कविता ::
अमन त्रिपाठी

अमन त्रिपाठी

‘या रब हमेशा रखियो तू आबाद आगरा’

एक

सत्रह सौ सत्तावन की एक सुबह वली मोहम्मद धूलियागंज से मलको गली आने को उठा और अहमद शाह अब्दाली से टकरा गया
अब्दाली जाने किस बात से नाराज़ था उसकी बेटी के ब्याह का कुछ मसला था
वली को अपनी प्रेमिका से मिलने जाना था उसे देर हो रही थी
और अब्दाली को घनानंद ने ज़र नहीं दिया था
और वली के बाप नहीं रहे थे दूर से सूरजमल इन दोनों को निहार रहा था
वली ने उसे कुछ कहा सुनकर अब्दाली बौखलाया सूरजमल मुस्कुराया

इतने में जाने क्या होता है साहिबान कि धूलियागंज से मलको गली की तीन सदी की दूरी इन्हीं बातों में तय हो जाती है
और अब तो इन लनतरानियों का क्या मतलब है
कि वली अब्दाली
सूरजमल इमादुलमुल्क वग़ैरह
शाहगंज भगबान अड्डे तोरा शहीदनगर
की ऑटो चलाते हैं

श्रीजी मिष्ठान्न भंडार का अधिग्रहण कर
श्यामजी मिष्ठान्न भंडार में रूपांतरण की योजनाएँ बनाते हैं

और नामनेर से बसई ख़ुर्द की मज्जिद में
रोज़ाना दिन काटने आते हैं

कैसे सितम हैं कि फिर भी कानों में
किनारी बाज़ार की बाई का गाना गूँजता है—
‘‘या रब हमेशा रखियो तू आबाद आगरा’’

दो

नदी है झाग का कैनवास
पुराने का खेल-मैदान है वर्तमान
नई-नवेली मेट्रो धड़धड़ाते हुए
कैलाश सिनेमा का खंडहर हिलाते हुए दौड़ रही है

कितना बचकाना लगेगा कहना
मानो कितना बड़ा रहस्योद्घाटन
कि अकबराबाद में अकबर नहीं है
और मियाँ नज़ीर की क़ब्र पर
सिरहाने बकरी पैताने कुत्ता खड़ा है
कि कुछ भी तो नहीं है अपनी जगह पर
वली मोहम्मद!

तुम किसके मुंतज़िर थे तब और अब किसके
आगरा भी वह कहाँ था जो तुम गाते थे
वह तुम्हारी नज़्मों से भी अधिक काल्पनिक
अधिक सादा
हरामीपने में और ज़्यादा

कौन किसका प्रतिबिम्ब!

एक जादूगर ने मुझे जादू दिखाकर ठगा
मैं ऐसे ठगा गया जैसे वह तुम्हारी सादगी थी

एक शाइर ने मुझे झूठा इतिहास बताया
मैंने ऐसे सुना जैसे वो तुम्हारी नज़्में थीं

मुझे तुम्हारे भूगोल ने बार-बार चकमा दिया
तुमसे नहीं
मैं तुम्हारे भूगोल से मुतासिर हूँ
तुम्हारी भाषा के जाल में फँसा हुआ

तुम्हीं से गुफ़्तगू करने को तरसता है ‘मीर’
तुम जो मंटोले के रेलवे पुल के नीचे
अपनी टोपी लगाए जूता बेचते हो
तीन सदियाँ उस पुल के नीचे
धूल और धुएँ में हाँफ रही हैं

निरंतर हो रहा नवजागरण

जामा मस्जिद की अज़ान के बैकग्राउंड में
तुम्हारी दाद के तलबगार, मीर गुनगुनाते हैं—
या रब!
हमेशा रखियो तू
आबाद आगरा

और तुम जूझते हुए कि हर आदमी
तुम्हें एक जोड़ी जूता न लगने लगे!

तीन

आगरे की अब मैं क्या बयान करूँ
अकबर ने उसे जो बुलंदी दी
और शाहजहाँ ने उसे जो चमक दी
और वली मोहम्मद ने उसे जो पानी दिया
कि चीन का वह दामाद लगता था

जमुना यहीं से जाती थी वृंदावन और समूचा गोकुल
मधुपुरी नगर के बसैया के बालपन की लहरों पर
झूमता था
अब आलम यह है कि मैं तो जमुना में पैर धरने से भी डरता हूँ
बहुत से कारण हैं जो या तो जमुना समझेगी या मैं

जो था वह रहा नहीं
जो है वह छुपा नहीं
किस भाषा में कहूँ कि जो स्पष्ट है
जमुना अब नष्ट है

लेकिन मुझे यह पाप करने से कौन रोकेगा वली मोहम्मद?
कि चौक काग़ज़ियान जब कुत्ता पारिक नहीं बना था
तब जमुना में पानी की जगह सुख़न बहता था!
और सुलहकुल सारी सरज़मीन पर
अपना परचम लहरा रहा था
यह तो इस जनता के राज ने सारी घुसड़पंचायत
सारी मुसीबत फैला रखी है

ज़ाहिर है तुम्हीं रोकोगे वसंत के अग्रदूत, फक्कड़ दरवेश
तुम्हीं बताओगे मनुष्य होने के अर्थ
कि वह अभी हो या तीन सदी पहले
या तीस सदी पहले
या बाद
बरख़ुरदार, इंसान इंसान होता है
और जमुना जमुना ही है
अब भी उसमें तुम्हारे ही पाप बहते हैं

तुम्हीं हज़ार-हज़ार आँखों से फ़रेब पर रोओगे
तुम्हीं हज़ार ढब से झूठ पर ठहाके लगाओगे
फुलट्टी की अपनी माशूक़ा से मिलने कब जाओगे?
जाओ भई! उसकी अंगिया खोलने को इसरार करो
तुम्हारी फ़क़ीराना रंगत बहुत ज़्यादा और
उबाऊ होती जा रही है!
जनता तुम्हें संत कवि बनाने पर आमादा है
जैसे ताजमहल को तेजोमहालय

चार

मलको गली नीम के नीचे
शाहजहाँ के रौज़े से सौ क़दम दूर
उठ रही है एक धुन
किसी एक समय की नहीं
मनुष्यता की सबसे आदिम और
सबसे आधुनिक धुन

धुन जो सिर्फ फ़नकार की नहीं
सबकी है जो सुने न सुने
समूह नहीं जिसमें
गूँजता है इतिहास का आकाश
भविष्य का जल

नितांत साधारण और उबाऊ होने की हद तक
एकरस वह धुन
वैसा ही फ़नकार
विशिष्टता की एक हरकत
एक मुरकी भी नहीं
यही उसकी त्रासदी

इस क़दर बे-चेहरा है वली मोहम्मद
उसके चेहरे में सबका चेहरा है
यही उसकी विरासत

क्या है वली मोहम्मद तुम्हारी विरासत
जिसमें हिंदोस्तान का असली चेहरा झलकता है
और जिस चेहरे को अकबराबाद का हर बाशिंदा
ग़लत-सलत जानता है
क्या यह हिंदोस्तान है अकबराबाद
और तुम अकबराबाद की वह ख़ाक जिसे
सत्तावन की लड़ाई में जमुना बहा ले गई?

मैं कमज़र्फ़ तुम्हें सालों बिलोचपुरा
बसई धूलियागंज माल के बाज़ार और घटियों में
नज़्मों में तिकोनी टोपियों में खोजता रहा
हर साल तुम्हें प्रकट तो कर ही देते थे तुम्हारे लोग
होली-दीवाली-जन्माष्टमी पर

पर वह कौन था वली मोहम्मद वह तुम नहीं हो
क्या ये‌ वही हैं तुम्हारे चेहरे पर अपना चेहरा लगाए
जमुना का पानी पी सकने का ढोंग करते
निर्लज्ज नए हिंदुस्तानी?

जिनके कानों में वह धुन नहीं अमाती
जिसे इत्मीनान से सुन रही है तुम्हारी क़ब्र पर सवार बकरी
और ‘जनकवि नज़ीर पार्क’ में क्रिकेट खेलते रील बनाते
अरबाज़ शाहरुख़ शरीफ़ पप्पू और नूरजहाँ

‘‘फुर्सते-ख़्वाब नहीं ज़िक्रे-बुताँ में हमको
रात-दिन राम कहानी-सी कहा करते हैं’’ [मीर]

पाँच

अकबर और शाहजहाँ का नहीं
दारा का नहीं
आगरा वली मोहम्मद का टूटा हुआ सपना है
जो कभी पूरा नहीं हो सकता

जिसके टुकड़े तैरते हैं लड़कियों की नींद में
मदारियों की बीन में
गाइडों की बीड़ियों में
लालकिले की सीढ़ियों में

हुमायूँ के पुस्तकालय में भटकती जहाँआरा
वली की ग़ज़ल गुनगुनाती है
महताब बाग़ का डूबता सूरज हर रोज़
एक सपनीला इंद्रधनुष रचता है

आकाश में इंद्रधनुष निहारती
शहर की छत पर लड़कियाँ
हत्यारों से प्रेम के सपने देखती हैं
और जहाँआरा की गुनगुनी आवाज़ में डूब जाती हैं—
‘‘या रब हमेशा रखियो तू आबाद आगरा’’

छह

तुम कितने प्यारे हो आगरावालों
तुमने कितने जतन से वली का नाम बचा रखा है
वह कितना अकेला था और है
वली जैसों का क्या होता ज़माने में
यह तुमसे अच्छा और कौन जानता है

तुम में से किस-किसका मैं शुक्रिया अदा करूँ
कि तुम सबके चेहरे सबकी बोली
वली का चेहरा है वली की बोली है
उसने तुमसे पाई अपनी ज़बान
तुम्हारे ही दिलों में ठिकाना

सचमुच तुम उसी के प्रतिबिम्ब हो
वैसे ही अनगढ़ और खिले हुए
दारू के ठेकों पर चौंक पड़ते अपना नाम सुनकर
नाज़िर! नाज़िर!
ग़लत उच्चारण करता
स्वयंसेवक संघ का मंडल उपाध्यक्ष
मुहाजिर

दो-चार पन्नों में महाकाव्य-सा जीवन
कमज़र्फ़ प्यालों में कितनी आएगी शराब
बिना ज़बाँदराज़ी के वह आता ही नहीं तुम्हारी ज़बान पर
मानो वह आगरे से भी उठकर जा चुका है

पर मैं तुम्हारा मुरीद हूँ आगरावालों
तुमने ही तो उसे बचा रखा है
दग़ा दे-देकर, झूठ बोल-बोलकर

तुम्हें तो रहना ही होगा आबाद!

सात

मैं अंतिम बार तुम्हारे दर पर हाज़िरी लगाने आ रहा हूँ
क़सम खाता हूँ यह अंतिम मैं बार-बार दुहराऊँगा

अगस्त के कम-उम्र और अनुभवहीन बादल की तरह
उड़ता हुआ यहाँ आया था पहले-पहल

तब सैकड़ों हाथों की परछाइयों ने पहली बार
मुझे नरक से भी गहरे गर्त से निकलने का रास्ता दिखाया था

मैं मोहित था एक नए रास्ते के विचार पर
समय और धन का कोई महत्त्व नहीं था उस आकाश में

मैं लगभग जानता था कि उन हाथों की परछाइयों में
वली की परछाईं पकड़कर उस गर्त से निकल आऊँगा

जिसमें पड़ा रहा अब तलक, पर वली तो
अपनी मज़ार पर बैठा मेरे साथ चिलम फूँक रहा है

वह मुझसे भी गहरी गर्त में गिरा हुआ है
वह मुझसे भी ऊँचे आकाश में हवा हो गया है

मैं उसी की उन्मुक्तता में साँस ले रहा हूँ
मैं उसी की बेनियाज़ी में गिरता जा रहा हूँ

कहाँ गया समाज कहाँ गया शहर कहाँ मैं
मुझे कुछ हवा नहीं थी

जिसे देखने को पूरी ज़िंदगी काफ़ी नहीं थी
मैं बेख़बर उसे बेइंतिहा हसरत से देखे जा रहा था

उस दिलफ़रेब की एक-एक हरकत एक-एक मुरकी को
कहाँ-कहाँ दाद दूँ कहाँ-कहाँ दिल को ख़ूँरेज़ करूँ

मेरे ऊपर समय और धन की दीवार नहीं थी
अधैर्य की आग नहीं थी प्रतीक्षा का जल था

मैं उसे समझना चाहता था उसके आईने में
अपना प्रतिबिम्ब देखना चाहता था

मैं उसे आईना बनाने में लगा था या कि ख़ुद को
आईने की जगह हसरत की तस्वीर बनी जाती है

और अब जबकि मैंने अंतिम की गिनती शुरू कर ही दी है
अपनी इस लाचारी को कितना छिपाऊँ कि

अगस्त और अक्टूबर और जनवरी बीत चुके
साल बीते लोग बीते वली ने भी विदा ली

ख़्वाजा ख़िज़र की भाँति पाथेय में निराशा पकड़ाकर
पर मेरे पास सिर्फ़ निराशा नहीं है वली की पकड़ाई हुई

मेरे पास उन सैकड़ों परछाइयों की स्मृतियाँ भी हैं
तब मैं पहली बार बादल बनकर उड़ा था

पहली बार एक मनुष्यतर आशा उपजी थी
अब उस आशा को भी विदा कहने का वक़्त आ गया है

क़सम खाता हूँ यह विदा मैं बार-बार दुहराऊँगा
वह आशा और वह आकाश ही हैं मेरे पितर

• नज़ीर अकबराबादी का असली नाम वली मोहम्मद था। इस कविता का शीर्षक भी नज़ीर की ही एक नज़्म की पंक्ति है। 


अमन त्रिपाठी की कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह चौथा अवसर है। उन्होंने अपनी यह नई कविता ‘सदानीरा’ के आग्रह पर इस संदेश के साथ भेजी है :

‘‘यह कविता कविता की तरह नहीं लिखी जानी थी। इसको कम-से-कम चार सालों से मैं किसी और शक्ल में लिखना चाहता था और नहीं लिख पा रहा था। शायद गद्य सचमुच कठिन होता है और अपने मन-मुताबिक़ लिखना तो और भी। न लिख पाने के डेस्परेशन में मैंने इसको इस तरह लिखा।’’

अमन त्रिपाठी से laughingaman.0@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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