कविताएँ ::
तारा राजेंद्र अभिनव
एक
सर्वाधिक पीड़ा उन्होंने सौंपी
जो बिना किसी झगड़े के अलग हो गए।
उनकी अनुपस्थिति की रिक्तता को
बहुधा ही निहारता रहा हूँ
अपराधबोध से।
दो
बात को भूल जाना था
और हाथ को थामे रखना था।
तुमने बात को पकड़े रखा
और हाथ को छोड़ दिया…
तीन
जिस पुकार में
न बचा हो कोई मोह
उससे बेहतर है
एक अंतिम विदा
और जिस फ़िक्र में
रह गई हो फ़क़त औपचारिकता
उससे बेहतर है
स्पष्ट उपेक्षा।
ख़ूबसूरत भ्रम से बेहतर है
एक असुंदर यथार्थ।
चार
भूख से डरे हुए व्यक्ति के भीतर
प्राकृतिक रूप से उग आता है
रोटी के प्रति असीम स्नेह।
पर प्रेम से डरे हुए
व्यक्ति के पास नहीं होते
ऐसे आसान विकल्प।
पाँच
किसी इंसान के भीतर रहकर
जो तिरस्कृत थे
वे दुख कला में उतारे गए
तो उन्हें प्रेम मिला
थपकियाँ मिलीं
दिलासा मिली
यह दुख का विषय है
कि जो दुख सजीव हैं
उन्हें नज़रअंदाज़ करके
सारी सहानुभूति लुटा दी जाती है
वर्णित और चित्रित दुखों पर
यह मानवीय संवेदनशीलता का निर्जीव पक्ष है।
छह
दर्शनशास्त्र का विधार्थी
लिख लेता है अच्छी कविताएँ
उसके अवचेतन में संगृहीत दर्शन
कविता की शक्ल पाकर
नवीन विचार बन जाता है
अर्जित को स्वनिर्मित कहना अपराध नहीं
लेकिन थोड़ी बेईमानी अवश्य है
कविता पर अध्ययन का प्रभाव होना
बुरी बात नहीं
बुरा है
कविता का अध्ययन से दब जाना।
सात
आस्थाओं के खंडहर पर खड़ा मैं
जब सोचता हूँ कभी
कि गंगा में नदी से इतर भी
कोई आकर्षण है क्या?
तब भीतर से आता है
एक आसक्त जवाब—
हाँ, है न!
कि तुम्हारे शहर से गुज़रती है गंगा।
आठ
अंततः रुदन सिसकियों में
और सिसकियाँ चुप्पियों में बदल गईं
यह एक नए किस्म की हलचल थी
अंततः आग बुझ गई
यह एक नए क़िस्म की ज्वाला थी
अंततः गति थम गई
यह एक नए क़िस्म का बहाव था
अंततः उसने याचनाएँ त्याग दीं
यह एक नए क़िस्म का निवेदन था
अंततः वह मुस्कुरा पड़ा
यह एक नए क़िस्म की पीड़ा थी
नौ
हाल पूछने वाले
हाल जानने में रुचि नहीं रखते थे।
औपचारिकताओं से आबद्ध व्यवहार की प्रतिक्रिया में
मुस्कुरा कर उत्तर देती हैं औपचारिकताएँ
और गहरे उतरता हूँ तो जान पाता हूँ
कि मनुष्य की सारी व्यावहारिकता सिमटी हुई है
औपचारिकताओं के इसी लेन-देन में।
‘और कैसे हो?’
एक सौंदर्ययुक्त सवाल है
इसके जवाब में अगर तोड़ दूँ हर बाँध
तो प्रश्नकर्ता तक बहकर पहुँचेंगे
अनगिनत कुरूप उत्तर।
लेकिन औपचारिकता कहती है
कि सौंदर्यमयी सवाल का सौंदर्यमयी जवाब दो!
अतः कह रहा हूँ
कि ठीक हूँ।
दस
जब हम सहरानुमा दुनिया में रह रहे हों
तब हमें प्यास पर नियंत्रण रखना चाहिए
रेगिस्तान से पानी की उम्मीद रखना
आपकी निजी मूर्खता है
इसमें रेगिस्तान का कोई दोष नहीं।
रेत का अपना गुण है
कि उसमें नमी नहीं।
मिट्टी के मनुष्य को चाहिए
कि वह रेत के साथ सूखे संबंध स्थापित करे।
विवशताओं से घिरी मूर्ति में
आसक्ति की तलाश बेमानी है।
निर्जीव चीजों को
उनकी कठोरता के लिए
मुआफ़ कर देना चाहिए!
तारा राजेंद्र अभिनव (जन्म : 1991) की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे abhinavgaur599@gmail.com पर बात की जा सकती है।
यह तो गुलज़ार की पंक्ति है
बांह छोड़ दी बात को पकड़े रहे
Bhut sundar
Waah guru