कविताएँ ::
आरती हजाम

आरती हजाम

ख़ुद

एक

हर दूसरे दिन मैं उससे
पूछने पर मजबूर हो जाती हूँ कि
आख़िर क्यों करती है वह
ख़ुद से इतनी नफ़रत।

उसका हमेशा एक ही जवाब आता—
मैं ख़ुद से उतना प्यार भी करती हूँ,
जितना कि नफ़रत!

और मैं शांत पड़ जाती हूँ।

दो

एक शाम उसने कहा :
उसे फूलों और तितलियों से ज़्यादा
पत्तियाँ पसंद हैं।

वह बोलती रही—
अपनी पसंद की बातें
और मैं सुनती रही।

उसने कहा :
वह सबसे प्यार करना चाहती है,
पर वह थक जाती है।

कभी-कभी
उसे कुछ चीज़ों से
बहुत डर लगता है।

तीन

वह कहती है :
उसके अंदर बहुत सारी औरतें हैं
जो हर वक्त उससे तरह-तरह की
बातें करती रहती हैं।

सब साथ मिलकर हँसती हैं।
सब साथ मिलकर रोती हैं।
सब साथ मिलकर सपने देखती हैं।

वह हमेशा कहती है कि
उसने कभी हार नहीं मानी है।

वह जानती है :
जिस दिन उसने हार मान ली
उसके अंदर की सारी औरतें मर जाएँगी
और वह कभी किसी से
प्यार नहीं कर पाएगी।

चार

जब उसने साथ सपने की बात की थी
उसकी आँखों में आँसू थे
और चेहरे में अलग क़िस्म की ख़ुशी।

एक दिन उसने कहा :
जब वह पहली बार पिताजी के साथ
गाँव के किसी छोटे से बूचड़ख़ाने में गई थी
तब वहाँ ख़ून देखकर बहुत डर गई थी
और पिताजी मे उसे गले से लगा लिया था।

ठीक वैसा ही डर
कुछ साल बाद जंगल में
झूला झूलते-झूलते
अपनी जाँघों के बीच
ख़ून का एक लोथड़ा देखकर लगा था।

तब उसकी माँ ने उसे बताया कि
बचपन में उसे लाल रंग बहुत पंसद था।

तब से अब तक
लाल रंग को उसने अपनी ताक़त बना रखा है।

पाँच

अब वह थोड़ी और बड़ी हो गई है।

वह धीरे-धीरे देखना, समझना, चीख़ना,
लड़ना, पढ़ना, लिखना, सीख रही है।

ऐसे ही और बहुत सारी क्रियाएँ हैं
जिन्हें अभी उसे सीखना है।

छह

अब पिता मुझे गले नहीं लगाते,
जब मैं छुट्टियों में घर जाती हूँ।

माँ कहती है :
मैं बड़ी हो गई हूँ

मैं सोचती हूँ :
आख़िर कैसे मैं अचानक से बड़ी हो सकती हूँ
कल ही तो जब मेरी अपने भाई-बहनों से
किसी मामूली बात पर लड़ाई हुई थी
तब पिता ने कहा था :
मैं बच्ची हूँ।

एक लड़की का बड़ा होना
कभी-कभी
सचमुच दर्दनाक होता है।

सात

मुझे बचपन से ही उल्लू बहुत पंसद हैं।

मैंने गाँव के एक काका को कहा भी था कि
जंगल से एक उल्लू पकड़कर मुझे दे दें
पर उन्होंने मुझे उल्लू कहा
और मेले से एक लकड़ी का उल्लू
ख़रीदकर दे दिया—
यह कहते हुए कि तुम बच्ची हो
उल्लू कैसे पाल सकोगी!?
उल्लू रात भर जागते हैं
और तुम रात भर सोती हो।

अब मुझे रात भर नींद नहीं आती
और उल्लू भी कम हो गए हैं…
मैं उन्हें पालूँ भी तो भला कैसे पालूँ?!

आठ

क्या मैंने तुम्हें उस दिन की बात बताई है
जब मैं शहर की किसी गली से गुज़र रही थी
और अचानक साइकिल से आ रहे एक गिद्ध ने
मुझ पर झप्पटा मारा था?

मैं बहुत रोई थी उस दिन।
बिल्कुल अकेली थी मैं उस दिन।

और उस ठंड की रात
जब मैं बस से सफ़र कर रही थी
और एक बूढ़ा लिजलिजा-सा जानवर
मेरी देह से आ चिपका था।

बहुत डर गई थी मैं।
घिन आ रही थी मुझे ख़ुद से।

मैं लौटकर उस ठंड में घंटों नहाई थी।

मैं बहुत रोई थी उस दिन।
बिल्कुल अकेली थी मैं उस दिन।

नौ

डर
डर
डर
हर वक़्त लगता है मुझे
जब मैं करती हूँ सफ़र
जब कहीं से रही होती हूँ गुज़र
जब मैं होती हूँ अकेली
लगता है मुझे डर बहुत डर

डर
डर
डर
तुम्हें भी लगता होगा ना डर?
दरअस्ल, सबको लगता है डर!

फिर तुम क्यों समझ नहीं पाते
एक स्त्री का डर?


आरती हजाम की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह सिमडेगा (झारखंड) से आती हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्नातक (फ़्रेंच) की छात्रा हैं। उनसे artihajam2000@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. yogesh dhyani अगस्त 6, 2021 at 11:24 पूर्वाह्न

    achchi kavitayen

    Reply
    1. Don se kam nai अगस्त 7, 2021 at 5:25 पूर्वाह्न

      😂😂

      Reply

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