कविता ::
कुशाग्र अद्वैत
प्रार्थना-प्रलाप
अनास्था पर्व
झूठ, मेरे काम आओ
सच, मेरे काम आओ
भूख,
मेरे काम आओ
देह की टूटन,
सीने की धुकधुकी,
मेरे काम आओ
कारख़ाने से आती
आवाज़ के सहारे
कटती है रात
दुनिया भर के शोर मेरे काम आओ,
तवील रातो, मेरे काम आओ
जैसे उस फ़िल्म में
नायक के काम आई थीं
रेलो, वैसे ही मेरे काम आओ
और कितना तेज़ चलेगा
थका सीलिंग फ़ैन
अक्टूबर आ चुका है
गर्मियो, अब चली जाओ
दिनों-दिन ईश्वरों से
खोती जाती है उम्मीद
मुझे घेरे पिशाचो,
मेरे काम आओ
मध्ययुगीन दुर्बलताओ,
दूर जाओ
लक़दक़ रोशनी इफ़रात में है
और मुझे उससे डर लगता है
अँधेरो, मेरे काम आओ
लोरी, मेरे काम आओ
कजरी, मेरे काम आओ
ठुमरी, मेरे काम आओ
दीवाना बनाना है तो
दीवाना बना दो, बेग़म अख़्तर
आज जाने की ज़िद न करो
यूँ ही पहलू में बैठी रहो, फ़रीदा ख़ाला
कुछ गुनगुनाती—
‘हैवन नोज़ आई एम मिज़रेबल नाउ…’
गीत, मेरे काम आओ
गारी, मेरे काम आओ
नगरों से हो चुका मेरा
कस्बो, मेरे काम आओ
भाषा, मेरे काम आओ
हताशा, मेरे काम आओ
कि सभ्यता के घनेरे जंगल में
भटक जाता हूँ अक्सर
मुँह में पान का बीड़ा दबाए लोगो,
मेरी मदद को आओ
संकारकर सही रस्ता बताओ
चाय की टपरियो,
खोमचो-कहवाघरो,
जहाँ भी हो
स्वाद-रस-गंध
वैसी तमाम जगहो,
मेरे काम आओ
पूनमी तनख़ा से नहीं चलता
मुझे दारिद्य से निकालो
यार उधारी, मेरे काम आओ
दुरुस्त करते चलता हूँ
इश्तिहारों में हुई ग़लतियाँ
शहर भर में और-और
इश्तेहार लगाओ
मुझे ऊब से बचाओ
अख़बारो, मेरे काम आओ
सिटकॉम्स, मेरे काम आओ
क्रिकेट-मैचो, मेरे काम आओ
मेरे हाथ, मेरे पैर,
मेरी जीभ, मेरी नाक,
तमाम इंद्रियो,
रक्त-स्वेद,
मेरे काम आओ
चिड़ियो,
तितलियो,
आओ
कि अहेरी पड़े हैं तुम्हारे पीछे
जैसे तमाम सुंदरताओं के
छिपो मेरे भीतर
तपेदिक की तरह
घोंसला बनाओ,
कूजो,
मेरी निद्रा तोड़ो,
मेरी तंद्रा तोड़ो—
अपने पर्णतरंग कलरव से
मुझे जगाओ,
मुझे जोड़ो,
मुझे जोड़ो,
मुझे जोड़ो…
देश पर्व
मेरे भीतर सई का जल है
मेरे भीतर चंबल का जल है
मेरे भीतर ब्रह्मपुत्र का जल है
मेरे भीतर जमुना का जल है
मेरे भीतर रावी का जल है
और मैं बहा जा रहा हूँ
इधर से उधर
उधर से इधर
एक पुकार लिए
न जाने किस समुद्र में मिलने
कि मेरे ऊपर झेलम का ऋण है
मेरे ऊपर सिंधु का ऋण है
मेरे ऊपर नर्मदा का ऋण है
मेरे ऊपर…
कितनी ही कुँइयों,
नदियों-नहरों का ऋणी हूँ
सबके नाम भी नहीं ले पाता
जिससे बढ़ता है मेरा ऋण
और-और गढ़ाता है मेरा ऋण
मैं इस ऋण तले दबा जाता हूँ
और जो प्यास मुझे घेरे है
उससे मरा जाता हूँ
मरा जाता हूँ
मरा जाता हूँ…
अनानास के इत्र से नहाए
कोहिमा में देखा था
फ़ौजियों की क़ब्रों से
फूल उगते थे
मुझे तो बार आएँगे परिजन
लेकर राम का नाम
एक नदी मुझे बहा ले जाएगी
मेरा फ़ातिहा पढ़ने
फूल लेकर
एक नदी तक आना होगा
बुद्ध ने मार की सेना के आगे
गही होगी माटी की शरण
भंते, मुझे सारी उम्मीद
नदियों से है
मुझे बचाने ही
पंचगंगा की हवाओं से उठती है
बिंदुमाधव से टकराती है
शहनाई की धुन
मरघट पर नाचता-बौराता,
राख उड़ाता
खड़ा है बनारस
मुझे ही बचाने
जो
मृत्यु को जीवन से नहीं अलगाता
वही मुझे बचा सकता है
या पीली टैक्सियों वाला वो उत्फुल्ल नगर
जो अपनी रीती ख्यातियों को अब तक भुना रहा है
जिसकी सड़कों पर
बाबा ने रिक्शा खींचा था
हाड़ गलाया था
जिसे अम्मा की निहायत भदेस गालियाँ लगी हैं
जिसे मैंने बग़ैर देखे ही
धुनुची और सिंदूर के ग़ुबार में लिपटा
ढाक और शंख की आवाज़ से सराबोर
सपनों में देखा है,
फ़िल्मों में देखा है
और एक स्त्री की
डूबती निर्दोष आँखों में…
ख़ैर,
मेरी ज़ुबान लरजती है कहने में
कि उसे देखने की इच्छा से
मैं हलक़ तक भरा हुआ हूँ
लेकिन क्या पता
मेरे देखते ही
खो जाए कलकत्ता
कुछ और हो जाए कलकत्ता
कलकत्ता क्या तुम खो चुके हो
कुछ और हो चुके हो
क्या सब सही कहते हैं
कलकत्ता में बहुत कम बच रहा है कलकत्ता
बोलो कलकत्ता,
चुप न रहो
मुझसे बात करो
मेरे काम आओ
इलाहाबाद, मेरे काम आओ
मिथिला, मेरे काम आओ
वर्कला, मेरे काम आओ
बस्तर, मेरे काम आओ
कश्मीर, मेरे काम आओ
बम्बई, मुझसे दूर जाओ
मुझे आदमी रहने दो
ख़रीदार में मत बदलो
मेरे सौंदर्यबोध पर
अपनी उज्जड क़ैंचियाँ मत चलाओ
बम्बई, मेरे काम आओ
कि मुझे दृश्यों से भर दो
मुझे चित्रों से भर दो
मुझे फ़ंतासियों से भर दो
दिल्ली, मुझे माफ़ कर दो
कि मैं तुम्हें चाह नहीं पाया
मैं तुम्हारी क़द्र नहीं कर पाया
मैं शर्मिंदा हूँ
माज़रत, माज़रत, माज़रत
कि मैंने तुम्हें चकाचौंध ही जाना
यार तुम मेहनतकशों के शहर थे
तुम कामगारों के शहर थे—
ख़ूब सुबह काम पर निकलनेवाले,
ख़ूब थककर सपनीली नींद सोनेवाले
तुम गलबहियों के शहर थे
आपसदारी के शहर थे
तुम यारबाश शहर थे
तुम दोस्त शहर थे दिल्ली
तुम सबके लिए
सब तरफ़ से
खुले हुए थे
इसलिए बहुत वेध्य थे
मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ
अगरचे बहुत शर्मिंदा
मुझे माफ़ कर दो!
आस्था पर्व
थोपी गई अनास्थाओ,
पिंड छोड़ो
मुझे मालूम है
मेरी रक्षा को पितर
नहीं आएँगे
उनके नाम निकाला ग्रास
कौए खाएँगे
फिर भी
वह सब कर लेने दो
जिसमें सुख है
कि जीवन आख़िर दुःख है
और पिछले सैलाब में
जिसका घर उजड़ गया
मुहर्रम में जिसकी अम्मी गुज़र गई
उसके पास रहने दो
वह परिचित पनाह
उससे मत छीनो
अल्लाह का नाम
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
कि दुष्ट सत्ताएँ
मुझे घेरें, मुझे घेरें
बलिष्ठ सत्ताएँ
मुझे घेरें, मुझे घेरें
अहिंसा के संस्कार
मुझे घेरें, मुझे घेरें
ओ री गीता!
ओ परात्पर,
मेरे काम आओ
चाँद की कलाओ,
मेरे काम आओ
दसों दिशाओ,
मेरे काम आओ
देवताओ,
मेरी कविता को
चाहिए कुछ आदिम प्रतीक
क्यों न तुम ऐसा करो
उन प्रतीकों की तरफ़
लौट जाओ
कद्दू-कटहल,
मेरे काम आओ
चना-चबैना-गंगजल,
मेरे काम आओ
शुभे पर्व
शुभे! मुझमें घुलो
झिलमिलाते―
जैसे काँपते सरोवर में
चाँद घुलता है
शुभे! मैं अस्पर्श से घिरा हूँ
मुझे स्पर्श तक लाओ
बहुत सारी
अकिंचन आवाज़ों से
बाहर-भीतर-निरंतर
कुछ देर रुक जाओ
मुझे छुओ
भरपूर विस्मय से
जैसे स्वस्थ काया को
छूती हों व्याधियाँ
अपनी छुअन की भट्टी में
मुझे गढ़ो
मुझे पकाओ
छूकर अब तक
बिगाड़ती रही हो
छूकर अबकी बनाओ
पहले आदत लगा दो
फिर मत छुओ
उसके लिए तड़पाओ
ज्यों माँजती हो
जूठे बासन
वैसे मुझे माँजो
अपनी उँगलियों के पोरों से,
अपनी उत्सुकता से,
अपने संशयों से,
अपने आग्रहों से,
अपने आवेगों से,
अपनी तन्मयता से,
अपनी वाणी से,
अपनी सुचिंताओं से
छुओ
छूकर बचाओ
जीवन और मृत्यु से
थकान और नैराश्य से
अविश्वास और आश्वासन से
तर्क और मूढ़ता से
गर्व और ग्लानि से
विराट और क्षुद्र से
शुभे!
मेरे काम आओ
पूर्णाहुति
अनभ्र है आकाश
मेघ गए पहुँचाने
शापितों की पाती
नदी अपनी यात्रा से दुखी है
चरिंद-परिंद, मृग-ब्याल बौराए घूमते
ज्यों युगों की मरुस्थली प्यास
मेरे विदर्भ कंठ में उतर आई है
ओ वरेण्य पिता!
तुम्हारे हाथों में
सौंपता हूँ अपनी देह
अपनी आत्मा
कि पूरा भईल
टेटेलेस्टाय
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
~~~
नोट्स :
1. जैसे उस फ़िल्म में… मेरे काम आओ… इस प्रलाप के मूल में निर्देशक अवतार कौल की पहली और आख़िरी फ़िल्म 27 डाउन की याद है।
2. दीवाना बनाना है तो… बहज़ाद लखनवी की ग़ज़ल है जिसे बेग़म अख़्तर ने बहुत ख़ूबसूरती से गाया-निभाया है।
3. आज जाने की ज़िद न करो… फ़ैयाज़ हाशमी की मशहूर नज़्म है जिसे बहुत से गायक-गायिकाओं ने अपनी आवाज़ से नवाज़ा है जिनमें फ़रीदा ख़ानम विशिष्ट हैं।
4. Heaven knows I’m miserable now… इंग्लिश रॉक बैंड The Smiths का एक गीत है।
5. सभ्यता के घनेरे जंगल… पंक्ति मुक्तिबोध की कविता एक अंत:कथा से कुछ फेरबदल के साथ ली गई है।
6. पूनमी तनख़ा… पंक्ति प्रेमचंद की कहानी नमक का दारोग़ा से प्रेरित है।
7. मुझे बचाने ही पंचगंगा से… शहनाई की धुन… पंचगंगा बनारस में मौजूद एक घाट का नाम है। वहीं बिंदुमाधव मंदिर है। शहनाई-वादक बिस्मिल्लाह ख़ाँ कभी इस घाट पर रियाज़ किया करते थे।
8. कलकत्ता में बहुत कम बच रहा है कलकत्ता… आलोकधन्वा की कविता सफ़ेद रात की कुछ पंक्तियों से प्रेरित है।
9. जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी… पंक्ति फ़ैज़ की मशहूर नज़्म हम देखेंगे से ली गई है।
10. देवताओ…लौट आओ… पंक्तियाँ अज्ञेय की कविता―कलगी बाजरे की―की इन पंक्तियों―ये उपमान मैले हो गए हैं / देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच―की प्रतिक्रिया में लिखी गई हैं।
11. थकान और नैराश्य से… पंक्ति अविनाश मिश्र की कविता―आगे जीवन है―से जस की तस ली गई है।
12. अविश्वास और आश्वासन से
तर्क और मूढ़ता से…
ये दोनों पंक्तियाँ गिरिजाकुमार माथुर की कविता―दो पाटों की दुनिया―से ली गई हैं।
13. पूर्णाहुति का कथ्य ईसा मसीह के प्रयाण के बखत बोले गए सात वचनों में से तीन को लेकर बना है जोकि इस प्रकार है (यहाँ बस वह तीन वचन दिए जा रहे हैं जिनसे कविता बनी है)―
To all: I thirst.
To the world: It is finished / tetelestai
To God: Father into your hands, I commend my spirit
एक टेटेलेस्टाय शब्द को ही जस का तस रहने दिया गया है ताकि पाठक बिना संदर्भ के भी कविता पढ़ें तो उनके लिए इस खंड की मूल भावना तक पहुँचना सहज हो और उस महान् शब्द की ध्वनि भी सुंदर है। फ़ादर शब्द के लिए सबसे सुयोग्य संबोधन―ओ वरेण्य पिता―श्रीनरेश मेहता की कविता―प्रार्थना―से प्राप्त हुआ।
14. नदी अपनी यात्रा से दुखी है… पंक्ति श्रीनरेश मेहता की कविता―सूखी नदी का दुःख―से प्रेरित है।
15. इतने संदर्भ उघाड़ चुकने के बाद यह प्रतीति मेरे भीतर बनी हुई है कि बहुत-सी प्रेरणाएँ होंगी जो मेरे ध्यान में नहीं आ रही हैं और जो मुझसे छूट रही हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि उन्हें पाठक अपने तईं लक्षित-रेखांकित करेंगे।
इति!
कुशाग्र अद्वैत की कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह पाँचवा अवसर है। उनकी कविताओं, उन पर टिप्पणी, उनके कविता-पाठ और उनसे परिचय के लिए यहाँ देखें : हम हारे हुए लोग हैं │ इस भाषा के घर में │ फ़ंतासी, देरी, भूलो, चुम्बन काम न आएगा, करीमा बलोच │पवित्र चीज़ को अश्लील न बनाऊँ
यार कविताएं बहुत अच्छी हैं