कविताएँ ::
डॉ. अजित
कितना अच्छा हो
कितना अच्छा हो
जिसकी आए याद
आ जाए तभी
उसका एक फ़ोन
कितना अच्छा हो
जिससे नाराज़ हो
उसे कर दे माफ़
उसकी एक माफ़ी पर
कितना अच्छा हो
धूप और छाँव बैठे एक साथ
और सूरज हो जाए
थोड़ा बेफ़िक्र
कितना अच्छा हो
रोती हुई स्त्री
कांधे से लगकर
हो जाए एकदम चुप
कितना अच्छा हो
बच्चा हँसते हुए
पकड़े रोज़
हमारे गाल
कितना अच्छा हो
कि अच्छा होने की कल्पना में
दो अजनबी पेश आएँ
एक दूसरे से दोस्त की तरह
चाहे जितना बुरा हो
जीवन में
मगर इतना अच्छा भी
होना चाहिए
ताकि
आदमी कह सके बेझिझक
प्यार मेरी ज़रूरत है
और मैं ज़रूरतमंद नहीं हूँ।
सफ़र की कविताएँ
मेरे पास एक बैग है
उसमे दो जोड़ी कपड़े हैं
बैग मेरे कंधे पर है
मगर मैं सपनों की मज़दूरी करने निकला हूँ
इसलिए मेरे पैर ज़मीन के अंदर धँसे हैं
आसमान यह देख मुस्कुराता है
और मुझे याद आता है अपना मनुष्य होना।
***
मेरे पास कुछ पते हैं
उन पतों का सही होना थोड़ा संदिग्ध है
मेरे पास कुछ पते हैं
मेरे पास इस बात से उपजा एक हौसला है
मैं उन पतों पर शायद ही कभी जाऊँगा
मुझे अपना हौसला हर हाल में बचाना है।
***
बस का कंडक्टर पूछता है मुझसे
कहाँ जाना है?
मैं तत्परता से इसका जवाब देने से चूक जाता हूँ
जब वह थोड़ा आगे बढ़ जाता है
फिर मैं एक शहर का नाम बताता हूँ
वह देखता है मुझे लगभग वैसे
जैसे बिन टिकट कहीं जाना चाहता हूँ मैं
सफ़र में तत्परता से चूकने पर
मनुष्य और गति दोनों ही
कभी नहीं करते माफ़।
***
जहाँ मैं कल था
वहाँ अब मैं कब आऊँगा
नहीं पता मुझे
जहाँ मैं आज हूँ
वहाँ पहले कभी नहीं आया मैं
जहाँ मैं कल जाऊँगा
वहाँ कभी दुबारा नहीं जाना चाहता मैं
मेरे मन में जितने भी नकार हैं
वही मेरी यात्राओं का सच और भविष्य हैं।
***
सफ़र में भूख लगती है
तो याद आता है चना-चबैना
प्यास लगती है तो
याद आती है ख़ाली फेंकी गई
कोल्ड ड्रिंक की बोतल
सफ़र के दौरान
कुछ यादें आती हैं सिलसिलेवार
फिर नहीं याद आती
भूख और प्यास।
अस्पताल की कविताएँ
तुम्हारे दाएँ हाथ में कैनूला लगा है
मैं उसकी लंबी सुई को देखता हूँ
जिस जगह कैनूला लगा है
आस-पास की नसें दुबक गई हैं इसके दबाव से
तमाम तकलीफ़ के बावजूद
तुम्हारा हाथ ख़ूबसूरत लग रहा है
दर्द में ख़ूबसूरती तलाशना मेरी आदत नहीं वैसे
यह कैनूला तुम्हारे हाथ पर टँका है
किसी पहाड़ी फूल-सा
मैंने जब तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लिया
इसने किया कुछ इस तरह से एतराज़
जैसे इसे मुझसे ज़्यादा फ़िक्र हो तुम्हारी।
***
वातानुकूलित कक्ष
दीवार पर टँगा एल.सी.डी.
और एक साफ़-सुथरा कमरा है
फिर भी मैं पलटता रहता हूँ रिपोर्ट्स
उकता कर बंद कर देता हूँ टी.वी.
तुम्हारी आँख लगी है अभी
सोते हुए देखकर लगता नहीं तुम बीमार हो
तुम बीमार हो यह सोचकर
नींद नहीं आती मुझे।
***
मेडिकल की भाषा में यह फ़्लूड है
गाँव की भाषा में मैं इसे ग्लूकोज़ कहता हूँ
टप-टप यह बहता है आसमान से ज़मीन की तरफ़
और इन दोनों के बीच तुम लेटी हो
बीच-बीच में यह डरा देता है
जैसे कि बंद हो गया हो इस प्रवाह
मैं चाहता हूँ यह बोतल आख़िरी हो
मेरे चाहने से कुछ नहीं होता
अगर कुछ होता तो तुम यहाँ क्यों होतीं भला
ग्लूकोज़ को मैं कहता हूँ धन्यवाद
तुम्हारी तरफ़ से
फ़्लूड नहीं देता कोई जवाब।
***
हर घंटे बाद
तुम्हारा तापमान नापना है मुझे
यह काम वैसे नर्स का था
मगर मैंने उत्साह से नर्स को मना कर दिया
हर आधे घंटे में
तुम्हारे माथे पर हाथ फेरता हूँ मैं
ताकि कम हो सके आनी वाली गणना
यह कोई दवा नहीं है
यह दुआ भी नहीं है
यह बस मेरा अंधविश्वासी मन है
जिसे नर्स से ज़्यादा ख़ुद पर भरोसा है।
***
बीमारी में
जब आधे गाल से तुम मुस्कुराती हो
अच्छी लगती हो
मेरी हर लंबी आह पर
यह मुस्कान बरबस निकलती है
इस तरह हम दोनों
विदा करते हैं
अपने भारी-भरकम दुःख को।
अस्पताल की कुछ और कविताएँ
नित्य और अनित्य के मध्य
डॉक्टर का संतुलित मत
कभी भरोसा जगाता था
तो कभी डराता था
उन दिनों मैं हो गया था बेहद कन्फ़्यूज्ड
किसे माना जाए भगवान
कभी डॉक्टर लगा था भगवान
तो कभी भगवान लगता था एक डॉक्टर।
***
कभी-कभी जूनियर डॉक्टर
सीनियर डॉक्टर से तुम्हारी बीमारी के बारे में
करते थे सवाल-जवाब
उस वक़्त रूम बन जाता क्लास रूम
तुम्हें ‘सब्जेक्ट’ बनता देख लगता था बेहद ख़राब
तब डॉक्टर से नहीं करता था कोई सवाल
बस देखता था तुम्हारी तरफ़
उस वक़्त तुम ही थीं
जिसके पास था मेरे हर सवाल का जवाब।
***
डॉक्टर के लिए
तुम एक बीमार देह थीं
यह उनके पेशेवर प्रशिक्षण का हिस्सा था
फिर भी मैंने कई बार डॉक्टर को देखा
थोड़ा निजी तौर पर फ़िक्रमंद होते हुए
जब तुम ठीक हो गईं
डॉक्टर ने अपनी ख़ुशी छिपाई हमसे
तब जान पाया मैं
एक डॉक्टर की परिपक्वता।
***
नर्सिंग स्टेशन का स्टाफ़
मेरी अधीरता के कारण
मुझे करता था
थोड़ा नापसंद
महज़ तुम्हारी वजह से
वह मुस्कुराते हुए आता था पेश
मैंने डिस्चार्ज के वक़्त
जब उनको कहा धन्यवाद
उन्होंने कहा : ख़याल रखना
तुम्हारे प्यारे होने का
यह सबसे बड़ा सबूत था मेरे लिए।
***
कुछ दवाओं के नाम
मुझे याद रह गए है
मैं उन्हें भूलना चाहता हूँ
जब कोई करता है
बीमारी की बात
मेरे याददाश्त हो जाती है ताज़ा
फिर जानबूझकर
बीमारी की बात पर
सुना देता हूँ मैं अपनी एक कविता
दवा को भूलने की
यही एक दवा है मेरे पास।
संवेदन के विरुद्ध
मेरी देह की त्वचा
इतनी संवेदनहीन हो गई है कि
एक नन्ही चींटी
इसे धरती समझ दौड़ रही है
बेपरवाह
मैं उसकी दौड़ में कोई बाधा नहीं चाहता
इसलिए लंबवत पड़ा हूँ बहुत देर से
मैं नहीं चाहता कि मेरी कोई हरकत
उसे उसकी ग़लती का एहसास कराए
धरती से कुछ फ़ीट ऊपर
चींटी का उत्साह देखते ही बनता है
वह मेरे पैर के अँगूठे पर उगे बालों को
जंगल समझकर खेल रही—भूलभुलैय्या
त्वचा संवेदनहीन होकर
पेश आती है धरती की तरह
और धरती संवेदनहीन होकर बन जाती है
एक उखड़ी हुई त्वचा
एक आँख से चींटी
और एक आँख से धरती देखने पर
इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ मैं
जो चींटी मेरी देह को
धरती समझ घूम रही है
वह दरअसल व्यस्क नहीं
मैं इसलिए आश्वस्त हूँ
मुझे डंक का भय नहीं
इसलिए उदार हूँ
मेरी आश्वस्ति को
उदारता या प्रेम नहीं समझा जाए
त्वचा का संवेदनहीन होना
मुझे देख रहा है—कौतूहल—
देखने का आत्मविश्वास
मैं वयस्क हूँ
और चींटी नहीं है
दोनों ले रहे है अपने अपने लाभ
संवेदना का हीन हो जाना
हम दोनों को सिखा रहा है
अपने-अपने हिस्से का लाभ लेना।
डॉ. अजित हिंदी कवि-लेखक हैं। उनका एक कविता-संग्रह ‘तुम उदास करते हो कवि!’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। वह अध्यापन से संबद्ध हैं और शामली (उत्तर प्रदेश) में रहते हैं। उनसे dr.ajeet82@gmail.com पर बात की जा सकती हैं।