डायरी ::
व्योमेश शुक्ल

व्योमेश शुक्ल

संगीतकार। बहुत बड़ा साधक। अपने संगीत की ताक़त से हमें अपनी टुच्ची प्रतिदिनता से उबारकर एक दूसरी ही दुनिया में ले जाने वाला। लेकिन संगीत के बाहर? गुस्ताख़ी माफ़, लगातार एक जैसी बात करने वाला, हद से ज़्यादा स्थानीय और यथास्थिति से विचित्र तरीक़े से अनुकूलित एक नितांत साधारण व्यक्ति। उसे बार-बार समझना और डिकोड करना होगा, गोकि इसमें भी बड़ा सुख है।

लेकिन कुछ संगीतकार ऐसे न भी तो हों।

काशीस्थ। बोलचाल की भाषा में बनारसी—बनारस में रहने वाला। वाराणसी का नागरिक।

लेकिन काशीस्थ शब्द की एक संवैधानिक व्युत्पति भी है। नागरी प्रचारिणी सभा के संविधान में इसका एक विशिष्ट अर्थ है। सभा के संविधान को बहुत श्रेष्ठ माना जाता है। 1893 में निर्मित इस संविधान की छाया भारत के संविधान पर भी है। विशेष रूप से राज्यसभा के गठन पर। इस संस्था की प्रबंध समिति के एक तिहाई सदस्यों का कार्यकाल हर दूसरे बरस पूरा हो जाता है।

लेकिन काशीस्थ? नागरी प्रचारिणी सभा के संविधान में दी गई इस शब्द की व्याख्या के मुताबिक़ वह है जो साल में कम से कम 180 दिन काशी में निवास करता हो। आगे यह भी लिखा है कि जो काशीस्थ नहीं है, वह इस संस्था का प्रमुख नहीं हो सकता—लाख काशी उसके दिल में बसती हो; लाख उसे माँ गंगा ने बुलाया हो।

हालाँकि ताज़ा हालात ये हैं कि वहाँ का प्रमुख एक ऐसा ही व्यक्ति है जो साल-भर में 180 क्या, 18 दिन भी यहाँ नहीं रहता। यानी इन दिनों सभा के संविधान का भी वही हाल है, जो भारत के संविधान का है।

विचित्र है। सुबह शुरुआत की इच्छा नहीं होती और रात में ख़त्म करने का मन नहीं होता। मन करता है बैठे रहें, बातचीत करते रहें और न बैठने का मौक़ा मिलता है, न बतियाने का। फिर जब मौक़ा मिलेगा तो इसमें भी मन नहीं लगेगा। पहुँचते-पहुँचते पहुँचने की ख़ुशी ख़त्म हो चुकी होती है; फिर कहीं और जाना पड़ता है। लौटने में कोई रोमांच बचा नहीं—लोग पहले ही फ़ोन करके जान लेंगे, कहाँ तक लौटे।

सामान्यीकरण के ख़िलाफ़ रघुवीर सहाय की एक बारीक बात मुझे बार-बार याद आती है। उन्होंने कहा था कि मान लीजिए आप कह रहे हैं कि सब लोग बेईमान हैं; लेकिन उनमें से अगर एक भी ईमानदार है तो आप उसके साथ अन्याय कर रहे हैं।

मानस की अंतिम दो पंक्तियाँ देखिए। बाबा अगर आज की दुनिया में होते तो करेक्टनेस के तंग दायरे उनकी क्या गति करते :

कामिहि नारि पियारि जिमि, लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर, प्रिय लागहुँ मोहे राम।

कामी जैसे नारी को चाहता है और लोभी जैसे पैसे को—तुलसीदास अपने आराध्य को वैसे ही चाहना चाहते हैं।

क्या चाहना है।

आदमी नशा क्यों करता है? उसके आशय क्या हो सकते हैं? प्रसादजी ने ‘कामायनी’ में इसका जवाब खोजा था।

पुरोडाश के साथ सोम का पान लगे मनु करने,
लगे प्राण के रिक्त अंश को मादकता से भरने।

यानी भीतर जो ख़ला है, उसे मादकता से भरा जाता है।

बाँस का गाना

बाँस राग है बाँस साज है
बाँस प्रजा है बाँस राज है
बाँस नींद हैं बाँस जाग है
बाँस खड़ा है बाँस भाग है
बाँस शुरू है बाँस अंत है
वही शून्य है, वहि अनंत है
बाँस का मेला, बाँस अकेला
वही एक था, वही अनेक है
बाँस गुरु है, बाँस है चेला
बाँस भीड़ है, बाँस अकेला
बाँस बाँसुरी बाँस वंश है
बाँस जीव का परम अंश है
संत बाँस है, पीर बाँस है
धनुष बाँस है, तीर बाँस है

उदय प्रकाश की कविता ‘हम हैं ताना… हम हैं बाना’ के शिल्प में

विजय देव नारायण साही की किताब ‘लोकतंत्र की कसौटियाँ’। फ़र्रूख़ाबाद उपचुनाव पर साहीजी का संस्मरण। उस समय देश-भर के मीडिया की दिलचस्पी लोहियाजी में थी। चुनाव के बाद मीडिया ने उनसे पूछा : अब आप क्या करेंगे? लोहियाजी ने जवाब दिया : अपनी महिला मित्रों के साथ समय गुज़ारूँगा। आज के नेताओं में है इतना साहस?

मैं दुस्साहस की बात नहीं कर रहा।

चंचल किशोर सुंदरता की मैं करती रहती रखवाली,
मैं वह हल्की-सी मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली।

लज्जा का आत्मपरिचय (कामायनी; जयशंकर प्रसाद)

कभी-कभी इन पंक्तियों को रचना और आलोचना के संबंध के रूपक के तौर पर पढ़ लेने में कोई हर्ज नहीं।

कल गंगा अवतरण के मिथक पर निर्मित एक महत्वाकांक्षी वीडियो देख रहा था। उसमें सगर के सभी पुत्र उल्टा जनेऊ पहने हुए थे—दाहिने कंधे पर। मैंने मन ही मन में कहा—भाड़ में जाओ।

हम लोगों के लीलासहचर भी अनोखे। इस बार विजयादशमी की लीला के दौरान दो लोगों का संग साथ रहा। पहले : जितेन्द्रनाथ मिश्र और दूसरे : आशीष मिश्र।

जितेंद्रजी बातों ही बातों में कहने लगे : तुलसीदास देवताओं के प्रति कितने क्रिटिकल हैं। कथा में जब देवता रावण वध के बाद भगवानजी की अभ्यर्थना करने आए हैं तो तुलसीदास कह रहे हैं कि ये स्वार्थी देवता यहाँ आकर परमार्थ की बातें कर रहे हैं।

दूसरी बात आशीषजी ने कही। ‘जय राम सदा सुखधाम हरे’ शीर्षक भजन बिल्कुल राग भूपाली में है। वह सिर्फ़ चार सुरों में गाया जा रहा है और चारों भूपाली के हैं।

वाह रे मैं, वाह रे मेरी सभ्यता, वाह रे मेरी सोहबत।

जो अपना मज़ाक़ नहीं उड़ा सकता, वह किसी का दोस्त न हो पाएगा।

लक्ष्मी नारायण जायसवाल नाम का सहपाठी मेरा पहला रक़ीब था। उसने कक्षा आठ में मेरी पहली प्रिया को अपने ख़ून से एक चिट्ठी लिखी—चार पंक्तियों की। ‘फ़िराक़े यार में… से हम मिलेंगे’ तक। उस दिन से अब तक, मैं तमाम कोशिशों के बावजूद फ़िराक़ साहब के बहुत क़रीब न जा पाया।

ख़ून के आगे फीके हैं छप्पन विध पकवान
रिश्ते में दाख़िल हुआ शैतानी उनवान ;
फिर कमज़ोर हुआ इंसान
लालच के काले पर्दे के
पीछे अकड़ा खड़ा हुआ
खलखल हँसता है शैतान

भाई-बहन के प्यार वाला एक नाटक था, जिसमें भाई बहन से बिछड़ जाता है। उसके लिए एक गाना लिखा था :

नदी किनारे
अंधकार घनघोर
बियाबान का शोर
सरसरसर और चरर-मरर
और साँय साँय
और धक्क-धक्क
और धांय-धांय
ख़ाली बर्तन सूखा चेहरा
गीली आँखें
टूटी नाव
बिन बहना का भाई गुमसुम
कहाँ मिले है उसको ठाँव

इतना सुरक्षित जीवन कि आज तक एक रेलगाड़ी तक नहीं छूटी। सब कुछ पहले से तय। ऐसे जीवन की जय करूँ या इसे लानत भेजूँ? कमतर क़िस्म के संशय, कमतर चुनौतियाँ, कमतर पराक्रम और कमतर सुंदरता।

मैं धन्य हूँ; मुझे धिक्कार है।

कल गणेश चतुर्थी थी। भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की चौथी तिथि को पड़ने वाला मराठी लोकोत्सव नहीं; माघ के कठिन जाड़े की चौथी तारीख़ पर आने वाला उत्तरभारतीय स्त्रियों का रंगारंग त्योहार जिसमें माँएँ अपने बेटों के लंबे, स्वस्थ और प्रसन्न जीवन की कामना में दिन-भर उपवास करती हैं, गणेशजी के मंदिरों में जाती हैं; नंगे पैर, लंबी क़तारों में घंटों खड़ी रहकर पहले दर्शन की प्रतीक्षा और फिर दर्शन करती हैं। गणेशजी की हैसियत हिंदू धर्म में बहुत ऊँची है। कोई भी मंगल कार्य उनकी पूजा के बग़ैर शुरू ही नहीं हो सकता। शुक्र है कि राजनीतिक दलों का ध्यान उनकी ओर नहीं है।

लेकिन मैं गणेशजी के बारे में क्यों सोच रहा हूँ। दरअसल, मुझमें और उनमें कई बातें एक-सी हैं। मैं उन्हीं की तरह ख़ूब मोटा-ताज़ा हूँ। उन्हीं की तरह अपनी माँ का लाड़ला हूँ और मौक़ा मिलता तो उनकी ही तरह अपनी माँ की ख़ातिर पिता के हाथों अपना सिर भी कटवा लेता। गणेशजी अपने माँ-पिता की परिक्रमा करके मान लेते हैं कि दुनिया का चक्कर लग गया। मैं भी वैसा ही आलसी हूँ। मेरा भी कहीं जाने का मन नहीं करता। घर में खा पीकर, टोपी-मोज़ा पहनकर, ज़मीन पर चटाई या क़ालीन बिछाकर, पढ़ने की डेस्क सामने रखकर और पालथी मालकर जम कर पढ़ता रहूँ या कोई व्यास अगर बोले तो ‘महाभारत’ जैसा कुछ लिखूँ। यह हुई न बात।

लेकिन बात महज़ इतनी नहीं है। कुछ और भी है, जिसकी वजह से आज तक मेरे तार गणेशजी से जुड़े हुए हैं। मेरे नाना बड़ागणेश मंदिर के पुजारी थे और मेरा पूरा बचपन ननिहाल में रहकर मंदिर में चढ़ा हुआ मेवा-मिष्ठान और लड्डू खाकर बीता। मेरी माँ बेशक आधुनिक महिला थीं और दान-दक्षिणा का अन्न आदि खाना उन्हें पसंद ना था; सो नाना की मृत्यु के बाद वह सिलसिला पूरी तरह बंद हो गया; लेकिन मन में गणेशजी और उनके चूहे के लिए जो घरेलू और अकारण प्रेम था वह तो चलता ही चला गया।

बहरहाल, यह युग बीत गया और अपनी माँ के साथ नब्बे के दशक के शुरुआती बरसों में एक दिन मैं नई दिल्ली में था। हमारे पास ख़ाली समय था तो माँ मुझे ललित कला अकादेमी की दीर्घा में चल रही एक प्रदर्शनी में लेती गईं। क़माल देखिए वह प्रदर्शनी गणेशजी पर ही एकाग्र थी। उन चित्रों के गणेश बहुत मस्तमौला थे—मेरे मन पर सदा के लिए छप जाने वाले। एक चित्र में गणेशजी क्रिकेट खेल रहे थे; एक में कृष्ण की तरह गोपिकाओं के बीच बाँसुरी बजा रहे थे और एक में हनुमानजी की तरह आसमान में उड़ रहे थे। आख़िरी चित्र अभूतपूर्व था। उसमें गणेशजी के रावण की तरह दस सिर थे और वह रावण की तरह राम से युद्ध भी कर रहे थे। वह चित्र देखकर मैं प्रसन्न हो गया। मेरे गणेशजी ऐसे ही हो सकते थे—मोटे, आलसी, मातृभक्त; लेकिन विविध, बहुआयामी और बहरूपिए।

ऐसे गणेशजी की जय हो।

आज मैंने एक कहानी सुनी। महाराज चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के ज़माने की। एक बार उन्होंने सभी नवरत्नों, दरबारियों और भृत्यों आदि से एक सवाल पूछा, ‘‘बताओ ! मैं सम्राट क्यों हूँ?’’ लोग सोचने लगे। महाराज ने आगे कहा, ‘‘मुझे कल तक अपने प्रश्न का उत्तर चाहिए, अन्यथा वेतन, भत्ते, मानदेय और पारितोषिक समेत राज्य की ओर से मिलने वाली सभी सुविधाएँ समाप्त।’’

लोग चिंतित हो गए। वह माली भी बहुत परेशान था जो राजा के बाग़ीचे में काम करता था। उसकी नई-नवेली बहू से यह देखा न गया। उसने कहा कि मुझे कल दरबार में ले चलिए। मैं महाराज को बतालाऊँगी कि उनके चक्रवर्ती सम्राट होने की वजह क्या है।

अगले दिन माली उसे अपने साथ ले गया। यह बात सबको पता चल गई थी। लोग बहुत उत्सुकता से उस नई-नवेली बहू की ओर देख रहे थे। बहू बोली, ‘‘महाराज! आप मेरे साथ महल के बाहर कुछ दूर तक चलिए, तभी इस सवाल का जवाब दिया जा सकता है।’’

महाराज नई-नवेली बहू के पीछे-पीछे महल के बाहर चल पड़े। उनके पीछे पूरा राज-समाज। कुछ दूर आगे एक मेंढक मिला। वह अपने कुएँ से निकलकर बाहर की हवा खा रहा था। बहू ने मेंढक से पूछा, ‘‘बताओ मेंढक : महाराज महाराज क्यों हैं?’’ मेंढक ने जवाब दिया, ‘‘कुछ और आगे जाओ। एक धूलचट्टा—धूल चाटने वाला—मेंढक मिलेगा। वह बता देगा कि महाराज महाराज क्यों हैं।’’ लोगबाग धूलचट्टे मेंढक के पास पहुँचे। उसने बताया, ‘‘पिछले जनम में मैं, हवाख़ोर मेंढक और महाराज विक्रमादित्य सगे भाई थे। हम तीनों रोज़ घर से निकलकर जंगलों की ओर शिकार के लिए जाते थे। एक दिन शिकार के पहले हम लोग अपना कलेवा खा रहे थे कि एक भूखा-दूखा आदमी आकर हमसे खाना माँगने लगा। बड़े भाई ने कहा कि अपना खाना मैं तुम्हें दे दूँ तो क्या हवा खाऊँ? इस जन्म में वह वही मेंढक है जो अपने कुएँ के बाहर बैठा हवा खा रहा है। फिर वह मँगता मेरे पास आया। मैंने उससे कहा कि अपना खाना तुम्हें दे दूँ तो क्या धूल चाटूँ? आप देख ही रहे हैं; इस जन्म में मैं यहाँ बैठा धूल चाट रहा हूँ। तीसरे भाई—इस जन्म के महाराज विक्रमादित्य ने अपना पूरा कलेवा उस आदमी को दे दिया। अब आप लोग समझ ही गए होंगे कि महाराज महाराज क्यों हैं।’’

वैसे तो इस कहानी से बहुत-सी शिक्षाएँ मिलती हैं; लेकिन सबसे बड़ी शिक्षा यह है कि जो राजा होगा, वह सबसे पहले प्रजा की भूख को संबोधित होगा।

जो राजा जनता की भूख से पहले कुछ और सोचे या करे; मेरे लिये वह हवाख़ोर है या धूलचट्टा। साथ में टर्र-टर्र टर्राने वाला अलग से।

व्योमेश शुक्ल हिंदी के सुचर्चित कवि-आलोचक-अनुवादक और रंगकर्मी हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी रचनाओं और काम के लिए यहाँ देखें : पटना प्रसंग‘मेरी अपेक्षाएँ ख़ुद से बहुत ज़्यादा हैं’ ‘शरण ठीक हो’

2 Comments

  1. सुजीत कुमार सिंह अप्रैल 14, 2020 at 10:49 पूर्वाह्न

    सुकुल जी अच्छा लिखते हैं।
    यह डायरी भी अनोखी है दिन-दिनांक रहित।
    ‘सभा’ वाला प्रसंग लाजवाब है।

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  2. Avadhesh अप्रैल 14, 2020 at 11:28 पूर्वाह्न

    शानदार।

    Reply

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