कविताएँ ::
दिव्यांशु दीक्षित
प्रयागराज में इलाहाबाद के लड़के
इलाहाबाद में लड़के तैयारी कर रहे थे
किसी विज्ञापन की
कहा जाता है कि वह विज्ञापन
अभी आना बाक़ी है
प्रयागराज में भी
उसी न आए हुए विज्ञापन की
तैयारी ज़ोरों पर है
बस एक अंतर आया है
अब इलाहाबाद के लड़के
प्रयागराज में रहते हैं
प्रयागराज में भी
इलाहाबाद के लड़के
परीक्षाओं के नाम नहीं याद रखते
उन्हें याद रहती है विज्ञापन-संख्या
जैसे :
विज्ञापन संख्या सैंतालीस जो कोर्ट में है
अड़तालीस जिसका पेपर लीक हुआ था
और उनचास जो अभी आने वाला है
एक विज्ञापन अज्ञात भी है
जिसकी परीक्षा हुई थी और
अगला विज्ञापन आने तक
रिजल्ट नहीं आया है
शायद इसी संबंध में कुछ लड़के
लोक सेवा आयोग के गेट पर
धरना दे रहे हैं—
उसी लगन से जैसे देते हैं
लोक सेवा आयोग की परीक्षा
तमाम फ़ोर्स के बीच कोई अधिकारी
उनसे बात करने को तैयार है
उन्हें पता है कि अधिकारी से
सभ्यता से बात करते हैं
क्योंकि उन्हें याद हैं—
संविधान के तमाम अनुच्छेद,
स्वतंत्रता की सीमा, मौलिक कर्तव्य और
पॉलीथीन में कम होती हुई दाल,
पैकेट के ख़त्म होते मसाले,
कमरे का किराया और कोचिंग की फ़ीस
विज्ञापन होती ज़िंदगी में
उन्हें ‘पार्टी’ शब्द पता है
इलाहाबाद के लड़के पार्टी में बनाते हैं—
पनीर और पूरी
थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं—
परीक्षाओं का बढ़ता हुआ दबाव,
बढ़ती हुई गर्मी,
बढ़ती हुई ठंड…
लेकिन फिर भी नहीं भूल पाते हैं
बढ़ती हुई जनसंख्या के आँकड़े,
माँ-बाप और बहन की बढ़ती हुई उम्र
‘अटेम्प्ट’ के दर्शन को मानने वाले लड़के
अक्सर टूट जाते हैं अटेम्प्ट पूरे हो जाने पर
कुछ लोग कह रहे हैं
इलाहाबाद के टूटे हुए विक्षिप्त लड़कों को
प्रयागराज में शांति मिलेगी
यह सरकार की निःशुल्क व्यवस्था है।
मौत के विकल्प
मरते सभी हैं
कुछ विकल्पहीनता से मर जाते हैं
कुछ विकल्पों की बहुलता से
मुझे उन पर तरस आता है जो
सीमित विकल्पों से मरते हैं
जैसे कि अपनी मौत मर जाना
या प्राकृतिक मौत मर जाना
विकल्पहीन मज़दूरों के पास
मरने के बहुत विकल्प हैं
जैसे : बुख़ार-ज़ुकाम-टीबी से मरना
अस्पताल के गेट पर
या खेत पर मरना
जूतों-डंडों-लाठियों से
या बंदूक़ों से मरना
किसी फ़ैक्ट्री के बेल्ट पर निचुड़कर मरना
भरे हुए ट्रकों से कुचलकर मरना
भूख से मरना
या सड़क पर चलकर मरना
कुछ मज़दूर ट्रेन से कटकर मर गए
लोग कहते हैं—वे मूर्ख मज़दूर थे
फ़ैक्ट्रियों और बाज़ारों में
बुद्धिमान मज़दूरों की माँग हैं
एक शौक़ीन मज़दूर
फ़ोटो खिंचाकर मर गया
रस्सी बनाने में कुशल मज़दूर
लटककर मर गया
कहीं पढ़ा था—
एक मज़दूर
गोलियों से बच गया
गालियों से मर गया
ईश्वर मारने के नए प्रयोग करता है
मज़दूर उन प्रयोगों के पहले सैम्पल हैं
सरकारें लैब असिस्टेंट!
विकल्पहीन राजनीति में
मज़दूरों के पास मौत के इतने विकल्प
मुझे विचलित नहीं करते।
घर
दीवारें शरीर हैं
खिड़कियाँ आँखें
किवाड़ मुँह
रोज़ शाम को
घर लोगों को खा जाता है
और सुबह उगल देता है
लोग समझते हैं—
वे काम पर जा रहे हैं।
मरे हुए चलते लोग
जब कोई मर जाता है
तब वह कुछ भी
सुन नहीं सकता
देख नहीं सकता
कह नहीं सकता
बोल नहीं सकता
वह सुन नहीं सकता
बंदूक़ की आवाज़ें
तड़पते हुए लोगों के चीख़ें
जूते की धमक
वह सूँघ नहीं सकता
सड़ती हुई लाशें
वह देख नहीं सकता
टूटती हुई लाठियाँ
फूटती हुई छातियाँ
कुचले गए सिर
और नीली पीठें
वह कह नहीं सकता एक शब्द—
ग़लत
कि कुछ भी ग़लत है
वह बोल नहीं सकता
कि वह मर गया है
वह चल नहीं सकता
अपने पैरों पर
जबकि उसके आस-पास
मरे हुए लोग चल रहे हैं।
दंगे के बाद शिविर
अख़बार के पहले पन्ने पर
दंगे के बाद बने शिविर की फ़ोटो है
फ़ोटो में इंसानों से धुंधले चेहरे हैं
चूँकि यह फ़ोटो है
तो चेहरे एक ही भाव में हैं
हालाँकि शिविर में इतनी शांति नहीं है
शिविर के गेट पर
दो साल का एक बच्चा
धरती को मुट्ठियों में भींचकर
गले के आख़िरी छोर से रो रहा है
उसके आस-पास बहुत से चेहरे रो रहे हैं
वह क्यूँ रो रहा है—
यह कहना मुश्किल है
बेड संख्या 32 पर
दंगों से दो दिन पहले की प्रसूता
स्तनों में दूध भरे बैठी है
बिस्तर संख्या 51 के पास
जाँघों तक कुर्ते वाली
बिना सलवार की लड़की लेटी-पड़ी है
लंबी बेहोशी के बाद
वह होशनुमा बेहोश है
पास में उसका बाप खड़ा है
वह ख़ुश है
शिविर के छोर में
लंबे तिरपाल पर
कुछ मानवनुमा आकार पड़े हैं
आधे रोस्ट हुए चिकेन की भट्टी में
कोई पानी उड़ेल दे
ये आकार इतना ही जले हैं
तिरपाल के चारों ओर लोग खड़े हैं
इंसान इंसान की शिनाख़्त कर रहा है
अचानक एक स्त्री भागकर
घड़ी पहने हुए हाथ से लिपट गई—
‘यही हैं!’
मुझे संतोष हुआ—
जले हुए इंसान
घड़ी से पहचाने जा सकते हैं
एक बुढ़िया
जैकेट की एक बाँह लिए
इधर-उधर भाग रही है
लोगों को बाँह दिखा रही है
उसे बची हुई जैकेट मिलने की उम्मीद है
वापस आ रहा हूँ
गेट से कुछ पहले एक व्यक्ति
अँगूठी चूमकर रोए जा रहा है
व्यक्ति को देखकर कहा जा सकता है—
वह पागल है
हालाँकि अँगूठी को देखकर कहना मुश्किल है
कि यह किसी उँगली में थी या जानी थी
गेट पर बैठे हुए बच्चे ने
धरती को मुट्ठियों से आज़ाद कर दिया है
किसी ने उस के मुँह में
दूध की बोतल ठूँस दी है।
सवाना के हिरण
सवाना घास के हरे हिंसक मैदानों में
हिरण पैदा होते हैं
बड़े होते हैं
और बचपन से ही वे
घास से मांस बनाते हैं
सही पढ़ा
हिरण घास से मांस बनाते हैं
फिर कोई शेर मांस खा जाता है
पूँजीवाद के हरे मैदानों में
मज़दूर हिरण हैं।
तुम्हारे बाद
जब तक तुम साथ थीं
कभी महसूस नहीं हुआ
तुम्हारा साथ में होना
जैसे महसूस नहीं होतीं
चलती हुई साँसें
धड़कता हुआ दिल
झपकती हुई पलकें
तुम्हारे जाने के बाद
मैं नहीं हूँ मेरे साथ
महसूस हुआ है
तुम्हारा साथ में होना
जैसे—
टूटती साँसें
सिमटता दिल
बोझिल पलकें।
दिव्यांशु दीक्षित (जन्म : 1993) की कविताओं के विधिवत् प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे divyanshu.k.dixit13@gmail.com पर बात की जा सकती है।
अच्छी कविताएं!
शुभकामना कवि को।