कविताएँ ::
कुमार मुकुल

कुमार मुकुल

यह गंगा है

यह गंगा है
मादरे-अमन

सत्यवादी हों
के विकट फ़सादी

सबकी आग

यहाँ राख होती
शांत हो जाती है।

सुबह का शुबहा

अँधेरे
घेरे रहते हैं

पर यह

सुबह का
शुबहा है

जो रोशन करता है
दिशाएँ।

कवि और आदमी

अपने या
इसके उसके चाहने से
कोई कवि नहीं हो जाता

होते होते ही
कवि होता है कोई

जैसे कोई मनुष्य बनता है
बनते बनते ही

बना बनाया नहीं होता वह।

क्या मैं केवल एक चेहरा हूँ

अपने चेहरे से
चिढ़-सी होती जा रही
अरसे से इधर

या यूँ कहें कि
चेहरे की अवधारणा से ही
इत्तिफ़ाक़ नहीं रहा

क्या मैं
एक चेहरा हूँ केवल
अपने आधार से
कटा-छँटा तराशा गया।

और जब मैं वरिष्ठ हुआ

अनजाने
या कि चलन में
किसी ने वरिष्ठ कहा जब
तो अपनी वरिष्ठता को
देखा मैंने
और हँसा
के क्या बला है यह
फ़र्श से उठाकर
ताखे पर रख दिया
के चल फिर न सकूँ
हो जाऊँ जड़
रह जाऊँ बस धड़
कि समक्ष
शीश झुकने लगे, कटने लगे
गरिष्ठता की पंजीरी बँटने लगे।

सपने से एक मुलाक़ात

औपचारिक पूछा-पेखी के बाद
पंजों पर उचककर ऐन दिल के पास
एक लाल क़लम खोंस दी उसने

भर आँख देख नहीं पा रहा था मैं
वही पुरानी झिझक
पर एक नई बेचैनी भी थी

आख़िर मेट्रो स्टेशन से निकल
पुल पर आ गए हम
ग्यारह की धूप में गहनों से लकदक
मेरे बाएँ चल रही थी वह

दो बातें करते बेफ़िक्र हो साथ चलने का
तीस साल पुराना सपना क्या यही था

इतने गहने …उत्तर प्रदेश है यह

अरे रोल्ड-गोल्ड हैं सब आप भी न!

अब क्या करना है…

हमेशा की तरह
मेरी समझ में कुछ आ नहीं रहा था

चलिए उधर चलते हैं काउंटर की ओर

उसके गंतव्य की बस सामने खड़ी थी
सीट पर बिठा पास खड़ा हो गया मैं

बस एक बार मिलने की ख़्वाहिश है
छूकर देखना है कि किस मिट्टी के बने हैं आप…

…कि बस हिली
मुस्कुराए जा रही थी वह

चलते हैं—फिर भेंट होगी
साथ रखा किताबों का पैकेट पकड़ाते
हाथ मिलाता झटके से उतरा मैं

कुछ आगे बढा
तो एक मैसेज काँप रहा था—
कुछ खिलाया नहीं आपने
एक चॉकलेट ही ले आते…।

कुमार मुकुल (जन्म : 1966) हिंदी के सुपरिचित कवि-लेखक हैं। उनसे kumarmukul07@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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