कविताएँ ::
आयुष झा

आयुष झा

अगरबत्ती

देवताओं की चिलम है ये
ढोंगियों का निरोध
पुजारियों का उस्तुरा

तालियों में श्रद्धा रगड़ो
रगड़ो चढ़ावा उड़ावा दिखावा
जीभ की कैंची को कैंची से काट-छाँट
जपो राम-राम, शिव-शिव, हरे-हरे

गर कोई उठी हुई गर्दन बीच में आए
तो जोर से मरोड़ो उसे
गाँजे के बीज समझकर,
और छींट आओ चप्पलों के खेत में।

रविवार

एक

बाहर कोहरा ही कोहरा है,
कमरे में उगा है इंद्रधनुष।

टेबल से किताबें हटाकर रख दो एक पतंग
दीवालघड़ी की जगह टाँग दो लाल गुलाब
कोयलों की कूक को अख़बार की तरह पढ़ो
तितलियों के रंग गर्म चाय की प्याली हैं
थामो इसे, देखो ठंडी हो रही है।

कैलेंडर में फड़फड़ाती मेरी साँसों को
चूमकर रिहा करो।

मैं तुम्हारा रविवार हूँ
डूब मरो मुझमें
ताकि तुम्हें मिले जीवन।

दो

कलाई घड़ी के दाँतों में फँसे हैं प्याज़ के छिलके
और वह कटी हुई उँगली
जिसे थाम लोकल ट्रेन में खो गया कहीं बचपन
और उनींदी रातों की अस्थियाँ
जो विसर्जित नहीं हो सकीं डायरी में।

और गड़रिया से भेड़िया बनने के क्रम में
वे शतरंज के छह वहशी चालें
सात कदम पीछे हटो
और अपने लंगड़े घोड़े पर बैठ
रफ़ूचक्कर हो जाओ।

पीठ की आँखों से मकड़ी के जाले को
पंखे से लटकते देखो।

रोज़ की कटोरी में
रोज़-रोज़ खून पीने से बहुत बेहतर है
माँ के सीने से चिपक तुतलाते लहना।

इंतज़ार

वे सारे मौसम बीत गए
जिसके इंतज़ार में हम अपने-अपने सीने पर
जूते उतार बैठे रहे।

प्रेम चुपके से आया एकदम आहिस्ता
और अपनी टूटी पुरानी चप्पल छोड़
हमारे एक-एक पैर के जूते पहन चलता बना।

ख़ानाबदोशी

मेरा एकांत तुम्हारे एक पैर की पायल है
दूसरे पैर की पायल की खोज में मुझे
ख़ानाबदोश होना पड़ा।

ख़ानाबदोश

मैं, मेरी नींद और मेरे सपने
तीन अलग-अलग बिस्तर पर
एक साथ सोते हैं।

एक तकिया है ज़िंदगी का
किसके सिरहाने रखूँ?
—यह सोचकर
मैं ज़िंदगी के सिरहाने तले
अपनी ख़ानाबदोशी रख देता हूँ।

संक्रमण

हर तरफ दुख-दर्द के तिलचट्टे पसरे हैं
अगर सौभाग्यवश कोई ख़ुशी कहीं दिखती भी है
तो वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते
वह भी संक्रमित हो जाती है।

पहुँचना ही संक्रमण है शायद!
मैं ब्रह्मांड की हर दृश्य-अदृश्य चीज़ को
हमेशा-हमेशा ख़ुश देखना चाहता था,
इसलिये मैं जहाँ कहीं भी पहुँचा
ख़ुद को बीच रास्ते ही पाया।

महामारी

एक पूरी दुनिया आग के दरिया में कूद
तैराकी सीख रही है
जो डूबने से बचे वे फफोले से मरेंगे
जिस किसी ने फफोलों के साथ जीना सीख लिया
ज़िंदगी उसे मछली होने तक ऑक्सीजन प्रदान करेगी
और फिर एक दिन तथाकथित जिजीविषा में
बंसी फँसाकर
किनारे की ओर खींच लेगी।

मुझे नहीं पता कि हम दुख और असफलता
और मृत्यु का नाम सुनते ही
इस क़दर भयभीत क्यों हो उठते हैं
कि हर दृश्य क़दम दर क़दम
साँसों की सौदेबाज़ी करता है
कि कोई अदृश्य जीवन का प्रलोभन देकर
हमसे हमारी मौत तक छीन जाता है।

किताब

यह एक पिंजरा है
जिसमें सुख भी है और दुख भी
हम इसे खोलते हैं
प्रायः सुख की तलाश में,
कोई एक पंख पसारे नील गगन में उड़ता है
दूसरा आत्महत्या कर लेता है।

क़लम

किसी दूसरे ग्रह से आई है
काग़ज़ थानेदार है
जहाँ कहीं भी दिखे
गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाने लगती है
नाम-पता लिखने से पहले ही
थानेदार नींद में हंटर घुमाते
ख़र्राटे लेने लगता है।

विस्थापन

उस आदमी को टैक्सी में साथ लिए
लौट रहा हूँ, जिसे ठीक अभी-अभी
स्टेशन छोड़ा यार!
जब पहली बार टैक्सी ख़रीदी
मैं शहर से बहुत दूर छोड़ आया था मुझे
अब मेरे पास सात टैक्सी
तीस नाव
और बारह ग़ुब्बारे हैं
मेरी पत्नी को चाहिए पति
बेटी को चाहिए एक पिता
मुझे चाहिए नींद की कपास
और जेब में डेढ़ चम्मच ज़िंदगी।

आयुष झा कवि और यात्राधर्मी हैं। वह एक साथ संघर्ष और वैराग्य में रमने वाले जीव हैं। सहजता से समझ में नहीं आते हैं। चीज़ें पाते और खोते रहते हैं। कुछ विनोद में कहें तो वह एक मायावी मनुष्य और रचनाकार हैं—दृश्य और अदृश्य के मध्य, प्रकाशन और नेपथ्य के मध्य। उनकी कविताएँ प्रमुखता से कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे jhaaayush109@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comments

  1. Raunak thakur अप्रैल 28, 2020 at 12:22 अपराह्न

    कहाँ हो मित्र ? इस निर्मम और पथराये समय को कविता के सरहदों तक लाने वाले कवि

    Reply

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