कहानी ::
देवी प्रसाद मिश्र

बहुत धुएँ में

उस सुबह जब उसने बिस्तर में लगभग नींद में ही माँ को खाने के लिए आवाज़ लगानी चाही कि टिफ़िन तैयार कर दो, उसे लगा उसके गले में कुछ फँसा हुआ है और यह भी कि वह कोई और ही दिन था।

वह उठा और वहाँ आया जहाँ स्कूल का बस्ता टँगा था। उसने बस्ते को छुआ। उसने किताबों को टटोला। वे थीं लेकिन उन्हें निकालने और पढ़ने का उसका मन नहीं हुआ।

उसने आस-पास देखा।

पिता पता नहीं कहाँ थे। माँ भी। पता नहीं कहाँ थीं।

वह माँ को ढूँढ़ने निकला। वह मुँह पर चादर डाल कर पड़ी थीं। पिता भी एक खाट पर मुँह पर चादर डाल कर पड़े थे।

बहन जगी थी, लेकिन छत की तरफ़ देख रही थी।

भाई नल पकड़े बैठा था।

वह बाहर आया तो कोने में फ़ुटबॉल लुढ़का पड़ा था। अमूमन इस तरह फ़ुटबॉल पड़ा हो तो उसे कोई भी उठा कर चल सकता था, भले ही बाद में खेलकर वापस ही क्यों न कर दे। लेकिन उस रोज़ फ़ुटबॉल को कोई नहीं ले गया था।

वह फ़ुटबॉल की तरफ़ इस तरह से गया कि जैसे वह जानता न हो कि इसका क्या किया जाए। उसने एक वज़नदार पत्थर की तरह उसे उठाया। उसे लगा कि उस भारी पत्थर को वह वापस वहीं रख दे, जहाँ से उठाया था। लेकिन फिर उसने उसे लेकर निकलने का फ़ैसला किया।

वह बाहर आ गया।

वह चलने लगा।

अचानक उसे लगा कि सड़क के समानांतर जो इमारत है, उसे वह पहचानता है।

यह उसका स्कूल था।

यह उसका स्कूल था।

उसने सुना था कि उसका स्कूल जल गया है। उसने तय किया था कि एक हैबतनाक मंज़र देखने वह स्कूल नहीं जाएगा। लेकिन वह स्कूल के बग़ल से ही गुज़र रहा था—ऐसे रास्ते से जिसे वह कम ही लिया करता था और जिससे वह वाक़िफ़ भी कम ही था। अब जब कि स्कूल दिख ही गया था, उसने स्कूल के भीतर जाने का फ़ैसला किया।

उसे यह तसलीम करने में मुश्किल हुई कि उसका स्कूल जल गया था। ब्लैकबोर्ड और बेंच। चार्ट और किताबें। प्याऊ की टंकी पर धुएँ के अक्स थे। टंकी सूखी थी जब कि उसे तेज़ प्यास लगी थी। वह अपने सिर पर पानी डालना चाहता था। वह बहुत सारे पानी में गुम हो जाना चाहता था।

स्कूल के बीच जो बड़ा-सा पीपल का पेड़ था, वह झुलस गया था और पीपल के नीचे जले पत्ते पड़े थे। यहाँ बच्चों और चिड़ियों का शोर होता रहता था। अब यहाँ पत्तों-डालों के अलावा कॉपी-किताबें भी जली-बिखरी थीं। उसे रोटी का झुलसा टुकड़ा भी मिला। वह रोने लगा। वह रोता रहा।

उसे लगा कि कोई और है जो स्कूल के किसी और कोने में रो रहा था। कही ऐसा तो नहीं था कि यह उसके अपने ही रोने की प्रतिध्वनि थी। लेकिन जब उसका अपना रोना कम हुआ तो भी उसे रोने की दूसरी आवाज़ें आती रहीं। तो वह रोने की गूँजती आवाज़ों को खोजने की कोशिशें करता रहा। ऐसा लग रहा था कि रोने वाला रो रहा था और रोते-रोते पूरे स्कूल में घूम रहा था। उसके लिए उन आवाज़ों को सहना कठिन हो गया। वह बाहर आ गया।

वे बुरे दिन थे ।

एक भयानक दूसरे भयानक की जगह लेता दिखता था।

चेहरे थे कि जैसे चाँद को तंदूर में डाल कर निकाला गया हो।

पेड़ कोयलों में बदल गए थे, जबकि चूल्हों में आग ही नहीं थी।

बहुत धुआँ था।

इस धुएँ के बीच एक बच्चा एक फ़ुटबॉल लेकर घूम रहा था।

खिलाड़ी साथी की तलाश में एक बच्चे को दूसरा बच्चा मिला और दो बच्चों को तीसरा। तीन बच्चों को चार और बच्चे मिले।

लेकिन फ़ुटबॉल खेलने वाले तेरह बच्चे नहीं मिल रहे थे जो या तो ग़ायब थे या जिनके माँ-बाप उनको लेकर कहीं चले गए थे या फिर उन्हें मार दिया गया था।

मैदान के बीच जाकर उन्होंने आसमान की तरफ़ देखा। इसके बाद वे काफ़ी देर तक सिर झुकाए बैठे रहे। फिर वे खड़े हुए और उन्होंने फुटबॉल खेलने के लिए दो टीमें बनाईं।

इनमें एक टीम में चार बच्चे थे और दूसरी में तीन।

वे खेलते रहे।

इस खेल को एक लड़की खिड़की से देखती रही जिसकी एक आँख दंगे में गोली का छर्रा लगने से फूट गई थी।

देवी प्रसाद मिश्र हिंदी के सुपरिचित कवि-लेखक हैं। उनसे d.pm@hotmail.com पर बात की जा सकती है। इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज़ गूगल से साभार।

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