कविताएँ ::
आदित्य शुक्ल

आदित्य शुक्ल

आकांक्षाओं के शोकगीत

एक

ये वाक्य एक कविता होना चाहते हैं। यह अनुच्छेद एक पत्र, एक प्रेम-पत्र होना चाहता है। ये सभी वाक्य तुम्हारी स्मृतियों का रक्तस्राव हैं। ये अनुच्छेद असफलताओं की दस्तावेज़ हैं। हम भाषा और आकांक्षाओं के अपने-अपने सीमांत पर खड़े एक-दूसरे को दूर से देख रहे हैं। क्या हम अपनी भाषा और आकांक्षाओं के सीमांत को पार नहीं कर सकते?

आज दिन—शनिवार।

कपड़े धुलकर बालकनी में फैलाए। अगर यह वाक्य मैं तुमसे कहता, तो तुम कहतीं—‘धुलना’ एक ग़लत शब्द है। सही शब्द है ‘धोना’।

इस दहलीज़ पर अब ख़ुद को प्रेम करने से बहुत ही उदासीन पाने लगा हूँ। जान पड़ता है कि यही आख़िरी हो, सैमुएल बेकेट की उस प्रसिद्ध कविता की तरह ‘आई मस्ट नॉट लव, इफ़ आई डोंट लव यू, आई मस्ट नॉट बी लव्ड इफ़ यू डोंट लव मी…’ लेकिन मेरे ऊपर ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। मुझमें अनंत उदासीनता है। रचना को जिस मूल से शुरू करो, कुछ वक़्त बाद वह मूल ही टूटकर भरभरा जाता है। किसी चीज़ को बार-बार बनाने की क़ूवत हो गर! लेकिन प्रेम को लेकर मुझमे सैमुएल बेकेट की उस कविता जितनी प्रतिबद्धता नहीं है। मुझमें बस एक उदासीनता है, पराजय-बोध और फिर-फिर असफल होने का डर है। फिर भी शायद ऐसा कहना चाहूँ—अगर कोई पूछे।

‘तुम्हारी याद आती है’—में तुम एक अमूर्त सत्ता हो गई हो। हम अपनी-अपनी आकांक्षाओं के अलग-अलग शहर में बसते हैं।

एक दिन स्वप्न में हम दोनों एक धुँध की ओर बढ़ रहे थे, यह बहुत पुरानी बात है। इस वाक्य को स्वप्नों की तरह धुँधला और ख़ाली छोड़ देते हैं… अनचले क़दमों की तरह, अनकही बातों की तरह…

कहीं कोई लकड़हारा लकड़ी काट रहा है—ठक-ठक-ठक।
कहीं कोई मछुवारा नाव तट पर बाँध रहा है।
कहीं दो प्रेमी अपना पहला प्रेम जी रहे हैं।
एक हवाई जहाज़ कितने ही लोगों को लेकर मेरे सर के ऊपर से गुज़र रहा है।

क्या हम सभी इस कविता की तरह की अनुच्छेद दर अनुच्छेद भटकते जा रहे हैं?

ये वाक्य एक कविता होना चाहते थे। ये अनुच्छेद एक पत्र, एक प्रेम-पत्र होना चाहते थे। पर ये हमारी अधूरी आकांक्षाओं का अधूरा मोंटाज़ भर बनकर रह गए। लिजलिजी भावनाओं का विजनेट। असमर्थताओं का प्रमाण-पत्र। अपूर्णताओं की चीख़। भावुकताओं की गुहार। जीवन-मनुहार।

दो

इ त ने दिन बीते…

मैं अक्सर ढूँढ़ता हूँ तुम्हारा चेहरा अपनी स्मृति के गह्वर में
जहाँ पर कुछ आड़ी-टेढ़ी लकीरें दिखाई देती हैं
कुछ अस्पष्ट-से वाक्य सुनाई देते हैं
तुम्हारी आवाज़, जैसे कहीं कुछ खनक रहा है
सुनाई नहीं देती तुम्हारी आवाज़
तुम्हारी आवाज़ सुनाई देने की ध्वनि सुनाई देती है
दिखाई देता है तुम्हारा रेखाचित्र…
बहुत बार मैंने कोशिश की कि तुम्हारे रेखाचित्र को छू कर ज़िंदा कर दूँ!

तुम दरवाज़े पर खड़ी हो। तुम्हारा चेहरा दिख रहा है।
तुम्हारा चेहरा मेरे चेहरे से एक ‘जज़्ब समय’ में बात कर रहा है।
हम तस्वीरों जैसे तो नहीं हैं। तस्वीरों जैसे मृत तो नहीं।
हम अपने-अपने दरवाज़े पर खड़े हैं। हमारी अपनी-अपनी आवाज़ है।
साँसें हैं—बहुत पास-पास।
मुझे ऐसा भ्रम होता है—भ्रम होता है मुझे।

मैंने तुमसे इतना कुछ कहा, लेकिन हर बार मुझे मेरा कहा मेरे बारे में कहा सुनाई देता है।
लगता है कि मैं तुम पर अपना झूठ लाद रहा हूँ।
तुम उस बोझ को लेकर एक व्यस्त रेलवे स्टेशन पर भटक रही हो।

इ त ने दिन बीते। पेड़ों की आँखों से टपकते हैं आँसू…
जाने किसकी तलाश में,
क्यों भ ट क ता है ह म द म…

तीन

उन सभी बातों के शब्द याद आते हैं जो किसी ने कहे ही नहीं
उन सभी लोगों के स्पर्श होते हैं महसूस जो कहीं हैं ही नहीं
कभी न हुई घटनाएँ उपन्यास के पन्नों की तरह स्मृतियों में खुलने लगी हैं
जाने कौन-सी हवाएँ उन्हें फड़फड़ा देती हैं
जाने कौन थे वे लोग जो इस पुल से होकर गुज़रे
एक सपने में देखा कोई रो रहा था और नींद खुली तो आँखों के कोरों में ठहरे हुए थे कई बूँद आँसू
कितनी परछाइयाँ इधर भटकती रहती हैं
उनमें से एक कोई तुम्हारी होती
कितनी आवाज़ें आती हैं
लेकिन एक आवाज़ नहीं आती सुकून की कहीं से

हम जाने कहाँ जा रहे हैं
हमें जाने कौन बुला रहा है
चलते-चलते हम अवकाश में गिर जाते हैं
और फिर देर तक देर तक गिरते रहते हैं गिरते जाते हैं
गुरुत्वहीन अवकाश
समयरहित इतिहास
और दूर तक दूर तक प्रकाश नहीं
रंग नहीं
ध्वनि नहीं
होना नहीं

पृथ्वी पर बचा आख़िरी हरकारा एक ख़ाली पन्ने को घूरता है।

चार

सब कुछ अगर झूठ हो तो भी बचा रहता है थोड़ा-सा सच
सभी अगर भूल जाएँ तो भी कभी-कभी करता है कोई याद
कहीं कोई जगह न हो तो भी बची रहती है थोड़ी जगह
कुछ भी समझ न आए तो भी बनते हैं भाषाबंध
पुकारते हैं जो आपको बिना बताए
कहाँ चली जाती होंगी उनकी ध्वनियाँ?
यहाँ नदी तट पर बहुत से लावारिस नाव हैं जिनसे रिसता है पानी
जिन्हें लेकर कोई नहीं उतरेगा नदी में
आँखे बंद करके कोई सपना भी देख सकता है और सुबक भी सकता है।

कोई सुबह जलाता है जब रसोई में चूल्हा तो ईंधन में झोंकता है अपने सपने
सपनों की आँच पर पकी रोटी फिर थोड़ी तो मीठी होगी।

आदित्य शुक्ल हिंदी कवि-गद्यकार और अनुवादक हैं। ‘सदानीरा’ पर समय-समय पर प्रकाशित उनके काम-काज तथा उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें :  मुझे प्यार करने वाले सभी लोग मुझे भूल चुके हैं‘अगर फ़िरदौस बर-रू-ए-ज़मीं अस्त’गर्म पहाड़ का मनस्वीशहर के भीतर का शहरअगर मैं कहूँ कि अब नहीं लिखूँगाधर्म भटक जाता है, क्योंकि मनुष्य भटक जाता हैक्योंकि झूठ को बढ़ने की कला आती हैमैं किसी ‘हम’ का हिस्सा नहीं हूँमेरी देह को भय होगा, मुझे नहींमेरे दिल में किसी वेश्यालय से भी अधिक जगह हैसंघर्ष से कुछ उम्मीद मत करो

1 Comments

  1. अंचित अगस्त 5, 2020 at 2:27 पूर्वाह्न

    कितनी सुंदर कविताएँ!

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