कविताएँ ::
अमित तिवारी
एक थोड़ा ईमानदार दिन
एक थोड़ा ईमानदार दिन बिताने की इच्छा में
पड़ोसी के नमस्कार पर सिर झुका लिया
बाज़ार गया और एक बड़े सेठ को ललकारा
सुविधा-संपन्न शहरों के अवसाद पर
एक तीखी टिप्पणी की
वॉचमैन का हालचाल लिया
और बहुत देर तक हँसता रहा
अपनी इस ओछी संवेदनशीलता पर
बड़े उत्साह से एक विमर्श आधारित कहानी पढ़ी
और चिट्ठी लिखकर लेखक को मूर्ख कहा
प्रेमिका से बहस की और छिपकर रोया
एक अति मधुर, खोखले वादे की याद में शर्मिंदा हुआ
और अंत में गाँव वालों के काँइयेपन पर लिखी एक कविता।
कहाँ
बृहत्काय चीज़ों से भरी जा रही है दुनिया
सब कुछ विशाल, विराट और विशेष है
ओह! संताप और पीड़ा के अपने वैभव हैं
मैं कहाँ लेकर जाऊँ अपनी क्षुद्रता
किस महानता के सामने धरूँ अपना छोटा-सा दुःख
कहाँ उघारूँ अपना सीना
जहाँ से लौट सकूँ अपने छोटे से दुःख के साथ—
अक्षत।
जोखिम
‘एकता देश को बचाए रखती है’—जैसी बातें
मतलब खो चुकी हैं
चारों ओर लोग घूम रहे हैं
और पूछ रहे हैं कि किस तरफ़ हो
ऐसे सवालों पर आदमी घर की तरफ़
देखना चाह रहा है
वह जवाबों से बचना चाह रहा है
सवालों से तो पहले ही पीछा छुड़ा चुका है
एकजुटता के आह्वान से लबरेज़ समय में
उसके चिंतित होने की बात
उसको अल्पमत में ला देगी
वह एकता के बीच
अपनी वैयक्तिकता बचाना चाह रहा है
जबकि यह एक बहुत जोखिम भरा काम है।
सच-झूठ
तुम नहीं लौटे
और सूर्य की दृष्टि तिरछी होने लगी है
माथे पर लंबवत टपकता है एक-एक क्षण
चीनी यंत्रणा विधि की तरह
जबकि बताने के लिए मेरे पास कोई सच बचा नहीं है
देवदूतों ने अभी कहा
यह यंत्रणा उस पवित्र सच के बाद मिलती ही है
क्या करूँ?
एक झूठ बोलकर बचने का प्रयास?
‘मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं है!’
हा! मूर्छा! मृत्यु भी विलंबित।
ऐसे-ऐसे तुम तक पहुँचा
यह कोई क्षण भर का ‘कुन’ नहीं था
या किसी सिम-सिम का खुलना
यह सब सोद्देश्य हुआ
मैं एक इत्र की तलाश में था
जिसको बनाने वाला कन्नौज से भागकर
जूतियाँ बनाने लगा था आगरे में,
सड़क पार से उड़ी आती धूल की खीझ के साथ मैं
होते-होते न हुई एक बारिश का दुःख लेकर निकला था
और एक लंबी चैती सुनने की लालच में था
ऐसे-ऐसे तुम तक पहुँचा मैं
एक बहुत उदास कविता की खोज में।
मेरी कविताएँ
मैं गाई जाने वाली कविताएँ नहीं लिख सका
सब संगीत पीछे छूट चुका था
पेड़ों के खोखले तने, खँखारती हुई पत्तियाँ छूट चुकी थीं
जानवर छूट गए थे और डर नहीं छूट रहा था
छोटी घंटियाँ सायरन की तरह सुनाई दे रही थीं
कल्लोल तो नहीं और कोई कलकल भी नहीं थी
हवा उठती थी और पानी से बा-अदब मिलकर निकल जा रही थी
लहर का उठना अब एक बदतमीज़ी थी
झूमने के लिए आस-पास कंधे और गले भी नहीं थे
मैंने ऐसी कविताएँ लिखीं जो चाक़ू की तरह ध्यान से छुई जाएँ
उनके घाव से उदास हुआ जाए
फिर उनको मोड़कर जेब में रख लिया जाए
और अतृप्य कामनाओं की चिल्ल-पों के बीच
निज़ामुद्दीन के आस-पास से उठती शहनाई को याद किया जाए।
कायांतरण
उसके कुचाग्र मेरे होंठों में दबे थे
पहली बार इसमें तृष्णा की हिंसा नहीं थी
प्रेमी के उद्विग्न जीवन से मेरा कायांतरण हो रहा था
भीगी बाज़ुओं की कोख में डूबे-डूबे
मेरा पोषण हो रहा था
जागने के बाद के व्यापार से बेख़बर
मुझे नींद आ रही थी
बहुत कुछ होने के बाद
अंततः मैं उसका पुत्र हुआ।
भीगना
बारिश आती है तो
बारिश के आने से पहले
आ जाता है भीगना
भीगने में सूखना कहीं नहीं बचता है
चराचर में जो है वह सब भीगता है
जो बचकर कहीं छुप जाते हैं
वे भी भीगते हैं
निश्चिंत होकर भीग पाने की इच्छा से
इसी तरह जब से तुम्हारे होंठ हैं परिदृश्य में
चूमना भी बना रहता है मेरे इर्द-गिर्द
न चूमने के समय में भी
मेरी त्वचा पर बरसती है
तुम्हारे होंठों की इच्छा
ऐसी बारिश में मेरी देह होती है
एक नया वृक्ष
जो झूमता है झकोरों से
भीगना तो आद्य है
और आद्यंत रहता है।
कोई मानेगा?
एक ऐतिहासिक इच्छा
एक असंभव भविष्य
तथ्यों की खिल्ली उड़ाता
तुम्हारा प्रेम
कर रहा है मेरी हत्या
फिर कहूँ कि एक समानांतर दुनिया है
मल्टीवर्स की एक दूसरी फाँक
जहाँ वही पोस रहा है
मुझे अपनी गोद में
कोई मानेगा?
एकांत
एकांत एक प्रश्न है
जिसमें स्वयं समाहित है उसका उत्तर
जिसके उत्तरोत्तर है
संभावनाओं की इच्छा
और फिर इच्छाओं के प्रश्न!
इतनी जटिलताओं में भी इतना दुर्बल
जैसे प्रलोभनों की प्रतीक्षा में बैठा
एक भेदिया।
अमित तिवारी की कविताएँ ‘सदानीरा’ पर अंतिम बार आज से ठीक तीन वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थीं। इससे पूर्व उनकी कविताएँ, गद्य और अनुवाद-कार्य ‘सदानीरा’ पर नियमित प्रकाशित होते आए। इस तीन वर्षीय अंतराल में कवि का सोशल-मीडियाजनित व्यवहार देखकर यों प्रतीत हुआ कि एक भयावह समय में वह दूसरों की ख़राब कविता से इस क़दर जूझ रहा है कि अपनी कविता का क्या किया जाए, यह तय नहीं कर पा रहा है! यहाँ प्रस्तुत कविताएँ भी कवि ने ‘सदानीरा’ के अनुरोध पर भेजी हैं। इस स्थिति में यह प्रकाशन इस उम्मीद में है कि कवि का संकोच समाप्त हो और वह ख़राब रचनाओं पर तंज़ कसते हुए, इस प्रकार की बेहतर रचनाशीलता से युक्त बना रहे, जिस प्रकार की यहाँ प्रस्तुत कविताओं में नज़र आ रही है। अमित से amit.bit.it@gmail.com पर बात की जा सकती है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : अमित तिवारी
ये अद्भुत और आश्वस्ति से भरी कविताएँ हैं। अमित उन कवियों में हैं जिनको पढ़ने का इंतज़ार रहता है। इन कविताओं के लिए सदानीरा और अमित दोनों को आभार। वे और छपें।
बहुत शुक्रिया अंचित। कवि जब कवि का हौसला बढ़ाता है तो लगता है बात सही जा रही है। कवियों के कवि हैं आप।
कहाँ उघारूँ अपना सीना, मन को चुभोती पंक्ति है ये।
वह एकता के बीच अपनी वैयक्तिकता बचाना चाह रहा था। इस समय में जब इंसान की वैयक्तिकता पर ही प्रश्न चिह्न लगा है। हर कोई आपका राजनीतिक पक्ष जानने को आतुर है इस कविता का आना सुखद है।
मैंने ऐसी कविताएँ लिखीं जिन्हें चाकू की तरह ध्यान से छुई जाएँ वास्तव में आपने ऐसी ही लिखी है। अगली कविता कायांतरण ठीक वैसी ही कविता है। कविताओं से घायल होना कविता की उपलब्धि है और आप सफल रहे। खूब बधाई
बहुत अच्छी लगी पहली कविता
अपने अनूठेपन से भरी कविताएँ।