कविताएँ ::
मनीष कुमार यादव
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यथेष्ट
इस वैकल्पिक दुनिया में
इतना अँधेरा रहा
कि चारों ओर मोमबत्तियाँ
जलाकर बैठे लोग
उजाले की चाहत में
रात बुझा बैठे
मैने दुखों को नहीं
दुखों ने मुझे चुना था
फिर न जाने क्यों
यह कुछ पतंगों को रास नहीं आया
कैमरों में प्रेम दर्ज हो गया
और आज़ादी क़ैद हो गई
मेट्रो की सुबहों में इतनी गुंजाइश होती
कि प्रेम करने वाले बैठे हों
तो घूरती निगाहें नहीं होतीं
याद की अवस्थिति में
दुनिया से मिली
उलझनें होतीं
मैं अपनी उलझनें
दर्पण के सामने कहता रहा
दर्पणों ने चेतन होने का अभिनय किया
वे सब कुछ देख पाने का दुख सहते रहे
वे अपनी कहानी में उलझे
मेरी कहानी कहते रहे!
तयशुदा समय की बीमार उपमाएँ
कुहासे के छँटने में इतना विलम्ब था
कि इंतिज़ार कर रहे लोग
कुछ देर और ठहर जाते
तुम्हारे साथ ठहरने के सुख इतने बड़े थे
कि अधराये पाँव
पूरा शहर
देखने से पहले थक जाते
पूरा शहर देख चुके लोग
रास्ता भटक जाते
रास्ता भटक चुके लोगों ने
बहुत थक जाने पर
ठहरना चुना
जातीय अस्मिताओं के पहाड़ इतने बड़े थे
कि उन्होंने प्रेमियों को
घर की देहरी
नहीं लाँघने देना चुना
जब चलने और ठहरने से पेट भरा
तब लोगों ने यात्राओं का
दुःखांत लिखना चुना
तुमने
दृश्य से उठकर
चले जाना चुना
और मैंने चुनीं
तयशुदा समय की बीमार उपमाएँ!
वितानमय
निष्ठुरताओं से घिरा भयभीत मन
धैर्य का अभिनय कर रहा है
अवमुक्त होने के संदर्भ में
कुछ स्मृतियाँ कुछ आशंकाएँ बची हैं
आगंतुक पत्र के साथ
चपरासी
शहर से शहर भागता है
एक दिन ठग लिए गए समय की राख
हमारी नियोजित इच्छाओं पर
धूल की तरह
पड़ रही होती है
बहुत आत्मीय लगते हैं रास्ते
जटिल दुनिया में आतिथ्य तलाशते
प्रेम-पत्रों की तरह
उस दिन अमलतास से नीचे
कोई फूल नहीं गिरा
पदचिह्न मिटाकर
कोई ज्योत्सना-अभिमानी चल नहीं सकता
मैं एक खोया हुआ यात्री हूँ
अधिष्ठित सपनों में
अपना घर भूल आया हूँ
मैं जब सो जाता हूँ
तो मुझे अपने सपनों में
असली कहानी मिलती है
और देखता हूँ
आँखों से एक हाथ दूर
पुराना अतीत बैठा है
अजीब घटनाओं में
समय रुकने का भ्रम छिपा है
मन किसी शोकागार में बिलखती चिड़िया है
सम्प्रेषित नहीं हो पाता निष्ठुर अवबोध
कथानकों की दुर्लब्ध भाषा में गहरे डूबा मैं—
छिछला अवसाद लिए हुए
समय का प्रवाह अब आगे नहीं बढ़ रहा है
(हालाँकि आत्महत्या अब एक परित्यक्त विचार है)
और समय की प्रतिबद्धता जैसे हताशा का चेहरा है
प्रतिबद्धताएँ कातर मन का दिवास्वप्न हैं
यही वास्तविकता की संरचना की
कुल तोड़फोड़ है।
स्मृतियाँ एक दोहराव हैं
उत्कंठाओं के दिन नियत थे
प्रेम के नहीं थे
चेष्टाओं की परिमिति नियत थी
इच्छाओं की नहीं थी
परिभाषाएँ संकुचन हैं
जो न कभी प्रेम बाँध पाईं
न देह
स्मृतियाँ एक दोहराव हैं
जो बीत गए की पुनरावृत्ति का
दंभ तो भरती हैं लेकिन
अपनी सार्थकता में अपूर्ण
शब्दभेदी बाण की तरह
अंतस में चुभती रहती हैं
विरह बिम्बों से भरा दर्पण है
जो एक और बिम्ब के
उर्ध्वाकार समष्टि का भार
सहन करने में असहाय
हर एक विलग क्षण में टूटता रहता है
दर्पण का टूटना
प्रतीक्षाओं के उत्तरार्ध की निराशा है
उससे छिटककर गिरा एक बिम्ब
कृष्ण के पाँव में धँसा हुआ
बहेलिए का तीर है
प्रेम मनुष्य के लिए सब कुछ बचा लेता है
जो प्रतीक्षाओं को नहीं प्राप्त होता
सब जाते हैं उद्विग्नता से प्रेम की तरफ़
और लौटते हैं
स्मृतियों की खोह में बरामद होते हुए
एकांत के समभारिक क्षणों में कहीं कोई स्थायित्व नहीं है
वेदनाएँ अभ्यस्त एकालाप हैं
और एकांत—
अनीश्वरवाद की पीड़ा!
मनीष कुमार यादव हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-लेखक-अनुवादक हैं। वह इन दिनों राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान (लखनऊ) में पढ़ाई कर रहे हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताएँ पढ़ने के लिए यहाँ देखें : मेरे दुख में विसर्ग नहीं है
मनीष की कविताओं में सूक्ष्म संवेदना और गहरी अंतर्दृष्टि है । पिछली बार भी उनकी कविताएँ पढ़ कर अच्छा लगा था और इस बार भी । शुभकामनाएँ ।