हैं. वह यह नहीं है. वह भी नहीं. अपनी बांहों में खरीदारी की टोकरी लिए, मैं कांपती हूं. मैं इंतजार करती हूं. मैं तहेदिल से इंतजार करती हूं. मैं तुमसे पूछती हूं, कृपया, कृपया मुझे भुलाना नहीं— वह लड़की जो हर दिन तुमसे मिलने के लिए स्टेशन पर आती है और फिर उदास होकर घर लौट जाती है. मेहरबानी करके मुझे याद रखना, और मेरा मजाक मत उड़ाना. मैं तुम्हें छोटे स्टेशन का नाम नहीं बताऊंगी. मुझे बताने की जरूरत नहीं है : कभी तुम मुझे देखोगे, भले ही मैं तुम्हें न देखूं.
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यहां प्रस्तुत कहानी अंगुस तुर्विल कृत अंग्रेजी अनुवाद पर आधृत है. सरिता शर्मा सुपरिचित हिंदी लेखिका और अनुवादक हैं. उनसे sarita12aug@hotmail.com पर बात की जा सकती है.