अली अकबर नातिक़ की नज़्में ::
लिप्यंतरण : मुमताज़ इक़बाल

अली अकबर नातिक़

ग़ुलाम क़ौम का दानिश्वर

मैं शाइर था लेकिन कहानी सुनाने का फ़न जानता था
तुम्हें क्या ख़बर, मेरे अज्दाद का दास्ताँ-गोई में कोई सानी नहीं था
ख़ुदा जानता है, ज़मीनों पे गुज़रे मह-ओ-साल शाहिद
हज़ारों बरस से वो शाहान-ए-ख़ाक-ए-अजम के नमक-ख़्वार और नामलेवा
दिखाते थे आक़ाओं को शीशा-ए-अद्ल,
जिसको किसी तीरा शब ने न देखा
न पाया कभी रोज़-ए-रौशन ने उसको
क़सीदे कहे मेरे अज्दाद ने क़र्न-हा-क़र्न तक
उन फ़सीलों के उस पार
महराबियों और डाटों से मानूस फिरते हुए पैकरों के
जिन्हें पत्थरों से अक़ीदत बहुत थी
उन्हें वो कहानी, किसी आला मंसब, कई लाख दिरहम,
सुनहरी रुपउओं के बदले
वही मेरे आबा
सुनो, और मैं उनका वारिस ज़हीन और लायक़ ख़बर रखने वाला
चमकती हुई तेज़ आँखें मुअल्लक़ फ़ज़ाओं के बाग़ात
और चाह-ए-बाबिल से वाक़िफ़
ज़मानों से मंसूब जितने खंडर हैं,
सलातीन-ए-रोमा-ओ-ईरान के
सारे गुमनाम मदफ़न
रहे मेरी पोरों की गिनती में शामिल
हज़ारों बरस के ज़मानों पे फैले हुए
मुल्क-ए-यूनान के देवता मेरे हमराज़
मेरे शनासा
असातीर-ए-हिंदी मेरी दस्तरस में
मैं लायक़ हुनरवर, कहानी सुनाने का फ़न जानता था
मगर तुमने देखा मेरे चार जानिब फ़क़त मातमी हैं
जिन्हें मेरे लफ़्ज़ों पे नौहों का शक और गिर्ये का मोहकम यक़ीं
तेज़-तर शोर-ए-मातम किसी नूर-ए-मानी से बेगाना-तर
और अब मैं कहानी सुनाते-सुनाते
कहानी सुनाने का फ़न भूल कर
बज़्म-ए-मातम में शामिल

बावला छोकरा

वो गाँव-गाँव फिर गया
गिलहरियों से गुफ़्तगू के शौक़ में
बहार आफ़रीन सब्ज़-सब्ज़ पानियों के दरमियाँ
सियाह रंग बेरियों के बाग़ में
वो देखता शरीर तोतियों को नील-गूं मिज़ाज
नर्म-नर्म कोंपलों से खेलते हुए
गुलाब और कासनी शराब जैसी तितलियों के
ठंडे-ठंडे ग़ोल को उड़ा के भागता था
आसमाँ की बदलियों के साथ-साथ
पापुलर के ऊँचे-ऊँचे झुंड के चहार-सू
जो गहरे-गहरे पानियों के
नहर के किनारों पर थे पीपलों के रूबरू
वो पीपलों के साए-साए लम्स ले के दौड़ता
नशीले मौसमों की परबती हवाओं का
वो इस क़दर नफ़ीस था
कि नंगे पाँव घूमता उफ़क़ की ज़र्द-ज़र्द वादियों के क़ुर्ब में
दिमाग़ बन के सूँघता था
कच्चे आँगनों की ख़ुश्बुएँ बहार के शबाब में
तमाम दिन गुज़ारता था
सर्दियों की मीठी-मीठी दक्कनी सफ़ेद धूप में
वो दूर-दूर खोजता था
लहलहाते सब्ज़ियों के खेत को जो धूप की
तमाज़तों में सब्ज़ आइने से थे
ख़िराम करके हौले-हौले हंस की वो चाल में
सवेरे-शाम बाजरे की पातरों से चाटता था मोतियों के नूर को
जो आसमानी सागरों से आ गिरे थे पातरों की नाफ़ पर
ज़रूर देखता सुनहरे सूरजों की रौशनी में
डूबते मिनार्चों की चोटियों को ग़ौर से
जो गाँव की अमीन मस्जिदों के हुस्न का तिलिस्म थे
अजीब था वो बावला-सा छोकरा
कि जानता था बचपने की उम्र में ही कोयलों की रागिनी,
कबूतरों की बोलियाँ
मगर न जानता था बात ये कि
एक रोज़ आएँगी बरात ले के शाइरी की देवियाँ
बिठाएँगी वो देवियाँ उसे हसीन साहिरी के तख़्त पर
जहाँ वो जुगनुओं की रौशनी में रात भर चुनेगा
लफ़्ज़-लफ़्ज़ नूर के

फ़न का मुक़द्दर

सत्ह-ए-दीवार पे लर्ज़ां है मुसव्विर का हुनर
जिसकी रंगीन शबीहों में फ़क़त ख़ून के रंग
हसरत-ए-दाद में यूँ अहल-ए-नज़र की जानिब
देखता है कि कहीं उसका भरम रह जाए
जैसे मज़्लूम कोई आख़िर-ए-शब मह्व-ए-दुआ
अपने ना-करदा गुनाहों की मुआफ़ी के लिए
नातवाँ हाथ उठाता है फ़लक की जानिब
और उस पर न खुले बाब-ए-इजाबत कोई
सुब्ह-दम जिसकी दुआएँ भी अकारत जाएँ
या पयम्बर हो कोई दश्त-ए-अरब के अन्दर
इल्म-ओ-हिकमत के ख़ज़ानों को लुटाने वाला
फिर भी ठुकरा दें उसे चश्म-ए-हिक़ारत से बख़ील
बद-ज़बाँ, अहल-ए-हवस, ऊँट चराने वाले
ये वो लम्हात हैं जिनमें कि जिगर हो छलनी
ये वो अर्सा है कि जब मू-ए-क़लम रोता है
और बिल-फ़र्ज़ कोई देखने वाला ही न हो?

मेरे चराग़ बुझ गए

मेरे चराग़ बुझ गए
मैं तीरगी से रौशनी की भीक माँगता रहा
हवाएँ साज़-बाज़ कर रही थीं जिन दिनों सियाह रात से
उन्ही सियाह साअतों में सानिहा हुआ
तमाम आइने ग़ुबार से बेनूर हो गए
सरा के चार सिम्त हौलनाक शब की ख़ामुशी
चमकती आँख वाले भेड़ियों के ग़ोल ले के आ गई
क़बा-ए-ज़िंदगी वो फाड़ ले गए
नुकीले नाख़ूनों से इस तरह
कि रूह चीथड़ों में बँट गई
ख़राब मौसमों की चाल थी कि आस-पास बाँबियों से
आ गए निकल के साँप झूमते हुए
बुझा दिया सफ़ेद रौशनी का दिल
मदद को मैं पुकारता था और देखती थीं पुतलियाँ
तमाशा ग़ौर से
मगर न आईं बीन ले के अम्न वाली बस्तियों से जोगियों की टोलियाँ
सियाह आँधियों का ज़ोर कब तलक सहारते
मेरे चराग़ बुझ गए

चरवाहे का जवाब

आग बराबर फेंक रहा था सूरज धरती वालों पर…!
तपती ज़मीं पर लू के बगूले ख़ाक उड़ाते फिरते थे
नहर किनारे उजड़े-उजड़े पेड़ खड़े थे कीकर के
जिन पर धूप हँसा करती है वैसे उनके साए थे
इक चरवाहा भेड़ें लेकर जिनके नीचे बैठा था
सर पर मैला साफ़ा था और कुल्हाड़ी थी हाथों में
चलते-चलते चरवाहे से मैंने इतना पूछ लिया
ऐ भेड़ों के रखवाले क्या लोग यहाँ के दाना हैं?
क्या ये सच है, याँ का हाकिम नेक बहुत और आदिल है?
सर को झुका कर धुंधली आँखों वाला धीमे से बोला…!
बादल कम-कम आते हैं और बारिश कबसे रूठी है
नहरें बंद पड़ी हैं जबसे, सारी धरती सूखी है
कुछ सालों से कीकर पर भी फलियाँ कम ही लगती हैं
मेरी भेड़ें प्यासी भी हैं मेरी भेड़ें भूकी हैं


अली अकबर नातिक़ (जन्म : 1974) सुप्रसिद्ध पाकिस्तानी कवि-कथाकार हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत नज़्में उर्दू से हिंदी में लिप्यंतरित करने के लिए ‘बे-यक़ीन बस्तियों में’ (सिटी प्रेस क्लब द्वारा ‘आज’ से प्रकाशित) शीर्षक पुस्तक से चुनी गई हैं। मुमताज़ इक़बाल से परिचय के लिए यहाँ देखें : पूरी रात में लिखी गई एक अधूरी नज़्म

प्रस्तुत नज़्में पढ़ते हुए मुश्किल लग रहे शब्दों के अर्थ जानने के लिए यहाँ देखें : शब्दकोश

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